Incest Paap ne Bachayaa written By S_Kumar

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Update-17

बैलगाड़ी सुबह की सुहानी हवा को चीरती हुई अपने लक्ष्य को आगे बढ़ती जा रही थी, उदयराज बैलगाड़ी हांक रहा था, रजनी और काकी पीछे बैठी बातें करती हुई जा रही थी।
कहीं कहीं रास्ते में आते जाते लोग दिख जा रहे थे। गांव से वो अब काफी दूर आ चुके थे, गांव की सरहद काफी पीछे छूट चुकी थी, सुबह की हल्की सुहानी धूप अब थोड़ी गर्म होने लगी थी, लगभग 100 किलोमीटर चलने के बाद अब हल्का हल्का जंगल शुरू हो रहा था, पेड़ों की घनी छाया से सफर काफी सुहाना हो गया था, काकी कुछ देर रजनी से बात करने के बाद रात में जागे होने की वजह से ऊँघने लगी तो रजनी ने उन्हें वही लेटने को बोल दिया, और वो वहीं लेट कर सोने लगी।

बैलगाड़ी के ऊपर गोल छत बनाई हुई थी, दोनों तरफ पर्दे थे, काकी ने बच्ची को अपने पास लिटाया और सो गई, उदयराज हसीन वादियों को निहारता हुआ बैलगाड़ी हाँके जा रहा था, मन ही मन वो अपने इस निर्णय पर खुश भी था कि उसकी बेटी उसके साथ है पर इन हसीन वादियों का मजा वो अपनी बेटी के साथ लेना चाहता था, यही हाल रजनी का था।

उदयराज ने पीछे देखा तो पाया कि रजनी उसे बैलगाड़ी हांकते हुए देख रही थी, नजरें मिली तो दोनों मुस्कुरा पड़े।

तभी रजनी को कुछ सूझा

रजनी- बाबू, लाओ मैं बैलगाड़ी चलाती हूँ, कब से चला रहे हो थक गए होगे।

उदयराज- (आश्चर्य से) बैलगाड़ी चलाएगी मेरी बिटिया?

रजनी- हां क्यों नही।

उदयराज- पर तुमने कभी चलाई नही है न।

रजनी- तो सिखा दो न अपनी बेटी को।

उदयराज - तो आओ न मेरे आगे बैठो। काकी सो गई क्या?

रजनी- हां वो तो सो रही है, और गुड़िया भी उन्ही के पास है।

उदयराज जहाँ बैठा था वहीं पर थोड़ा पीछे खिसक कर अपने आगे थोड़ी जगह बनाता है और दोनों पैर फैला लेता है रजनी एक बार पीछे की तरफ काकी को देखती है और जाके उदयराज की गोदी में अपनी मदमस्त चौड़ी मखमली गुदाज गांड रखकर बैठ जाती है, बैलगाड़ी जंगल में प्रवेश कर चुकी थी, जंगल की घनी छाया अब धूप को खत्म कर चुकी थी।

उदयराज ने अपनी दोनों बाहें रजनी की दोनों बाहों के नीचे से निकालते हुए डोरी और छड़ी को पकड़ लिया और अपना चेहरा रजनी के गर्दन की दायीं तरह और कान के पास रखकर उसके बदन से आती मदमस्त खुश्बू को एक गहरी सांस लेते हुए सूंघा, अपने बाबू की गर्म सांसे अपनी गर्दन और कान के आस पास महसूस कर रजनी गनगना गयी और उसकी आंखें मस्ती में बंद हो गयी और सिसकते हुए फुसफुसाकर बोली- कोई देख लेगा बाबू?

उदयराज (धीरे से)- यहां अब जंगल में कौन देखेगा?

रजनी ने बनावटी अंदाज में कहा- काकी उठ गई तो?

उदयराज- वो तो सो रही है न।

रजनी- हां, पर उठ गई तो? (रजनी ने फिर सिसकते हुए कहा)

उदयराज अब गर्दन के दूसरी तरफ अपनी बेटी के कान के आस पास उसके बदन से भीनी भीनी आती खुसबू को सूंघने लगा, कभी कभी वो अपने गीले होंठों को गर्दन पे रगड़ने लगता, फिर सूंघता, फिर होंठ रगड़ता, रजनी तो इतने से ही बेहाल हुए जा रही थी, कभी धीरे से सिसकती तो कभी aaahhhhhh की आवाज थोड़ा तेज उसके मुह से निकल जाती।

उदयराज- अब तुम जोर से aaaahhhh करोगी तो काकी तो उठ ही जाएंगी न।

रजनी ने अपने मदमस्त आंखें खोल अपने बाबू की आंखों में देखते हुए धीरे से बोला- क्या करूँ बाबू, इसपर मेरा कोई बस नही, इतना प्यार करोगे अपनी बेटी को तो aaaahhhh तो निकल ही जाएगी न।

रजनी- अच्छा! रुको जरा बाबू!

रजनी ने इतना कहते हुए बैलगाड़ी के ऊपर बने हुए गोल छपरी के मुहाने को ढकने के लिए बनाए गए पर्दे को, जो कि मोड़कर ऊपर किया हुआ था उसको नीचे पटलकर ढंक दिया।

अपनी बेटी की इस अदा और तरीके पर खुश होके उदयराज ने एक चुम्बन उसके गाल पे जड़ दिया, रजनी के मुँह से सिसकी निकल गयी वो धीरे से बोली- सिखाओ न बाबू बैलगाड़ी चलाना।

उदयराज ने रजनी को एक हाँथ से डोरी पकड़ने को बोला और दूसरे हाँथ से छड़ी।

उदयराज- अपने बैल तो सीधे साधे हैं बस ये डोरी सीधे पकड़े रहो ये अपने आप चलते रहेंगे और जब दाएं या बाएं मुड़ना हो तो उसी हिसाब से डोरी को खींचो, बस यही है।

रजनी- अच्छा! इतना आसान है, (और रजनी दोनों बैल की डोरी पकड़कर छड़ी हाँथ में लेकर चलाने लगती है।)

उदयराज- हां मेरी बिटिया रानी, इतना ही आसान है, ये कठिन तब होता है जब बैल सीधे साधे न हों (ऐसा कहते हुए अब उदयराज अपनी बाहों को रजनी के कमर पर लपेटते हुए रजनी को कस के पीछे से बाहों में भर लेता है जिससे रजनी उदयराज से बिल्कुल चिपक जाती है)

उदयराज धीरे धीरे रजनी के पेट और उसके आस पास सहलाने लगता है।

रजनी एक बार फिर बैलगाड़ी चलाते हुए अपनी बाबू की आंखों में देखकर मुस्कुराते हुए सिसक गयी।

जंगल में अब वो काफी अंदर आ गए थे और छाया काफी गहरी हो चली थी, अभी तक तो उदयराज को रास्ता पता था इसके आगे का रास्ता उसे बताये अनुसार तय करना था, जंगल में कहीं कहीं और रास्ते भी मिलते जिससे भटकने का डर था पर उदयराज बताये अनुसार सूझबूझ से जा रहा था, उसने सोचा कि आगे चलकर जंगल में अगर कोई दिखेगा तो एक बार रास्ते के बारे में पूछताछ करके पक्का कर लेगा। उसने सोचा था कि आधा रास्ता तय करने के बाद कहीं रुकेंगे आराम करने के लिए।

उदयराज ने रजनी के पेट, कमर को दोनों हांथों से सहलाते हुए अपने हाँथ अब धीरे धीरे ऊपर चूची की तरफ बढ़ने लगा, रजनी को इसका अहसास हो गया, वो अपने बाबू की अगली मंशा को जान गयी।

एकाएक उदयराज ने अपनी दोनों हथेली अपनी बेटी रजनी के भारी उन्नत मखमली उरोजों पर रख दिये और एक प्रगाढ़ चुम्बन उसके बाएं गाल पर लेते हुए साथ ही दोनों चुचियों को पूरा पूरा हथेली में भरते हुए मसल दिया।

रजनी- uuuuiiiiiiimaaaaaaa, iiiiiiissssshhhhh bbbaaaaabbbbuuu,
धीरे धीरे, काकी देख लेंगी तो (रजनी ने बनावटी अंदाज़ में बोला)

उदयराज जोश में आकर कई ताबड़तोड़ चुम्बन रजनी के दोनों गालों पर जड़ने लगा, और धीरे धीरे मोटी मोटी चुचियों को सहलाने और दबाने लगा, चुचियों को कभी वो हथेली में लेकर थोड़ा रुककर उन्हें बहुत हौले हौले सहलाता जैसे उन्हें नाप रहा हो, तो कभी तेज तेज मसलता, कभी दोनों हांथों की तर्जनी उंगली और अंगूठे से दोनों मोटे मोटे तने हुए निप्पल को मसलता, हल्का दबाता, कभी कपड़े के ऊपर से ही निप्पल के अग्र भाग पर तर्जनी उंगली से गोल गोल घुमाता।

रजनी का तो बुरा हाल हो गया, बैलगाडी चलाना तो अब उसके बस का रहा नही, आंखें बंद हो जा रही थी उसकी नशे में, चूचीयाँ दबाए जाने से उसमे से दूध रिसने लगा था और नीचे दोनों जांघों के बीच मक्खन जैसी बूर भी रिसने लगी। कहीं बैलगाड़ी दूसरे रास्ते पर न चली जाए इस डर से रजनी कभी कभी मजबूरी में आंख खोल कर देख लेती पर अपने बाबू की हरकतें फिर उसे आपार यौन सुख सागर में गोते लगाने पर मजबूर कर देती।

उदयराज को तो जैसे होश ही नही था, वो तो बैल सीधे साधे थे वरना बैलगाड़ी रास्ते से उतर जाती जरूर।

इतने में रजनी की बेटी उठ जाती है, भूख लगी थी उसको, उसकी आवाज से काकी भी उठ जाती है।

रजनी फट से उठकर अपने को संभालते हुए पीछे आ जाती है और उदयराज एक हाँथ से धोती में बन रहे अपने तंबू को adjust करता है और दूसरे हाँथ से डोरी पकड़कर बैल हांकने लगता है।
 
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Update-18

रजनी बैलगाड़ी में बनी छपरी मे आ गयी और काकी के गोदी से बेटी को लिया और दूध पिलाने के लिए सूट ऊपर करके जैसे ही बायीं चूची को एकाएक बाहर निकाला, काकी निप्पल से रिसते हुए दूध को देखकर मुस्कुरा दी, हल्के से दबाव से ही एक दो बूँदें अब भी निकल जा रही थी, जैसे किसी ने जमे हुए दही को मथ दिया हो और वह रिस रिस कर बह रहा हो।

रजनी भी मुस्कुरा दी

काकी- अपने बाबू के पास बैठी थी क्या?

रजनी- हां काकी, बैलगाड़ी चलाना सीख रही थी।

काकी- सीख लिया।

रजनी- हां, बहुत आसान है।

काकी- सिर्फ बैलगाड़ी ही चलाई (काकी में छेड़ते हुए कहा)

रजनी- हां....तो और क्या करूँगी। काकी आप भी न।

काकी हंसते हुए - कुछ देखा न मैंने इसलिए।

रजनी- क्या?

काकी- तेरे निप्पल रस बरसा रहे थे।

रजनी- धत्त काकी आप भी न, क्या क्या सोचती और बोलती हो, अब गुड़िया नही पी पाएगी सारा दूध तो रिसेगा ही न।

काकी- जरूरी थोड़ी है कि केवल गुड़िया ही दूध की भूखी है क्या पता कोई और भी हो? (काकी ने चुटकी लेते हुए कहा)

रजनी का चेहरा शर्म से लाल हो गया, शर्म की तरंगें चेहरे पर दौड़ गयी।

रजनी- अब बस भी करो काकी, वो बाबू है मेरे, आपको तो हर वक्त मस्ती सूझती रहती है इस उम्र में भी, बड़ी बदमाश को आप।

काकी हंसने लगी फिर बोली- अरे बाबा मैं तो मजाक कर रही थी। अच्छा ये बता चलते चलते काफी देर हो गयी है न, हमे कहीं रुकना चाहिए अब, जंगल के अंदर वक्त का पता नही चल रहा है लेकिन मेरे ख्याल से 1 या 2 बज गए होंगे, बैल भी बिचारे चलते चलते थक गए होंगे उनको भी आराम चाहिए होगा।

रजनी- हां काकी मुझे तो भूख भी लग आयी।

काकी- वो तो मुझे भी लगी है, रुक मैं उदयराज से पूछती हूँ, बोलती हूँ उसको कहीं रुकने को।
उदय! ओ उदय! अरे कहीं रुकना नही है क्या तुझे, बस चलते ही जा रहा है, थोड़ा बैलों को भी आराम दे, तू भी आराम कर।

उदयराज- हां काकी रुकता हूँ, थोड़ा सही जगह देख रहा हूँ, लगभग आधे रास्ते तो पहुचने वाले हैं शायद, रुकता हूँ।

रजनी- हां बाबू रुको न अब कहीं।

उदयराज- हां बिटिया जरूर।

उदयराज बैलगाड़ी चलाये जा रहा था लगभग 2 किलोमीटर आगे जाने के बाद उन्हें एक झोपड़ी दिखी, उस झोपड़ी के आगे और घना जंगल दिख रहा था, उदयराज को थोड़ी उम्मीद जगी की हो न हो इसमें कोई तो होगा, इतने घने जंगल में अगर यहां झोपड़ी है तो कोई तो रहता होगा।

उदयराज ने वहां पँहुच कर बैलगाडी रोकी, काकी और रजनी भी झोपड़ी देख थोड़ी खुश हुई पर बैलगाडी से अभी नही उतरी। उदयराज थोड़ा आगे बढ़ा तो वहां उसे एक बुढ़िया दिखी जो लकड़ियां इकट्ठी कर रही थी, उनकी उम्र काफी थी।

उदयराज को देखते ही वो लकड़ियां छोड़ छड़ी लेकर उठते हुए बोली- कौन? इस घने जंगल में बैलगाड़ी से कौन आया है? कौन हो तुम?

उदयराज- माता जी प्रणाम, मैं विक्रमपुर गांव का मुखिया उदयराज हूँ।

बूढ़ी औरत- प्रणाम पुत्र, यहां जंगल में कैसे? अकेले आये हो?

उदयराज- माता जी मैं अकेला नही हूँ मेरे साथ मेरा छोटा सा परिवार भी है, मैं अपने गांव की एक समस्या के हल की खोज में किसी के द्वारा बताए गए मार्ग पर हूँ, चलते चलते थक कर जब मैंने कहीं रुकने का मन बनाया तभी आपकी कुटिया मुझे नज़र आई और मैं यहां चला आया।

बुढ़िया- अच्छा किया जो यहां चले आये, आओ पहले बैठो पानी पियो, और कौन है तुम्हारे साथ?

उदयराज- मेरी बेटी, और काकी है।

बूढ़ी औरत- मेरा नाम सुलोचना है और मैं यहां अपनी बेटी पूर्वा के साथ रहती हूं।

उदयराज थोड़ा हैरत से- आप इस जंगल में अपनी बेटी के साथ अकेले कैसे रह लेती हो?, और यहां रहने की जरूरत क्यों पड़ी?, क्या आप यहीं की हो या कहीं से आकर बसी हो? उदयराज ने एक साथ कई सवाल कर दिए।

सुलोचना- पुत्र पहले बैठो पानी पियो फिर सब बताऊंगी, पूर्वा! ओ पूर्वा, बेटी सुन, देख कोई आया है बैलगाड़ी से।

पूर्वा- हां अम्मा, आयी

घर के अंदर से पूर्वा आयी और सुलोचना ने उसे बैलगाड़ी के अंदर बैठी रजनी और काकी को बुला कर लाने के लिए कहा।

पूर्वा ने उदयराज को देखते ही प्रणाम किया

उदयराज- प्रणाम बेटी

पूर्वा गयी और उसने रजनी और काकी को प्रणाम किया और ले आयी।

रजनी, काकी और उदयराज को मन ही मन बड़ी राहत मिली कि चलो ऐसे नेक लोग मिले और ऐसी जगह मिली इस जंगल में जहां थोड़ा रुककर विश्राम कर सकते हैं

काकी और रजनी ने सुलोचना को प्रणाम किया।

सुलोचना- ये आपकी बेटी है।

उदयराज- हां, माता जी, इसका नाम रजनी है।

सुलोचना- परम सूंदरी है तुम्हारी कन्या।

रजनी शर्मा गयी

उदयराज- और ये मेरी काकी, इन्होंने ही रजनी को पाला पोशा है।

सुलोचना- अच्छा!.....पूर्वा सबको अंदर ले जाओ और विश्राम कराओ।

पूर्वा- जी अम्मा, (और वो काकी और रजनी को कुटिया में ले गयी)

सुलोचना- पुत्र तुम आओ यहां बैठो, पानी पियो।

उदयराज ने हाँथ मुह धोया पानी पिया। फिर उसने बैलगाड़ी से बैलों को खोल कर बड़ी रस्सी से पेड़ से ऐसी जगह बांध दिया जहां काफी घास थी बैल भूखे थे, घास चरने लगे।

उदयराज आकर सुलोचना के पास बैठ गया।

सुलोचना- पुत्र इतना तो मेरा अनुमान है कि तुम उस महात्मा पुरुष के पास जा रहे हो जो घने जंगल में आदिवासियों के साथ रहते हैं।

उदयराज- हां माता जी अपने ठीक समझा, पर आप हमें आगे का रास्ता अच्छे से समझा दे तो बहुत महेरबानी होगी।

सुलोचना- हां हां, क्यों नही पुत्र, ये तो हमारा कर्तव्य है। देखो इस जगह जहां ये कुटिया है यहां से सिंघारो जंगल की सीमा शुरू होती है जो कि बहुत विशाल है।

उदयराज- सिंघारो जंगल नाम है इसका।

सुलोचना- हां, ये जंगल काफी बड़ा है, कई जंगली जानवर भी हैं इसमें, जो कि कभी कभी बाहर तक भी आ जाते हैं, आम इंसान के लिए इसके अंदर जाना मुश्किल भरा हो सकता है, क्योंकि जितना डर जंगली जानवरों का नही है उससे ज्यादा डर बुरी आत्माओं का रहता है जो इंसान को डरा और भटका देती हैं

उदयराज- तो फिर माता जी, कैसे होगा, हमारे साथ तो एक छोटी सी गुड़िया भी है, हमने तो सोचा था कि सरल रास्ता होगा, जाना है और मिलकर आ जाना है, पर ये तो रास्ता ही बहुत कठिन है, कैसे होगा? मेरी बेटी रजनी सही कहती थी कि न जाने कैसा रास्ता हो? उसकी बात सच निकली।

सुलोचना- तू घबरा मत पुत्र, हर समस्या का हल होता है, जरा सोच इस समस्या के हल के लिए ही तो नियति ने तुम्हे मुझसे मिलाया।

उदयराज- क्या मतलब? मैं समझा नही।

सुलोचना- इस खतरनाक सिंघारो जंगल में कोई भी आम आदमी बिना किसी तंत्र मंत्र के सहारे नही जा सकता, इसके लिए उसको तंत्र मंत्र से सिद्ध की हुई ताबीज़ को अपने साथ रखना होगा ताकि रास्ते में कोई परेशानी न हो।

उदयराज- पर अब ये ताबीज कहाँ मिलेगी।

सुलोचना- वो तुम्हे मैं तंत्र मंत्र द्वारा सिद्ध करके दूंगी पुत्र, लेकिन इसके लिए मुझे एक रात का समय चाहिए होगा, अगर तुम मेरी बात मानो तो अब धीरे धीरे शाम होने को आई है, अभी लगभग आधा रास्ता तुम पार कर चुके हो आधा बाकी है, तुम यहीं रात भर रुको, खाना पीना खाकर विश्राम करो, कल सुबह तक मैं तुम सबके लिए ताबीज़ तैयार कर दूंगी और हो सके तो मैं तुम लोगों के साथ उन महात्मा के आश्रम तक भी चलूंगी अगर तुम चाहोगे तो।

क्योंकि मुझे वहां जाने में कम समय लगता है, मुझे वहां जाने के छोटे रास्ते पता है और मैं नही चाहती कि तुम लोग अकेले इधर उधर भटकते हुए जाओ, मैं रहूँगी तो समय की बचत हो जाएगी।

उदयराज उनके सामने हाथ जोड़ कर बोलता है- न जाने मैंने पिछले जन्म में क्या पुण्य किये होंगे जो आप मुझे माँ के रूप में इस कठिन यात्रा में न केवल मेरा मार्ग दर्शन करने के लिए मिल गयी बल्कि स्वयं मेरे साथ चल रही है।

सुलोचना- ये तो मेरा फ़र्ज़ है पुत्र, एक दुखी इंसान ही दूसरे दुखी इंसान की पीड़ा को समझ कर उसकी मदद कर सकता है और कोई नही, तुम्हारे मुख से माँ सुनकर मुझे मेरे पुत्र की याद आ गयी।

उदयराज- मैं भी तुम्हारा पुत्र ही हूँ माँ, ईश्वर ने शायद आज इस जंगल में तुम्हे मेरी माँ बनाकर ही मिलाया है, भला मुझे किसी बात का क्यों ऐतराज होगा, आप मेरी मदद ही तो कर रही हैं, मैं चाहूंगा कि आप भी मेरे साथ चलें, और मैं रात भर रुकने के लिए तैयार हूं।

सुलोचना- हां ठीक है पुत्र, अब तुम विश्राम करो और जब रात में सब लोग खाना पीना खा लेंगे तब मैं हवन करके मंत्र जगाऊंगी और ताबीज़ तैयार कर दूंगी, उसके लिए मुझे जंगल से कुछ दैवीय जड़ी बूटियां इकट्ठी करनी पड़ेगी।

उदयराज- तो क्या आप रात्रि का भोजन नही करेंगी।

सुलोचना- नही पुत्र, अब ताबीज़ तैयार होने के पश्चात ही मैं भोजन करूँगी। यही नियम है।

उदयराज- आप हमारे लिए कितना कष्ट झेल रही है इस उम्र में माता।

सुलोचना- अब तुमने मुझे माँ कहा है तो माँ का फर्ज है ये, इसमें कष्ट कैसा, और ये तो मेरी आदत है।

उदयराज- अच्छा आप ये तंत्र मंत्र कैसे जानती हैं, आपको देख के लगता भी है जैसे कि आप कोई सिद्धि प्राप्त स्त्री हैं। आपने अपने बारे में कुछ बताया नही।
 

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