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पल भर में दोनों महाश्मशान में मंगला के सामने बेहोशी की अवस्था में पड़े हुए थे। कमारु मंगला की इजाजत से वहां से गायब हो चुका था।
मंगला के दाएं हाथ की तर्जनी उंगली से एक हरी किरण निकली तथा विशाखा गिरी और धनराज के बेहोश जिस्मों पर पड़ने लगी। उन किरणों के प्रभाव से दोनों होश में आकर बैठ गए।
मंगला की आंखे क्रोध से जैसे अंगारे उगल रही थी। उसने जोर से एक पदाघात धनराज के वक्ष पर किया। उस एकमात्र प्रहार से ही धनराज की आत्मा उसके निकृष्ट शरीर से निकलकर नरक के लिए कूंच कर गयी।
विशाखा गिरी धनराज की मौत को देखकर अत्यंत भयभीत हो गया।
वैसे तो वह अनेक सिद्धियों का स्वामी था और एक अदृश्य सुरक्षा कवच २४ घंटे उसके शरीर की रक्षा करता था। उस सुरक्षा कवच को भेद कर कोई भी शक्ति उसको इस तरह उठा कर ले जा सकती थी, विशाखा गिरी यह स्वप्न में भी नहीं सोच सकता था। इसीलिए शक्तिशाली होते हुए भी वह भयभीत हो उठा था।
धनराज को मृत्यु के घाट उतारने के बाद मंगला ने विशाखा गिरी को संबोधित करके कहा, "तुम्हारी मौत इतनी आसान नहीं होगी दुष्ट, तुम्हें ऐसी सजा प्राप्त होगी जिससे तुम जीवनपर्यंत नरक की अग्नि में जलोगे।"
"तुम स्वयं को बहुत शक्तिशाली समझते हो, अगर साहस हो तो उठकर मुकाबला करो।"
विशाखा गिरी भयभीत तो बहुत था, फिर भी उसने साहस जुटाकर मुकाबले का प्रयत्न किया, लेकिन उसकी समस्त शक्तियां मंगला के सामने कुंद हो चुकी थी।
अब महाभैरवी मंगला ने चिता से अंगारों की एक मुट्ठी भरकर उठाई तथा उनको विशाखा गिरी के ऊपर फेंक दिया।
अंगारों के पड़ते ही विशाखा गिरी के शरीर पर अनेकों जख्म हो गए। कुछ जख्म तो इतने गहरे थे कि उनमें से हड्डियां भी स्पष्ट दिखाई दे रही थी।
वह पीड़ा से आर्तनाद करते हुए अपने गुरु अशोक गिरी को पुकारने लगा।
अशोक गिरी अपने शिष्य विशाखा गिरी से बहुत स्नेह करते थे लेकिन उसके दुष्कर्मों को देखकर उन्होंने उससे दूरी बना ली थी।
फिर भी वह अपने शिष्य की पीड़ा भरी पुकार को नजरंदाज नहीं कर सके तथा पुकारते ही उसके सामने उपस्थित हो गए।
उन्होंने महाभैरवी मंगला को प्रणाम किया तथा अपने शिष्य को क्षमा करने का आग्रह करते हुए कहा, "माते, आप तो साक्षात जगदम्बा है, मैं जानता हूं कि इसके अपराध क्षमा के योग्य नहीं है, लेकिन एक माता अपने पुत्र के सहस्त्रों अपराध क्षमा करती है, इसको भी आप क्षमा कर अनुग्रहित करे।
महाभैरवी मंगला अशोक गिरी के शिष्य के प्रति अनुग्रह से द्रवित हो गई तथा कहा, "तुम्हारे अपने शिष्य के प्रति स्नेह को देखकर मैं प्रसन्न हुई अशोक गिरी, इसीलिए इसके अपराधों को क्षमा कर इसे स्वास्थ्य लाभ प्रदान करती हूं, वरना यह जीवन भर नरक की अग्नि में जलता रहता।"इसको मानव कल्याण के मार्ग पर चलने का एक अवसर और देती हूं इसीलिए इसकी सिद्धियां जो मैंने इससे छीन ली थी, उन्हें लौटा रही हूं।"
"लेकिन इसको कानून के समक्ष अपने अपराधों को स्वीकार करना होगा तथा जो भी सजा इसे प्राप्त हो उसे भोगना होगा"
फिर मंगला ने अशोक गिरी को एकांत में लेे जाकर कहा, "तुमने इसे बचा तो लिया लेकिन भविष्य में मानवता विरोधी कृत्य में यह एक दुष्ट का साथ देगा तब अवश्य ही मृत्यु को प्राप्त होगा।"
यह भविष्यवाणी सुनकर अशोक गिरी को दुख तो बहुत हुआ लेकिन वह कर भी क्या सकता था सिवाय दुखी होने के।
उसने भावी को अटल समझ इसपर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी और महाभैरवी मंगला को प्रणाम कर वहां से प्रस्थान कर गया।
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हिमालय पर्वत की किसी गुप्त कंदरा में एक अत्यंत वृद्ध और कृशकाय तपस्वी सैकड़ों वर्षो से केवल वायु का सेवन करते हुए तपस्या में लीन थे।
उनके शरीर के समस्त बाल सफेद हो चुके थे तथा सिर पर जटाओं का जंगल उगा हुआ था।
वे थे महान तपस्वी लोटन नाथ। निरंतर आत्म साधना में लीन।
सैकड़ों साल से वे महादेव की प्रेरणा से हिमालय की गुप्त कंदरा में तपस्या कर रहे थे और मोक्ष प्राप्ति का इंतजार कर रहे थे।
अनायास ही उनके हृदय में स्थापित महादेव की छवि गायब हो गई और उन्होंने विकल होकर अपनी आंखें खोल दी।
लोटन नाथ ने आंखे खोलकर देखा तो साक्षात महादेव उनके सम्मुख खड़े मुस्करा रहे थे।
लोटन नाथ भावावेशित होकर महादेव के चरणों में गिर पड़े और भांति-भांति के शब्दों द्वारा उनका गुणगान करने लगे।
उन्होंने कहा, "आपके दर्शन कर मैं कृत-कृत हुआ भगवन्, मैं जानता हूं कि आप मुझे अपने धाम कैलाश पर्वत पर ले जाने के लिए आये हो।"
"वह तो अवश्य लेकर जाऊंगा, लेकिन समय आने पर।"
"अब तुम्हें एक कार्य करना होगा।"
"शैतान अब अपने पैर पसार रहा है, वह अपने दस प्रमुख पुजारियों और अन्य मानवता विरोधी शक्तियों को इकठ्ठा कर अच्छाई को समाप्त कर बुराई का साम्राज्य स्थापित करना चाहता है।"
"लेकिन भगवन् शैतान का तो कोई अस्तित्व ही नहीं था, मानव के अंदर छिपी हुई बुराइयों को ही शैतान का प्रतीक माना जाता था।"
"किंतु अब उसका अस्तित्व है, इस युग में मानव के अंदर इतनी ज्यादा बुराइयों ने घर कर लिया कि उसका अस्तित्व साकार हो उठा।"
"अब मानवता का हित करने वाली शक्तियों को एकजुट होकर उसका मुकाबला करना होगा।"
"देवताओं ने उसको समाप्त करना चाहा, तो उसने कहा वह स्वयं युद्ध में भाग नहीं लेगा तथा इसके बदले में देवता भी किसी युद्ध में सीधे भाग नहीं ले सकेंगे।"
"शैतान ने भगवती दक्षिण काली का तेज धारण करने वाले राजकुमार शक्ति देव को अपना प्रमुख मोहरा बनाया है।"
"तुम्हे यह युद्ध मेरे और भगवती के संयुक्त तेज को धारण करने वाले पिनाक के नेतृत्व में लड़ना होगा।"
इसके अतरिक्त महादेव ने लोटन नाथ को कुछ अन्य जानकारियां दी और वहां से प्रस्थान कर गए।
महादेव के प्रस्थान करने के बाद लोटन नाथ अपने स्थान पर खड़े हो गए और जोर से कुंभक क्रिया की।
देखते-देखते उनके शरीर की कांति बढ़ने लगी, शरीर पर मौजूद समस्त बाल काले हो गए, सभी झुर्रियां समाप्त हो गई तथा चेहरे पर यौवन का तेज चमकने लगा।
कुछ ही क्षणों उपरांत उस स्थान पर उन वृद्ध तपस्वी की जगह एक युवा खड़ा था, जिसके समस्त अंग दृढ़ थे और चेहरे पर अभूतपूर्व कांति थी।
उसके सिर की उलझी हुए जटाओं के स्थान पर शानदार तरीके से कंघी किए हुए बाल थे, चेहरा दाढ़ी-मूंछ के झाड़-झंझाड़ से पूर्णतया मुक्त था, शरीर के अनावश्यक बाल बिल्कुल साफ थे तथा शरीर पर आधुनिक युग के वस्त्र थे।
उन्होने अपने सामने की ओर देखा जैसे दर्पण में मुख देख रहे हो तथा संतुष्टि से अपना सिर हिलाया।
शैतान इस समय पिशाचों की घाटी में राजकुमार शक्ति देव के समक्ष उपस्थित था। उसने राजकुमार को अपने बारे में बताकर, उससे कहा,
"पिनाक ने तुम्हारे ऊपर आक्रमण करने की पूरी तैयारी कर ली है।"
"लेकिन पिनाक का तो मैं वध कर चुका हूं।"
"वह मरा नहीं, उसको भैरवानंद ने बचा लिया।"
"किंतु मुझे उसका क्या डर, वह आक्रमण करेगा तो अब की बार उसे मैं अवश्य ही मौत के घाट उतार दूंगा।"
"अब वह पहले वाला पिनाक नहीं रहा, महाकाल और दक्षिण काली का संयुक्त वरदान प्राप्त कर वह अजेय हो चुका है।"
"लेकिन न ही वह मेरा वध कर सकता है और न ही मुझे पराजित कर सकता है।"
"बात को समझो राजकुमार, उसको प्राप्त वरदान के अनुसार वह तुम्हारी शक्तियों को सुप्तावस्था में पहुंचा सकता है। इससे तुम एक साधारण मानव बन कर रह जाओगे।"
"फिर क्या किया जाए?", राजकुमार ने थोड़ा चिंतित होकर पूछा।
"मैं तुम्हे बताता हूं, यह पिशाचों की घाटी मेरे ही इलाके कि सीमांत चौकी है तथा इस घाटी के बाद मेरा राज्य शुरू हो जाता है।"
"मैंने ही पिशाचों को अपने इलाके की सीमा की रक्षा के लिये यहां पर स्थापित कर रखा था, कोई भी दुश्मन बिना इनसे उलझे वहां घुसपैठ नहीं कर सकता था।"
"मैं तुम्हे अपने महल में लेजाने आया हूं।"
"वहां तक जाने का मार्ग बहुत ही भयानक और दुर्गम है। मार्ग में अनेकों भौगोलिक और मायावी खतरे मौजूद है, जिनको पारकर वहां तक पहुंचना अत्यंत ही दुष्कर कार्य है।"
"आकाश मार्ग को भी पूरी तरह सुरक्षित किया गया है जिससे आसमान से भी वहां घुसपैठ असम्भव है।"
"इसके अतिरिक्त मेरी देवताओं के साथ एक संधि हुई है जिसके अनुसार कोई भी प्राणी इस इलाके में अपनी स्वभाविक गति का ही उपयोग कर सकता है।"
सम्पूर्ण बातों का निष्कर्ष यह निकला कि राजकुमार शैतान के महल में पहुंच गया।
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विशाखा गिरी ने कानून के समक्ष आत्मसमर्पण कर अपने अपराधों को स्वीकार कर लिया था और इस समय वह जेल में बंद था।
रात का समय था, विशाखा गिरी को नींद नहीं आ रही थी। दरअसल वह मुलायम बिस्तरों पर सोने का आदि हो चुका था, इसीलिए जेल के फर्श पर उसे नींद कहां आनी थी।
वह पड़ा-पड़ा अपनी विगत जिंदगी के बारे में सोच रहा था कि शैतान के पुजारी सैरात का आगमन हुआ। वह उसके पास शैतान का संदेश लेकर आया था।
उसने विशाखा गिरी को जेल से भागकर शैतान की पनाह में जाने का प्रस्ताव रखा।
लेकिन विशाखा गिरी महाभैरवी मंगला से बहुत भयभीत था, उसने शैतान के प्रस्ताव से इंकार करके कहा,
"क्या तुम समझते हो कि ये जेल की दीवारें मुझे कैद करके रख सकती है?"
"मैं कभी भी आजाद पंछी कि भांति यहां से उड़ सकता हूं, लेकिन मंगला का क्या करूं, वह मुझे पाताल से भी खोज निकालेगी तथा एकबार उसके हाथों में पड़ने का अर्थ है, नरक की आग में जलना।"
लेकिन शैतान ने सैरात को इसलिए तो विशाखा गिरी के पास नहीं भेजा था कि वह उसका इंकार सुनकर वापिस चला आए।
उसने भांति-भांति के तर्कों द्वारा विशाखा गिरी को कायल कर दिया, जिससे वह वहां से भागने पर सहमत हो गया।
कुछ ही समय उपरांत वे दोनों शैतान के महल में उपस्थित थे। स्वयं शैतान ने राजकुमार शक्ति देव सहित उसका स्वागत किया और अपनी लच्छेदार बातों द्वारा उसका भय पूरी तरह से दूर कर दिया।
शैतान राजकुमार तथा विशाखा गिरी जैसे दुष्ट मनुष्यों को इसलिए अपने महल में इकट्ठा नहीं कर रहा था कि वह उनको सुरक्षित करना चाहता था, वरन् वह तो यह कार्य इस हेतु करना चाहता था कि किसी तरह से पिनाक को समाप्त किया जा सके।
जब उसे पता चला कि पिनाक ने भगवान महाकाल और भगवती दक्षिण काली के संयुक्त वरदान को प्राप्त कर लिया तो वह समझ गया कि उस मानव हित अभिलाषी व्यक्ति का किसी न किसी प्रकार से विनाश करना ही होगा, वरना वह उस जैसे प्राणियों की नाक में दम करता रहेगा।
इससे पहले उसे राजकुमार के बारे में भी मालूम हो चुका था, लेकिन वह यह सोचकर प्रसन्न था कि दैवीय शक्ति एक दुष्ट व्यक्ति को प्राप्त हुई है, जिससे मानवता का अहित ही होगा।
पिनाक का तोड़ उसे राजकुमार शक्ति देव में नजर आया।
इसीलिए उसने राजकुमार को अपने महल में पहुंचा दिया ताकि पिनाक उसे खोजता हुआ वहां पहुंचे तथा राजकुमार शक्ति देव से उसका टकराव करवाया जा सके।
इस टकराव के लिए उसने अपनी रणनीति तय कर ली थी। राजकुमार के चारों तरफ उसने एक सुरक्षा व्यूह बना दिया था जिसमें उसके दसो पुजारी व विशाखा गिरी जैसे सैकड़ों समाज के दुश्मन थे।
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पिनाक आश्रम के अपने कक्ष में उपस्थित थे।
वे ध्यान लगाकर यह देखने का प्रयत्न कर रहे थे कि राजकुमार शक्ति देव इस समय कहां था। तभी उनके कक्ष में लोटन नाथ प्रगट हुए।
हालांकि लोटन नाथ एक आधुनिक नौजवान कि भांति लग रहे थे परन्तु पिनाक की तीक्ष्ण नजरों ने उनकी वास्तविकता को तुरंत पहचान लिया और अपने स्थान से उठकर उनके चरणों में प्रणाम किया।
"तुम्हारी जय हो वत्स।"
पिनाक ने लोटन नाथ को अपने आसन पर बैठाया और स्वयं नीचे उनके चरणों के समीप बैठ गए और आग्रहपूर्वक उनसे पूछा, "क्या आज्ञा है प्रभु?"
पिनाक जानते थे कि लोटन नाथ जैसे महात्मा का आगमन निरुद्देश्य नहीं हो सकता, इसीलिए उन्होंने उनके सामने यह प्रश्न प्रस्तुत किया।
"आज्ञा नहीं, महादेव का संदेश लेकर तुम्हारे समक्ष उपस्थित हुआ हूं।"
"कुछ समय उपरांत महाभैरवी मंगला और भैरवानंद का आगमन होने वाला है, उनकी उपस्थिति में तुम्हे महादेव के संदेश से अवगत करवाऊंगा।"
जैसा लोटन नाथ ने कहा था, दोनों महान विभूतियां उसी अनुसार कुछ ही समय में वहां उपस्थित हो गई।
लोटन नाथ ने तीनों को महादेव के संदेश का वर्णन किया।
उन्होंने कहा, "राजकुमार शक्ति देव इस समय शैतान के संरक्षण में उसके महल में उपस्थित है।"
इसके उपरांत उन्होंने शैतान तक पहुंचने के मार्ग व इसमें मौजूद बाधाओं तथा खतरों के बारे में बताया।
उन्होंने यह भी बताया कि देवताओं की शैतान से हुई संधि के अनुसार वे केवल पिशाचों की घाटी तक अपने योगबल से पहुंच सकते है तथा शक्ति देव तक पहुंचने के लिए आगे का रास्ता उन्हें मानवीय प्रयासों द्वारा तय करना होगा।
उन तीनों के समक्ष उन्होंने शैतान की युद्धनीति का भी वर्णन किया और यह भी बताया कि यह युद्ध पिनाक के नेतृत्व में लड़ा जाएगा।
हालांकि पिनाक आश्रम में अपनी स्थायी उपस्थिति के कारण ब्लैक हॉक संस्था से त्याग पत्र दे चुके थे, परंतु वह इस संस्था की क्षमताओं को भली-भांति जानते थे इसीलिए उन्होंने इस संस्था को भी इस मामले में शामिल करने का आग्रह किया।
उन तीनों की स्वीकृति प्राप्त होने के बाद पिनाक ने अजय गुप्ता से संपर्क कर उसे सम्पूर्ण परिस्थितियों से अवगत करवाया।
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नई दिल्ली स्थित ब्लैक हॉक संस्था के एक विशेष कक्ष में इस समय इस संस्था के प्रमुख अजय गुप्ता, पिनाक, लोटन नाथ, महाभैरवी मंगला, तांत्रिक भैरवानंद, श्रीपत (जिसने शैतान के पुजारी सैरात से मुकाबला किया था), तांत्रिक जटा नंद (जिसने सैरात के साथ युद्ध में श्रीपत का साथ दिया था, उसे श्रीपत के आग्रह पर बुलाया गया था) व देवदत्त शास्त्री, ब्लैक हॉक संगठन के आयुधों की निर्माण शाखा के प्रमुख उपस्थित थे।
इसी कक्ष में बैठकर युद्ध की समस्त रणनीति तय की गई।
इसी रणनीति के तहत पिशाचों की घाटी में इस समय अजय गुप्ता व देवदत्त शास्त्री के अतिरिक्त सभी व्यक्ति उपस्थित थे जिन्होने ब्लैक हॉक संस्था के मुख्यालय में हुई बैठक में भाग लिया थाउन्होंने इस अभियान के लिए सेना की कोई सहायता नहीं ली। पिशाचों की घाटी से आगे तिब्बत का क्षेत्र था, जिस पर चीन का आधिपत्य था।
वैसे तो शैतान के कहे अनुसार वह अत्यंत दुर्गम क्षेत्र था और वहां चीनी सेनाओं की उपस्थिति संभव नहीं थी, फिर भी उन्होंने इस अंदेशे के तहत अपना रूप बदल कर तिब्बतन लामाओं का वेश धारण कर लिया था, जिससे अगर वहां चीनी सेना की कोई टुकड़ी हो तो उनकी उपस्थिति को न्यायसंगत ठहराया जा सके।
वैसे भी उस टीम में जटा नंद और श्रीपत को छोड़कर ऐसे महान व्यक्ति थे, जिनको न तो किसी हथियार की जरूरत थी और न ही चीन या किसी अन्य देश की सेना से कोई डर हो सकता था, लेकिन व्यर्थ की उलझनों से बचने के लिये उन्होंने अपना वेश तिब्बतन लमाओं का बना लिया था।
छह: व्यक्तियों की यह टीम तिब्बत में इस्तेमाल होने वाले घोड़ों पर सवार होकर पिशाचों की घाटी से निकलकर शैतान के क्षेत्र में प्रवेश कर गई।
लोटन नाथ ने अपने योगबल से श्रीपत और जटा नंद को ऐसी शक्तियां उपलब्ध करवा दी जिनका वे दोनों किसी भी संकट के समय उपयोग कर सकते थे।
चलते-चलते दो दिन बीत चुके थे किन्तु कोई उल्लेखनीय घटनाक्रम घटित नहीं हुआ।
वे दिन में यात्रा करते थे व रात्रि को विश्राम करते थे। सोने के व्यवस्था इस प्रकार थी- जटा नंद और श्रीपत को बीच में सुलाया जाता था तथा वे चारों उन दोनों के इर्द-गिर्द सोते थे।
विश्राम करते समय एक सुरक्षा घेरा उन्हें घेरे रहता था जिससे कोई अपार्थिव सत्ता उस घेरे को पार कर उनको हानि नहीं पहुंचा सकती थी। इसीलिए सभी बेखौफ होकर सोते थे।
उस रात्रि को भी वे ऐसे ही सोए हुए थे। अंधेरी रात में छोटे-छोटे काले रंग के कुछ जीव पहाड़ी चट्टानों से नीचे की ओर फिसले।
इन जीवों का रूप अत्यंत घिनौना था, उनके छोटे छोटे पांव भी थे लेकिन वे पैरों के सहारे नहीं बल्कि फिसल कर आगे बढ़ते थे।
उन्होंने आगे बढकर निद्रा में मग्न पिनाक और उसके दल को चारों ओर से घेर लिया तथा उनको सूंघने लगे।
न जाने उन्होंने क्या सुगंध अनुभव की, वे मस्त होकर उछल-कूद करने लगे जैसे नाच रहे हो, फिर एकाएक कुछ सजग होकर चट्टानों की तरफ संकेत करने लगे।
उस संकेत को प्राप्त करते ही, प्रत्येक दिशा से लाखों-करोड़ों वैसे ही घिनौने जीव प्रगट होने लगे। कोई चट्टान से फिसल रहा था, कोई किसी कंदरा से निकल रहा था तथा कोई किसी छेद से नुमाया हो रहा था।
सभी जीव उन सोते हुए मनुष्यों पर आक्रमण करना चाहते थे इसीलिए उनमें आगे बढ़ने की होड़ लग गई, लेकिन उस बढ़त में भी इतना अनुशासन था कि जरा सी भी आहट पैदा नहीं हो रही थी।
उन जीवों ने अपनी-अपनी जिव्हा मुंह से बाहर निकाल रखी थी, जोकि उनके छोटे शरीर के अनुपात में बहुत ज्यादा लंबी थी।
उनके अगाऊ दस्ते ने जो सबसे पहले वहां पहुंचा था, उन छ: मनुष्यों को अपनी जीभ से उनके वस्त्रों के उपर से ही चाटना शुरू कर दिया।
उनके मुख से कोई मादक पदार्थ विसर्जित हो रहा था, जिसके कारण पिनाक व उसके दल के सदस्य मदहोश हो गए तथा उनको पता भी नहीं चला कि उनके साथ क्या हो रहा था।
उसके उपरांत तो वे करोड़ों जीव उनके उपर छा गए तथा उन्हें चाटने लगे।
कुछ ही क्षणों के बाद उनके वस्त्र चीर-चीर हो चुके थे।
वस्त्रों के बाद उनके शरीर की बारी थी, उन जीवों के चाटने से उन्हें कोई दर्द नहीं हो रहा था, बल्कि वे तो सुंदर स्वप्नों में खो गए थे।
पिनाक भी स्वप्नों की दुनिया में खोया हुआ था, स्वप्न में वह महसूस कर रहा था कि आंनद का दरिया उसके चारों तरफ बह रहा है तथा वह उसमे डुबकी लगा रहा है, तभी उसे उसके गुरु अवधेशानंद समीप खड़े दिखाई देते है।
वे जोर-जोर से उसे झिंझोड़ कर जैसे जागृत करने का प्रयास कर रहे थे।
पिनाक को लगा जैसे वह कह रहे हो, "जागो बेटे जागो, जो आनंद तुम महसूस कर रहे हो वह मिथ्या है, तुम्हारे साथियों की जान खतरे में है, उन्हें केवल तुम्हीं बचा सकते हो।
।गुरु के शब्दों ने पिनाक की चेतना जागृत करदी। उनकी आंखे खुल गई और वे मदहोशी की अवस्था से बाहर आ गए।
जब वे होश में आए तब उन्होने महसूस किया कि उनके शरीर को लाखों जीव चाट रहे थे।
उन्होंने हाथ उठाकर उन्हें भगाना चाहा तो वे हाथों को हिला भी नहीं पाए जैसे उन्होंने हिलने से इंकार कर दिया हो।
तभी पिनाक को अपने साथियों का ध्यान आया, वे उनकी स्थिति के बारे में सोचकर क्रोधित हो उठे और एक जोर की हुंकार भरी।
उनके हुंकारने मात्र से वे समस्त जीव उड़कर दूर जा गिरे। पिनाक की हुंकार ने उनके साथियों को भी सपनों की दुनिया से बाहर निकाल दिया और वे सजग हो गए।
एक बार तो वे जीव उनके जिस्म से हट कर दूर जा गिरे, लेकिन तुरंत ही दोबारा आक्रमण करने के लिए लौटने लगे।
पिनाक ने सम्पूर्ण परिस्थिति को तुरंत भाप कर अपने दोनों हाथों को आगे की तरफ बढ़ा दिया।
उनके हाथों से लाखों के संख्या में छिपकली जैसे जीव निकलने लगे और इन जीवों ने पहले वाले समस्त जीवों का उस तरह भक्षण कर लिया जिस तरह दावनाल लकड़ी का भक्षण करता है।
इस विपत्ति से निबटने के बाद पिनाक ने अपने साथियों की ओर ध्यान दिया। सभी घायलावस्था में थे, लेकिन जटा नंद और श्रीपत की स्थिति चिंताजनक थी।
पिनाक ने फिर अपने हाथ आगे की ओर बढ़ा दिए, उनके हाथों से इस बार सफेद रंग की, चंद्रमा की किरणों के समान शीतल, किरण निकलकर उनके साथियों के उपर पड़ने लगी।
उन किरणों के प्रभाव से वे पहले से भी ज्यादा स्वस्थ हो गए और अपने अंदर एक सकारात्मक ऊर्जा का प्रवाह महसूस करने लगे।
इस घटना या दुर्घटना ने उस दल को अपनी शयन संबंधी नीति पर पुनर्विचार करने पर मजबूर कर दिया।
सभी से विचार-विमर्श करने के बाद लोटन नाथ ने अपने गले में पड़ी हुई रुद्राक्ष की माला से एक मनका तोड़कर पृथ्वी पर फेंक दिया।
पृथ्वी पर गिरते ही उस मनके के दो टुकड़े हो गए और उसमे से एक विशाल मानव आकृति उत्पन्न हुई, जिसका चेहरा अति सुंदर था तथा सभी अंग सुडौल थे।
उत्पन्न होते ही उस मानव ने भूमि पर गिरकर लोटन नाथ को प्रणाम कर कहा, "क्या आज्ञा है देव?"
"सोम, मैं और मेरे साथी शैतान के महल में उसके साथियों से युद्ध करने जा रहे है, तुम्हें इस दौरान हर-पल मेरे और मेरे साथियों की सुरक्षा में नियुक्त रहना होगा।"
"जो आज्ञा देव", सोम यह कहकर अन्तर्ध्यान हो गया।
इस घटना से अगले दिन उन्होंने तीन घंटे का ही सफर तय किया था कि एक यति ने उनका मार्ग रोक लिया।
वह कम से कम ३० फीट लंबा था तथा उसके विशालकाय हाथों की हथेलियां बड़े-बड़े बेलचों के समान दिखाई देती थी।
"मानव, कौन हों तुम, और इस अगम्य क्षेत्र में क्यों विचरण कर रहे हो?"
"यति सवाल करने का अधिकार तुम्हें किसने दिया?" पिनाक ने पूछा।
"अधिकार तो शक्ति द्वारा उत्पन्न होते है, मानव।"
"तुम्हें हमारी शक्ति के बारे में क्या मालूम?"
"तुम तुच्छ मानव, अगर कुछ शक्ति रखते भी हो तो वह मेरे सामने व्यर्थ है।"
"अब अगर तुमने इस रास्ते पर आगे बढ़ने का प्रयत्न किया तो तुम सबको मृत्यु की गहरी नींद में सोना पड़ेगा।"
मंगला के दाएं हाथ की तर्जनी उंगली से एक हरी किरण निकली तथा विशाखा गिरी और धनराज के बेहोश जिस्मों पर पड़ने लगी। उन किरणों के प्रभाव से दोनों होश में आकर बैठ गए।
मंगला की आंखे क्रोध से जैसे अंगारे उगल रही थी। उसने जोर से एक पदाघात धनराज के वक्ष पर किया। उस एकमात्र प्रहार से ही धनराज की आत्मा उसके निकृष्ट शरीर से निकलकर नरक के लिए कूंच कर गयी।
विशाखा गिरी धनराज की मौत को देखकर अत्यंत भयभीत हो गया।
वैसे तो वह अनेक सिद्धियों का स्वामी था और एक अदृश्य सुरक्षा कवच २४ घंटे उसके शरीर की रक्षा करता था। उस सुरक्षा कवच को भेद कर कोई भी शक्ति उसको इस तरह उठा कर ले जा सकती थी, विशाखा गिरी यह स्वप्न में भी नहीं सोच सकता था। इसीलिए शक्तिशाली होते हुए भी वह भयभीत हो उठा था।
धनराज को मृत्यु के घाट उतारने के बाद मंगला ने विशाखा गिरी को संबोधित करके कहा, "तुम्हारी मौत इतनी आसान नहीं होगी दुष्ट, तुम्हें ऐसी सजा प्राप्त होगी जिससे तुम जीवनपर्यंत नरक की अग्नि में जलोगे।"
"तुम स्वयं को बहुत शक्तिशाली समझते हो, अगर साहस हो तो उठकर मुकाबला करो।"
विशाखा गिरी भयभीत तो बहुत था, फिर भी उसने साहस जुटाकर मुकाबले का प्रयत्न किया, लेकिन उसकी समस्त शक्तियां मंगला के सामने कुंद हो चुकी थी।
अब महाभैरवी मंगला ने चिता से अंगारों की एक मुट्ठी भरकर उठाई तथा उनको विशाखा गिरी के ऊपर फेंक दिया।
अंगारों के पड़ते ही विशाखा गिरी के शरीर पर अनेकों जख्म हो गए। कुछ जख्म तो इतने गहरे थे कि उनमें से हड्डियां भी स्पष्ट दिखाई दे रही थी।
वह पीड़ा से आर्तनाद करते हुए अपने गुरु अशोक गिरी को पुकारने लगा।
अशोक गिरी अपने शिष्य विशाखा गिरी से बहुत स्नेह करते थे लेकिन उसके दुष्कर्मों को देखकर उन्होंने उससे दूरी बना ली थी।
फिर भी वह अपने शिष्य की पीड़ा भरी पुकार को नजरंदाज नहीं कर सके तथा पुकारते ही उसके सामने उपस्थित हो गए।
उन्होंने महाभैरवी मंगला को प्रणाम किया तथा अपने शिष्य को क्षमा करने का आग्रह करते हुए कहा, "माते, आप तो साक्षात जगदम्बा है, मैं जानता हूं कि इसके अपराध क्षमा के योग्य नहीं है, लेकिन एक माता अपने पुत्र के सहस्त्रों अपराध क्षमा करती है, इसको भी आप क्षमा कर अनुग्रहित करे।
महाभैरवी मंगला अशोक गिरी के शिष्य के प्रति अनुग्रह से द्रवित हो गई तथा कहा, "तुम्हारे अपने शिष्य के प्रति स्नेह को देखकर मैं प्रसन्न हुई अशोक गिरी, इसीलिए इसके अपराधों को क्षमा कर इसे स्वास्थ्य लाभ प्रदान करती हूं, वरना यह जीवन भर नरक की अग्नि में जलता रहता।"इसको मानव कल्याण के मार्ग पर चलने का एक अवसर और देती हूं इसीलिए इसकी सिद्धियां जो मैंने इससे छीन ली थी, उन्हें लौटा रही हूं।"
"लेकिन इसको कानून के समक्ष अपने अपराधों को स्वीकार करना होगा तथा जो भी सजा इसे प्राप्त हो उसे भोगना होगा"
फिर मंगला ने अशोक गिरी को एकांत में लेे जाकर कहा, "तुमने इसे बचा तो लिया लेकिन भविष्य में मानवता विरोधी कृत्य में यह एक दुष्ट का साथ देगा तब अवश्य ही मृत्यु को प्राप्त होगा।"
यह भविष्यवाणी सुनकर अशोक गिरी को दुख तो बहुत हुआ लेकिन वह कर भी क्या सकता था सिवाय दुखी होने के।
उसने भावी को अटल समझ इसपर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी और महाभैरवी मंगला को प्रणाम कर वहां से प्रस्थान कर गया।
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हिमालय पर्वत की किसी गुप्त कंदरा में एक अत्यंत वृद्ध और कृशकाय तपस्वी सैकड़ों वर्षो से केवल वायु का सेवन करते हुए तपस्या में लीन थे।
उनके शरीर के समस्त बाल सफेद हो चुके थे तथा सिर पर जटाओं का जंगल उगा हुआ था।
वे थे महान तपस्वी लोटन नाथ। निरंतर आत्म साधना में लीन।
सैकड़ों साल से वे महादेव की प्रेरणा से हिमालय की गुप्त कंदरा में तपस्या कर रहे थे और मोक्ष प्राप्ति का इंतजार कर रहे थे।
अनायास ही उनके हृदय में स्थापित महादेव की छवि गायब हो गई और उन्होंने विकल होकर अपनी आंखें खोल दी।
लोटन नाथ ने आंखे खोलकर देखा तो साक्षात महादेव उनके सम्मुख खड़े मुस्करा रहे थे।
लोटन नाथ भावावेशित होकर महादेव के चरणों में गिर पड़े और भांति-भांति के शब्दों द्वारा उनका गुणगान करने लगे।
उन्होंने कहा, "आपके दर्शन कर मैं कृत-कृत हुआ भगवन्, मैं जानता हूं कि आप मुझे अपने धाम कैलाश पर्वत पर ले जाने के लिए आये हो।"
"वह तो अवश्य लेकर जाऊंगा, लेकिन समय आने पर।"
"अब तुम्हें एक कार्य करना होगा।"
"शैतान अब अपने पैर पसार रहा है, वह अपने दस प्रमुख पुजारियों और अन्य मानवता विरोधी शक्तियों को इकठ्ठा कर अच्छाई को समाप्त कर बुराई का साम्राज्य स्थापित करना चाहता है।"
"लेकिन भगवन् शैतान का तो कोई अस्तित्व ही नहीं था, मानव के अंदर छिपी हुई बुराइयों को ही शैतान का प्रतीक माना जाता था।"
"किंतु अब उसका अस्तित्व है, इस युग में मानव के अंदर इतनी ज्यादा बुराइयों ने घर कर लिया कि उसका अस्तित्व साकार हो उठा।"
"अब मानवता का हित करने वाली शक्तियों को एकजुट होकर उसका मुकाबला करना होगा।"
"देवताओं ने उसको समाप्त करना चाहा, तो उसने कहा वह स्वयं युद्ध में भाग नहीं लेगा तथा इसके बदले में देवता भी किसी युद्ध में सीधे भाग नहीं ले सकेंगे।"
"शैतान ने भगवती दक्षिण काली का तेज धारण करने वाले राजकुमार शक्ति देव को अपना प्रमुख मोहरा बनाया है।"
"तुम्हे यह युद्ध मेरे और भगवती के संयुक्त तेज को धारण करने वाले पिनाक के नेतृत्व में लड़ना होगा।"
इसके अतरिक्त महादेव ने लोटन नाथ को कुछ अन्य जानकारियां दी और वहां से प्रस्थान कर गए।
महादेव के प्रस्थान करने के बाद लोटन नाथ अपने स्थान पर खड़े हो गए और जोर से कुंभक क्रिया की।
देखते-देखते उनके शरीर की कांति बढ़ने लगी, शरीर पर मौजूद समस्त बाल काले हो गए, सभी झुर्रियां समाप्त हो गई तथा चेहरे पर यौवन का तेज चमकने लगा।
कुछ ही क्षणों उपरांत उस स्थान पर उन वृद्ध तपस्वी की जगह एक युवा खड़ा था, जिसके समस्त अंग दृढ़ थे और चेहरे पर अभूतपूर्व कांति थी।
उसके सिर की उलझी हुए जटाओं के स्थान पर शानदार तरीके से कंघी किए हुए बाल थे, चेहरा दाढ़ी-मूंछ के झाड़-झंझाड़ से पूर्णतया मुक्त था, शरीर के अनावश्यक बाल बिल्कुल साफ थे तथा शरीर पर आधुनिक युग के वस्त्र थे।
उन्होने अपने सामने की ओर देखा जैसे दर्पण में मुख देख रहे हो तथा संतुष्टि से अपना सिर हिलाया।
शैतान इस समय पिशाचों की घाटी में राजकुमार शक्ति देव के समक्ष उपस्थित था। उसने राजकुमार को अपने बारे में बताकर, उससे कहा,
"पिनाक ने तुम्हारे ऊपर आक्रमण करने की पूरी तैयारी कर ली है।"
"लेकिन पिनाक का तो मैं वध कर चुका हूं।"
"वह मरा नहीं, उसको भैरवानंद ने बचा लिया।"
"किंतु मुझे उसका क्या डर, वह आक्रमण करेगा तो अब की बार उसे मैं अवश्य ही मौत के घाट उतार दूंगा।"
"अब वह पहले वाला पिनाक नहीं रहा, महाकाल और दक्षिण काली का संयुक्त वरदान प्राप्त कर वह अजेय हो चुका है।"
"लेकिन न ही वह मेरा वध कर सकता है और न ही मुझे पराजित कर सकता है।"
"बात को समझो राजकुमार, उसको प्राप्त वरदान के अनुसार वह तुम्हारी शक्तियों को सुप्तावस्था में पहुंचा सकता है। इससे तुम एक साधारण मानव बन कर रह जाओगे।"
"फिर क्या किया जाए?", राजकुमार ने थोड़ा चिंतित होकर पूछा।
"मैं तुम्हे बताता हूं, यह पिशाचों की घाटी मेरे ही इलाके कि सीमांत चौकी है तथा इस घाटी के बाद मेरा राज्य शुरू हो जाता है।"
"मैंने ही पिशाचों को अपने इलाके की सीमा की रक्षा के लिये यहां पर स्थापित कर रखा था, कोई भी दुश्मन बिना इनसे उलझे वहां घुसपैठ नहीं कर सकता था।"
"मैं तुम्हे अपने महल में लेजाने आया हूं।"
"वहां तक जाने का मार्ग बहुत ही भयानक और दुर्गम है। मार्ग में अनेकों भौगोलिक और मायावी खतरे मौजूद है, जिनको पारकर वहां तक पहुंचना अत्यंत ही दुष्कर कार्य है।"
"आकाश मार्ग को भी पूरी तरह सुरक्षित किया गया है जिससे आसमान से भी वहां घुसपैठ असम्भव है।"
"इसके अतिरिक्त मेरी देवताओं के साथ एक संधि हुई है जिसके अनुसार कोई भी प्राणी इस इलाके में अपनी स्वभाविक गति का ही उपयोग कर सकता है।"
सम्पूर्ण बातों का निष्कर्ष यह निकला कि राजकुमार शैतान के महल में पहुंच गया।
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विशाखा गिरी ने कानून के समक्ष आत्मसमर्पण कर अपने अपराधों को स्वीकार कर लिया था और इस समय वह जेल में बंद था।
रात का समय था, विशाखा गिरी को नींद नहीं आ रही थी। दरअसल वह मुलायम बिस्तरों पर सोने का आदि हो चुका था, इसीलिए जेल के फर्श पर उसे नींद कहां आनी थी।
वह पड़ा-पड़ा अपनी विगत जिंदगी के बारे में सोच रहा था कि शैतान के पुजारी सैरात का आगमन हुआ। वह उसके पास शैतान का संदेश लेकर आया था।
उसने विशाखा गिरी को जेल से भागकर शैतान की पनाह में जाने का प्रस्ताव रखा।
लेकिन विशाखा गिरी महाभैरवी मंगला से बहुत भयभीत था, उसने शैतान के प्रस्ताव से इंकार करके कहा,
"क्या तुम समझते हो कि ये जेल की दीवारें मुझे कैद करके रख सकती है?"
"मैं कभी भी आजाद पंछी कि भांति यहां से उड़ सकता हूं, लेकिन मंगला का क्या करूं, वह मुझे पाताल से भी खोज निकालेगी तथा एकबार उसके हाथों में पड़ने का अर्थ है, नरक की आग में जलना।"
लेकिन शैतान ने सैरात को इसलिए तो विशाखा गिरी के पास नहीं भेजा था कि वह उसका इंकार सुनकर वापिस चला आए।
उसने भांति-भांति के तर्कों द्वारा विशाखा गिरी को कायल कर दिया, जिससे वह वहां से भागने पर सहमत हो गया।
कुछ ही समय उपरांत वे दोनों शैतान के महल में उपस्थित थे। स्वयं शैतान ने राजकुमार शक्ति देव सहित उसका स्वागत किया और अपनी लच्छेदार बातों द्वारा उसका भय पूरी तरह से दूर कर दिया।
शैतान राजकुमार तथा विशाखा गिरी जैसे दुष्ट मनुष्यों को इसलिए अपने महल में इकट्ठा नहीं कर रहा था कि वह उनको सुरक्षित करना चाहता था, वरन् वह तो यह कार्य इस हेतु करना चाहता था कि किसी तरह से पिनाक को समाप्त किया जा सके।
जब उसे पता चला कि पिनाक ने भगवान महाकाल और भगवती दक्षिण काली के संयुक्त वरदान को प्राप्त कर लिया तो वह समझ गया कि उस मानव हित अभिलाषी व्यक्ति का किसी न किसी प्रकार से विनाश करना ही होगा, वरना वह उस जैसे प्राणियों की नाक में दम करता रहेगा।
इससे पहले उसे राजकुमार के बारे में भी मालूम हो चुका था, लेकिन वह यह सोचकर प्रसन्न था कि दैवीय शक्ति एक दुष्ट व्यक्ति को प्राप्त हुई है, जिससे मानवता का अहित ही होगा।
पिनाक का तोड़ उसे राजकुमार शक्ति देव में नजर आया।
इसीलिए उसने राजकुमार को अपने महल में पहुंचा दिया ताकि पिनाक उसे खोजता हुआ वहां पहुंचे तथा राजकुमार शक्ति देव से उसका टकराव करवाया जा सके।
इस टकराव के लिए उसने अपनी रणनीति तय कर ली थी। राजकुमार के चारों तरफ उसने एक सुरक्षा व्यूह बना दिया था जिसमें उसके दसो पुजारी व विशाखा गिरी जैसे सैकड़ों समाज के दुश्मन थे।
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पिनाक आश्रम के अपने कक्ष में उपस्थित थे।
वे ध्यान लगाकर यह देखने का प्रयत्न कर रहे थे कि राजकुमार शक्ति देव इस समय कहां था। तभी उनके कक्ष में लोटन नाथ प्रगट हुए।
हालांकि लोटन नाथ एक आधुनिक नौजवान कि भांति लग रहे थे परन्तु पिनाक की तीक्ष्ण नजरों ने उनकी वास्तविकता को तुरंत पहचान लिया और अपने स्थान से उठकर उनके चरणों में प्रणाम किया।
"तुम्हारी जय हो वत्स।"
पिनाक ने लोटन नाथ को अपने आसन पर बैठाया और स्वयं नीचे उनके चरणों के समीप बैठ गए और आग्रहपूर्वक उनसे पूछा, "क्या आज्ञा है प्रभु?"
पिनाक जानते थे कि लोटन नाथ जैसे महात्मा का आगमन निरुद्देश्य नहीं हो सकता, इसीलिए उन्होंने उनके सामने यह प्रश्न प्रस्तुत किया।
"आज्ञा नहीं, महादेव का संदेश लेकर तुम्हारे समक्ष उपस्थित हुआ हूं।"
"कुछ समय उपरांत महाभैरवी मंगला और भैरवानंद का आगमन होने वाला है, उनकी उपस्थिति में तुम्हे महादेव के संदेश से अवगत करवाऊंगा।"
जैसा लोटन नाथ ने कहा था, दोनों महान विभूतियां उसी अनुसार कुछ ही समय में वहां उपस्थित हो गई।
लोटन नाथ ने तीनों को महादेव के संदेश का वर्णन किया।
उन्होंने कहा, "राजकुमार शक्ति देव इस समय शैतान के संरक्षण में उसके महल में उपस्थित है।"
इसके उपरांत उन्होंने शैतान तक पहुंचने के मार्ग व इसमें मौजूद बाधाओं तथा खतरों के बारे में बताया।
उन्होंने यह भी बताया कि देवताओं की शैतान से हुई संधि के अनुसार वे केवल पिशाचों की घाटी तक अपने योगबल से पहुंच सकते है तथा शक्ति देव तक पहुंचने के लिए आगे का रास्ता उन्हें मानवीय प्रयासों द्वारा तय करना होगा।
उन तीनों के समक्ष उन्होंने शैतान की युद्धनीति का भी वर्णन किया और यह भी बताया कि यह युद्ध पिनाक के नेतृत्व में लड़ा जाएगा।
हालांकि पिनाक आश्रम में अपनी स्थायी उपस्थिति के कारण ब्लैक हॉक संस्था से त्याग पत्र दे चुके थे, परंतु वह इस संस्था की क्षमताओं को भली-भांति जानते थे इसीलिए उन्होंने इस संस्था को भी इस मामले में शामिल करने का आग्रह किया।
उन तीनों की स्वीकृति प्राप्त होने के बाद पिनाक ने अजय गुप्ता से संपर्क कर उसे सम्पूर्ण परिस्थितियों से अवगत करवाया।
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नई दिल्ली स्थित ब्लैक हॉक संस्था के एक विशेष कक्ष में इस समय इस संस्था के प्रमुख अजय गुप्ता, पिनाक, लोटन नाथ, महाभैरवी मंगला, तांत्रिक भैरवानंद, श्रीपत (जिसने शैतान के पुजारी सैरात से मुकाबला किया था), तांत्रिक जटा नंद (जिसने सैरात के साथ युद्ध में श्रीपत का साथ दिया था, उसे श्रीपत के आग्रह पर बुलाया गया था) व देवदत्त शास्त्री, ब्लैक हॉक संगठन के आयुधों की निर्माण शाखा के प्रमुख उपस्थित थे।
इसी कक्ष में बैठकर युद्ध की समस्त रणनीति तय की गई।
इसी रणनीति के तहत पिशाचों की घाटी में इस समय अजय गुप्ता व देवदत्त शास्त्री के अतिरिक्त सभी व्यक्ति उपस्थित थे जिन्होने ब्लैक हॉक संस्था के मुख्यालय में हुई बैठक में भाग लिया थाउन्होंने इस अभियान के लिए सेना की कोई सहायता नहीं ली। पिशाचों की घाटी से आगे तिब्बत का क्षेत्र था, जिस पर चीन का आधिपत्य था।
वैसे तो शैतान के कहे अनुसार वह अत्यंत दुर्गम क्षेत्र था और वहां चीनी सेनाओं की उपस्थिति संभव नहीं थी, फिर भी उन्होंने इस अंदेशे के तहत अपना रूप बदल कर तिब्बतन लामाओं का वेश धारण कर लिया था, जिससे अगर वहां चीनी सेना की कोई टुकड़ी हो तो उनकी उपस्थिति को न्यायसंगत ठहराया जा सके।
वैसे भी उस टीम में जटा नंद और श्रीपत को छोड़कर ऐसे महान व्यक्ति थे, जिनको न तो किसी हथियार की जरूरत थी और न ही चीन या किसी अन्य देश की सेना से कोई डर हो सकता था, लेकिन व्यर्थ की उलझनों से बचने के लिये उन्होंने अपना वेश तिब्बतन लमाओं का बना लिया था।
छह: व्यक्तियों की यह टीम तिब्बत में इस्तेमाल होने वाले घोड़ों पर सवार होकर पिशाचों की घाटी से निकलकर शैतान के क्षेत्र में प्रवेश कर गई।
लोटन नाथ ने अपने योगबल से श्रीपत और जटा नंद को ऐसी शक्तियां उपलब्ध करवा दी जिनका वे दोनों किसी भी संकट के समय उपयोग कर सकते थे।
चलते-चलते दो दिन बीत चुके थे किन्तु कोई उल्लेखनीय घटनाक्रम घटित नहीं हुआ।
वे दिन में यात्रा करते थे व रात्रि को विश्राम करते थे। सोने के व्यवस्था इस प्रकार थी- जटा नंद और श्रीपत को बीच में सुलाया जाता था तथा वे चारों उन दोनों के इर्द-गिर्द सोते थे।
विश्राम करते समय एक सुरक्षा घेरा उन्हें घेरे रहता था जिससे कोई अपार्थिव सत्ता उस घेरे को पार कर उनको हानि नहीं पहुंचा सकती थी। इसीलिए सभी बेखौफ होकर सोते थे।
उस रात्रि को भी वे ऐसे ही सोए हुए थे। अंधेरी रात में छोटे-छोटे काले रंग के कुछ जीव पहाड़ी चट्टानों से नीचे की ओर फिसले।
इन जीवों का रूप अत्यंत घिनौना था, उनके छोटे छोटे पांव भी थे लेकिन वे पैरों के सहारे नहीं बल्कि फिसल कर आगे बढ़ते थे।
उन्होंने आगे बढकर निद्रा में मग्न पिनाक और उसके दल को चारों ओर से घेर लिया तथा उनको सूंघने लगे।
न जाने उन्होंने क्या सुगंध अनुभव की, वे मस्त होकर उछल-कूद करने लगे जैसे नाच रहे हो, फिर एकाएक कुछ सजग होकर चट्टानों की तरफ संकेत करने लगे।
उस संकेत को प्राप्त करते ही, प्रत्येक दिशा से लाखों-करोड़ों वैसे ही घिनौने जीव प्रगट होने लगे। कोई चट्टान से फिसल रहा था, कोई किसी कंदरा से निकल रहा था तथा कोई किसी छेद से नुमाया हो रहा था।
सभी जीव उन सोते हुए मनुष्यों पर आक्रमण करना चाहते थे इसीलिए उनमें आगे बढ़ने की होड़ लग गई, लेकिन उस बढ़त में भी इतना अनुशासन था कि जरा सी भी आहट पैदा नहीं हो रही थी।
उन जीवों ने अपनी-अपनी जिव्हा मुंह से बाहर निकाल रखी थी, जोकि उनके छोटे शरीर के अनुपात में बहुत ज्यादा लंबी थी।
उनके अगाऊ दस्ते ने जो सबसे पहले वहां पहुंचा था, उन छ: मनुष्यों को अपनी जीभ से उनके वस्त्रों के उपर से ही चाटना शुरू कर दिया।
उनके मुख से कोई मादक पदार्थ विसर्जित हो रहा था, जिसके कारण पिनाक व उसके दल के सदस्य मदहोश हो गए तथा उनको पता भी नहीं चला कि उनके साथ क्या हो रहा था।
उसके उपरांत तो वे करोड़ों जीव उनके उपर छा गए तथा उन्हें चाटने लगे।
कुछ ही क्षणों के बाद उनके वस्त्र चीर-चीर हो चुके थे।
वस्त्रों के बाद उनके शरीर की बारी थी, उन जीवों के चाटने से उन्हें कोई दर्द नहीं हो रहा था, बल्कि वे तो सुंदर स्वप्नों में खो गए थे।
पिनाक भी स्वप्नों की दुनिया में खोया हुआ था, स्वप्न में वह महसूस कर रहा था कि आंनद का दरिया उसके चारों तरफ बह रहा है तथा वह उसमे डुबकी लगा रहा है, तभी उसे उसके गुरु अवधेशानंद समीप खड़े दिखाई देते है।
वे जोर-जोर से उसे झिंझोड़ कर जैसे जागृत करने का प्रयास कर रहे थे।
पिनाक को लगा जैसे वह कह रहे हो, "जागो बेटे जागो, जो आनंद तुम महसूस कर रहे हो वह मिथ्या है, तुम्हारे साथियों की जान खतरे में है, उन्हें केवल तुम्हीं बचा सकते हो।
।गुरु के शब्दों ने पिनाक की चेतना जागृत करदी। उनकी आंखे खुल गई और वे मदहोशी की अवस्था से बाहर आ गए।
जब वे होश में आए तब उन्होने महसूस किया कि उनके शरीर को लाखों जीव चाट रहे थे।
उन्होंने हाथ उठाकर उन्हें भगाना चाहा तो वे हाथों को हिला भी नहीं पाए जैसे उन्होंने हिलने से इंकार कर दिया हो।
तभी पिनाक को अपने साथियों का ध्यान आया, वे उनकी स्थिति के बारे में सोचकर क्रोधित हो उठे और एक जोर की हुंकार भरी।
उनके हुंकारने मात्र से वे समस्त जीव उड़कर दूर जा गिरे। पिनाक की हुंकार ने उनके साथियों को भी सपनों की दुनिया से बाहर निकाल दिया और वे सजग हो गए।
एक बार तो वे जीव उनके जिस्म से हट कर दूर जा गिरे, लेकिन तुरंत ही दोबारा आक्रमण करने के लिए लौटने लगे।
पिनाक ने सम्पूर्ण परिस्थिति को तुरंत भाप कर अपने दोनों हाथों को आगे की तरफ बढ़ा दिया।
उनके हाथों से लाखों के संख्या में छिपकली जैसे जीव निकलने लगे और इन जीवों ने पहले वाले समस्त जीवों का उस तरह भक्षण कर लिया जिस तरह दावनाल लकड़ी का भक्षण करता है।
इस विपत्ति से निबटने के बाद पिनाक ने अपने साथियों की ओर ध्यान दिया। सभी घायलावस्था में थे, लेकिन जटा नंद और श्रीपत की स्थिति चिंताजनक थी।
पिनाक ने फिर अपने हाथ आगे की ओर बढ़ा दिए, उनके हाथों से इस बार सफेद रंग की, चंद्रमा की किरणों के समान शीतल, किरण निकलकर उनके साथियों के उपर पड़ने लगी।
उन किरणों के प्रभाव से वे पहले से भी ज्यादा स्वस्थ हो गए और अपने अंदर एक सकारात्मक ऊर्जा का प्रवाह महसूस करने लगे।
इस घटना या दुर्घटना ने उस दल को अपनी शयन संबंधी नीति पर पुनर्विचार करने पर मजबूर कर दिया।
सभी से विचार-विमर्श करने के बाद लोटन नाथ ने अपने गले में पड़ी हुई रुद्राक्ष की माला से एक मनका तोड़कर पृथ्वी पर फेंक दिया।
पृथ्वी पर गिरते ही उस मनके के दो टुकड़े हो गए और उसमे से एक विशाल मानव आकृति उत्पन्न हुई, जिसका चेहरा अति सुंदर था तथा सभी अंग सुडौल थे।
उत्पन्न होते ही उस मानव ने भूमि पर गिरकर लोटन नाथ को प्रणाम कर कहा, "क्या आज्ञा है देव?"
"सोम, मैं और मेरे साथी शैतान के महल में उसके साथियों से युद्ध करने जा रहे है, तुम्हें इस दौरान हर-पल मेरे और मेरे साथियों की सुरक्षा में नियुक्त रहना होगा।"
"जो आज्ञा देव", सोम यह कहकर अन्तर्ध्यान हो गया।
इस घटना से अगले दिन उन्होंने तीन घंटे का ही सफर तय किया था कि एक यति ने उनका मार्ग रोक लिया।
वह कम से कम ३० फीट लंबा था तथा उसके विशालकाय हाथों की हथेलियां बड़े-बड़े बेलचों के समान दिखाई देती थी।
"मानव, कौन हों तुम, और इस अगम्य क्षेत्र में क्यों विचरण कर रहे हो?"
"यति सवाल करने का अधिकार तुम्हें किसने दिया?" पिनाक ने पूछा।
"अधिकार तो शक्ति द्वारा उत्पन्न होते है, मानव।"
"तुम्हें हमारी शक्ति के बारे में क्या मालूम?"
"तुम तुच्छ मानव, अगर कुछ शक्ति रखते भी हो तो वह मेरे सामने व्यर्थ है।"
"अब अगर तुमने इस रास्ते पर आगे बढ़ने का प्रयत्न किया तो तुम सबको मृत्यु की गहरी नींद में सोना पड़ेगा।"