Adultery राजमाता कौशल्यादेवी

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चिड़ियों की चहचहाट से जंगल की सुबह हो गई... सेवक सफाई में जुट गए थे और खानसामे सुबह का नाश्ता बनाने में... शक्तिसिंह अपने तंबू में खर्राटे मार कर सो रहा था... आधी रात तक राजमाता के भूखे भोंसड़े को पेलने के बाद वह सुबह चार बजे चुपके से अपने तंबू में लौटकर, चुदाई की थकान उतार रहा था...

शाही तंबूओ के बीचोंबीच सेवकों ने बड़ा सा मेज और कुर्सियाँ लगाई थी... महाराज और उनके परिवार के लिए विविध प्रकार के व्यंजन और फलों का इंतेजाम नाश्ते के लिए किया गया था...

राजमाता और महारानी काफी समय से मेज पर बैठे बैठे महाराज के आने का इंतज़ार करते रहे... अंत में थककर उन्होंने नाश्ता शुरू कर दिया.. थोड़ी देर बाद, महाराज लड़खड़ाती चाल से चलते हुए खाने के मेज तक आए... उनकी आँखें नशे के कारण लाल थी.. पर थकान की असली वजह तो केवल वह और चन्दा ही जानते थे...

"बड़ी देर कर दी आने में... ?" राजमाता ने सेब का टुकड़ा खाते हुए पूछा

"हाँ... रात को नींद आते काफी वक्त लग गया... इसी लिए जागने में थोड़ी देर हो गई.. "

"मुझे तो लगता है की इसका कारण तुम्हारा अधिक मात्रा में मदिरा सेवन ही है..." राजमाता ने ऋक्ष आवाज में कहा

"क्या माँ... आप हर बार यही बात क्यों निकालती है?" महाराज परेशान हो गए

"क्योंकी तुम्हारी ये आदत तुम्हारा स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचा रही है.. अब इस स्थिति में तुम शिकार करने कैसे जाओगे?"

इस बात को बदलने के उद्देश्य से महाराज ने प्रस्ताव रखा

"शिकार पर तो में जाऊंगा ही... में सोच रहा था, क्यों न आप और महारानी भी शिकार पर मेरे साथ चलें? अच्छा अनुभव रहेगा... "

"इस अवस्था में महारानी को ले जाना ठीक नहीं रहेगा..." राजमाता ने कहा

"तो फिर आप ही चलिए... एक बार देखेंगी तो विश्वास होगा की आपके बेटे का निशान कितना सटीक है.. "

राजमाता ने कुछ सोचकर कहा "ठीक है... में तुम्हारे साथ चलूँगी.. इससे पहले मुझे महारानी की देखभाल का प्रबंध करना होगा... तुम तैयार हो जाओ... जब निकलोगे तब में शामिल हो जाऊँगी.. " राजमाता मेज से उठकर अपने तंबू की ओर चल पड़ी।

राजमाता के शिकार पर जाने का प्रयोजन सुनकर महारानी की आँखों में चमक आ गई... वह धीरे से खाने के मेज से उठ खड़ी हुई और तंबुओं के पीछे ओजल हो गई... कुछ दूरी पर स्थित शक्तिसिंह के तंबू में वह दबे पाँव घुस गई... शक्तिसिंह घोड़े बेचकर सो रहा था... उसने शक्तिसिंह को जगाया...

"अरे महारानी आप फिरसे आ गई... !!" अपनी आँखों को हथेलियों से मलते हुए शक्तिसिंह ने कहा

"ध्यान से सुनो... मेरे पास ज्यादा वक्त नहीं है... आज महाराज के साथ राजमाता भी शिकार पर जा रही है... तुम कुछ बहाना बनाकर यहीं रुक जाओ... फिर शाम तक हमारे पास बहुत समय रहेगा... !!" उत्सुक महारानी ने कहा

"आप जानती है की क्या कह रही है? राजमाता ऐसा कदापि होने नहीं देगी... उन्हे जरा भी भनक लगी की में यहाँ रुक गया हूँ तो वह शिकार पर जाएगी ही नहीं... यदि जाएगी भी तो बीच रास्ते वापिस लौटकर हमें रंगेहाथों पकड़ लेगी... "

"तो फिर क्या किया जाए... इस तरह तो हम मिल ही नहीं पाएंगे... " महारानी उदास हो गई

"थोड़ी धीरज रखिए, कुछ ना कुछ रास्ता जरूर निकलेगा... हम जरूर मिल पाएंगे"

"पर कैसे? मुझसे अब और बर्दाश्त नहीं होता..."

शक्तिसिंह मौन रहा... उसके पास इसका कोई उत्तर या इलाज नहीं था...

"नहीं, हमे आज ही मिलना होगा... तुम बीमारी का बहाना बना लो... और सब के जाते ही मेरे तंबू में चले आना" व्याकुल महारानी ने अपनी जिद नहीं छोड़ी..

"यह मुमकिन नहीं है महारानी जी... बहुत खतरा है ऐसा करने में "

"तो तुम नहीं मानोगे... ठीक है... लगता है वक्त आ गया है की राजमाता को बता दिया जाएँ की कैसे तुम राजमहल में वापिस लौटकर भी मेरे जिस्म को नोचते रहे हो... साथ ही महाराज को भी इस बारे में सूचित कर देती हूँ..." महारानी ने अपना अंतिम हथियार आजमाया

"ये आप क्या कह रही है महारानी जी? ऐसा मत कीजिए, में हाथ जोड़ता हुए आपके" शक्तिसिंह के होश गुम हो गए.....

"तो फिर जैसा में कहती हूँ वैसा करो..."

"मुझे एक तरकीब सूझ रही है महारानी जी... में दस्ते के साथ शिकार पर जाऊंगा... मौका देखकर में वहाँ से गायब हो जाऊंगा.. पर वापिस यहाँ छावनी में आना मुमकिन न होगा... आप एक काम कीजिए... टहलने के बहाने आप दूर नदी के किनारे, जहां बीहड़ झाड़ियाँ है, वहाँ मेरा इंतज़ार कीजिए... में वहीं आप से मिलूँगा.."

महारानी आनंदित हो गई.. उनके चेहरे पर चमक आ गई..

"ठीक है... फिर यह तय रहा... में तुम्हें नदी के किनारे मिलूँगी... पर जल्दी आना.. मुझे ज्यादा इंतज़ार मत करवाना... "

"जी जरूर... अब आप यहाँ से जल्दी जाइए.. "

उछलते कदमों के साथ महारानी वापिस चली गई। शक्तिसिंह तुरंत बिस्तर से उठा और अपने दैनिक कामों से निपटकर, सैनिकों के साथ शिकार पर जाने की तैयारी करने लगा।

शिकार पर जाने के लिए महाराज का खेमा तैयार हो गया था... आगे दो हाथी पर महाराज और राजमाता बिराजमान थे... पीछे २५ घोड़ों पर सैनिक सवार थे जिसका नेतृत्व शक्तिसिंह कर रहा था... साथ ही करीब ५० सैनिक पैदल भाला लिए चल रहे थे। महाराज कअंगरक्षक चन्दा भी हाथी के बिल्कुल बगल में चल रही थी... कुछ सैनिक ढोल नगाड़े गले में लटकाए हुए थे.. जिसका उपयोग जानवारों को भड़काकर एक दिशा में एकत्रित करने के लिए किया जाता था। साथ ही साथ एक बग्गी भी थी जिसमे भोजन और अन्य जरूरी चीजें लदी हुई थी।

जंगल में चलते चलते एक घंटा हो गया था.. महाराज ने अब तक दो हिरनों को अपने बाण का शिकार बनाया था... अभी उन्हे किसी खूंखार जंगली जानवर की तलाश थी.. पैदल चल रहे सैनिक चारों दिशा में घूम रहे थे... कुछ सैनिक पेड़ पर चढ़कर जानवर को ढूंढकर खेमे को इत्तिला कर रहे थे...

इसी बीच शक्तिसिंह ने अपने घोड़े की गति कम करते हुए एक जगह स्थगित कर दिया... पूरा खेमा शिकार की तलाश में आगे निकल गए... जब उनके और शक्तिसिंह के बीच सुरक्षित दूरी बन गई तब उसने घोड़े का रुख मोड़ा और वह छावनी के पास नदी के तट की ओर चल पड़ा...

तेज दौड़ रहे घोड़े के साथ शक्तिसिंह का ह्रदय भी उछल रहा था... राजमहल में छुपकर महारानी से मिलना अलग बात थी... पर यहाँ जंगल में उन से मिलना खतरे से खाली नहीं था... किसी के देख लेने का खतरा तो कम था क्योंकी नदी का तट छावनी की विपरीत दिशा में था.. पर उसे भय यह था की अकेली महारानी का सामना किसी जंगली जानवर से ना हो जाए। इसी लिए वह दोगुनी तेजी से घोड़े को दौड़ाते हुए नदी की और जा रहा था।

नदी के तट पर पहुंचते ही शक्तिसिंह ने अपने घोड़े को रोका... उसे थोड़ा सा पानी पिलाया और नजदीक के पेड़ के साथ बांध दिया... उसे महारानी कहीं भी नजर नहीं आ रही थी... वो काफी देर तक यहाँ वहाँ ढूँढता रहा और आखिर थक कर वह एक पेड़ की छाँव में खड़ा हो गया...

अचानक पीछे से दो हाथों ने शक्तिसिंह को धर दबोचा... प्रतिक्रिया में शक्तिसिंह ने अपना बरछा निकाला और वार करने के लिए मुड़कर देखा तो वह महारानी थी... वह शक्तिसिंह का डरा हुआ मुंह देखकर खिलखिलाकर हँस रही थी... शक्तिसिंह की सांस में सांस आई... उसने बरछा वापिस म्यान में रख दिया।

"आपने तो मुझे डरा ही दिया महारानी जी... " गर्मी के कारण शक्तिसिंह के सिर पर पसीने की बूंदें जम गई थी

महारानी ने बिना कोई उत्तर दिए शक्तिसिंह को अपनी ओर खींचा और उसकी विशाल छाती में अपना चेहरा दबाते हुए उसे बाहुपाश में जकड़ लिया... शक्तिसिंह ने आसपास नजर दौड़ाई... के कोई देख ना रहा हो... फिर निश्चिंत होकर उसने महारानी को अपनी बाहों में भर लिया...

काफी देर इसी अवस्था में रहने के बाद महारानी ने अपना चेहरा उठाया और शक्तिसिंह को पागलों की तरह चूमना शुरू कर दिया... उनके हाथ शक्तिसिंह की बलिष्ठ भुजाओं को सहला रहे थे.. चूमते वक्त उनके कदम ऐसे डगमगा रहे थे जैसे संभोग के पहले गरम घोड़ी चहलकदमी कर रही हो। शक्तिसिंह भी इस गर्माहट भरे चुंबनों का योग्य उत्तर दे रहा था। उसने चूमते हुए महारानी की चोली में अपना हाथ घुसा दिया... और बड़ी नारंगी जैसे दोनों स्तनों को मसलने लगा। महारानी की निप्पल अब सख्त होकर ऐसा कोण बना रही थी की उनका आकार चोली के वस्त्र के ऊपर से भी नजर आने लगा था। स्तनों को सहलाने में सहूलियत हो जाए इस उद्देश्य से महारानी ने चुंबन जारी रखते हुए अपनी चोली खोल दी... शक्तिसिंह की हथेलियों से ढंके उनके दोनों पंछी मुक्त होकर खुले वातावरण का आनंद लेने लगे...

थोड़ी देर यूँ ही चूमते रहने के बाद महारानी ने शक्तिसिंह को अपने बाहुपाश से मुक्त किया... कमर से ऊपर नंगी खड़ी महारानी की अद्वितीय सुंदरता को आँखें भर कर देखता ही रहा शक्तिसिंह...!!

अब महारानी ने अपने घाघरे का नाड़ा खोलना शुरू ही किया था की शक्तिसिंह ने उनका हाथ पकड़कर रोक लिया...

"आप यह क्या कर रही है महारानी जी?"

"वही, जो यहाँ करने आए है... "

"मेरे कहने का यह अर्थ है की... बाकी सब तो ठीक था... पर इस अवस्था में योनिप्रवेश करने बिल्कुल भी ठीक नहीं होगा... लिंग के झटके से आने वाली संतान को नुकसान पहुँच सकता है"

यह सुन महारानी मुस्कुराई... और अपने पेट पर हाथ फेरने लगी... उसने शक्तिसिंह का हाथ पकड़ा और अपने पेट पर रख दिया...

"अंदर पनप रहे इस नन्हे जीव को महसूस करो... इसकी स्थापना तुम्हारे बीज और मेरे अंड से ही हुई है... कहने के लिए यह राजा की संतान होगी... पर हमारे लिए यह सदैव तुम्हारी संतान ही रहेगी... " बड़े ही वात्सल्य से शक्तिसिंह की हथेली को अपने पेट पर घुमाते हुए महारानी ने कहा

"और उसी संतान के स्वास्थ्य और सुरक्षा के लिए कह रहा हूँ... इस हालत में संभोग कर हम उसे जोखिम में नहीं डाल सकते"

"तो फिर क्या करूँ में इस नीचे लगी आग का? तुम ही कोई रास्ता निकालो" उदास महारानी ने कहा

"ऐसी स्थिति में तो कुछ हो नहीं सकता... आप अगर स्वयं भी खुदको आनंदित करने का प्रयास करेगी तो गर्भाशय के संकुचन के कारण शिशु को खतरा हो सकता है"

"एक तरीका है मेरे दिमाग में... जिससे मेरी आग भी बुझ जाएगी और गर्भस्थ शिशु को कोई नुकसान भी नहीं पहुंचेगा... " महारानी का उपजाऊ दिमाग किसी भी सूरत में अपनी हवस की आग मिटाना चाहता था

"कौन सा तरीका?" असमंजस में शक्तिसिंह ने पूछा

महारानी ने नाड़ा खोलकर अपना घाघरा गिरा दिया और पूर्णतः नंगी हो गई... प्रकृति के सानिध्य में, पंछियों की चहकने की और नदी के कलकल बहने की ध्वनि के बीच... इस अति सुंदर महारानी का नग्न रूप बड़ा ही दिव्य प्रतीत हो रहा था... कितना भी देख लो मन ही नहीं भरता था..

पास के एक घने पेड़ के थड़ पर अपने दोनों हाथ टिकाकर उन्होंने शक्तिसिंह की ओर अपनी गर्दन घुमाई और फिर अपनी गांड उचककर उसे इशारा किया...

महारानी की इस इशारे को शक्तिसिंह समझ ना पाया। अपने चूतड़ हाथों से फैलाकर जब संकेत दिया तब जाकर शक्तिसिंह के दिमाग की बत्ती जली और उसे झटका लगा...

"यह आप क्या कह रही है महारानी जी...?"

"अगर योनि-प्रवेश नहीं कर सकते तो पीछे से तो डाल ही सकते हो... समझ सकती हूँ की तुम एक योद्धा हो और पीछे से वार करने में नहीं मानते... पर यह कोई युद्ध नहीं है.. इस लिए मेरे प्यारे सैनिक... तैयार हो जाओ... और प्यास बुझा दो अपनी महारानी की.. " हँसते हुए महारानी ने कहा और वापिस अपने हाथ पेड़ पर रखकर अपनी गांड पेश कर दी...

शक्तिसिंह अभी भी सदमे में था... महारानी के दो गोल गोरे गोरे चूतड़ों को देखकर उसका मन तो बड़ा ही कर रहा था, पर दो कारण थे उसकी विडंबना के.. एक के उसने कभी किसी की गाँड़ नहीं मारी थी... और दूसरा के क्या महारानी उसके मूसल जैसे लंड को अपनी कोमल गाँड़ में ले पाएगी? वह अपना सिर खुजाता हुआ महारानी के उभरे नितंबों को ताकता रहा...

"क्या सोच रहे हो तुम... हमारे पास ज्यादा वक्त नहीं है... में नदी किनारे सैर करने के बहाने निकली हूँ... ज्यादा देर मेरी अनुपस्थिति रही तो सैनिक ढूंढते हुए आ जाएंगे... जल्दी करो" बेचैन होकर महारानी ने कहा... वासना की आग उनके जिस्म को अब तपा रही थी।

हिचकते हुए शक्तिसिंह महारानी के करीब आया... उनके मक्खन के गोलों जैसे नितंबों को सहलाते ही उसका लंड खड़ा हो गया... उन चूतड़ों को चौड़ा कर उसने महारानी के गुदा-द्वार के दर्शन किए... छोटा गुलाबी छेद देखकर शक्तिसिंह और भी डर गया... यह सोचकर की लंड घुसने पर उसकी क्या दशा होगी..!!

अपने हाथ महारानी के जिस्म के आगे की ओर ले जाकर वह उनके स्तनों को मींजने लगा... महारानी के बड़े गोल स्तनों की निप्पल अब सहवास की अपेक्षा से तनकर खड़ी हो गई थी... पेड़ के सहारे खड़ी महारानी ने अपने दोनों पैरों को थोड़ा सा और फैला लिया.. शक्तिसिंह ने दो चूतड़ों के बीच हाथ घुसेड़कर महारानी की चुत तक ले गया... योनिरस से लसलसित चुत में अपनी उंगली डालकर आगे पीछे किया... उसका उदेश्य यह था की जितना हो सके महारानी को उत्तेजित किया जाए... ताकि उन्हे दर्द कम हो... महारानी की हवस अब उबल रही थी... अपनी गीली उंगलियों को चुत से बाहर निकालकर उसने महारानी की गाँड़ में एक उंगली घुसा दी...

"ऊईई.. जरा धीरे से... " कराह उठी महारानी

शक्तिसिंह ने थोड़ी देर उस उंगली को अंदर बाहर करते हुए गाँड़ के छेद का मुआयना किया... चुत के मुकाबले यह छेद काफी कसा हुआ और तंग महसूस हुआ... और अंदर जरा सी भी आद्रता नहीं थी.. शक्तिसिंह ने उंगली बाहर निकालकर अपने मुंह से थोड़ी सी लार निकाली... और उंगली को गीला कर वापस अंदर डाला.. इस बार महारानी के दर्द की कोई प्रतिक्रिया न दिखी...

अब धीरे से अपनी दूसरी उंगली गांड में सरकाते हुए उसने दूसरे हाथ से महारानी के भगांकुर का हवाला ले लिया... एक हाथ की दो उँगलियाँ अब महारानी की गाँड़ को कुरेद रही थी और दूसरा हाथ उनकी क्लिटोरिस को रगड़ रहा था। महारानी अब ताव में आकर भारी साँसे ले रही थी.. हर सांस के साथ उनका पूरा शरीर ऊपर नीचे हो रहा था... भगांकुर के लगातार घर्षण से वह सिसकियाँ भरते हुए झड़ गई..

अब शक्तिसिंह ने अपनी धोती की गांठ खोल दी। उसका तना हुआ हथियार बाहर निकलकर, सामने दिख रहे शिकार का निरीक्षण करने लगा। काफी मात्रा में मुंह से लार निकालकर शक्तिसिंह ने अपने पूरे लंड को पोत दिया... लार से चिपचिपा होकर लंड काले नाग जैसा दिख रहा था...

शक्तिसिंह ने संतुलन स्थापित करने के उद्देश्य से अपनी दोनों टांगों को फैलाकर अपने लंड को महारानी की गाँड़ के बिल्कुल सामने जमा दिया। दोनों हथेलियों से उसने चूतड़ों को फैलाकर अपने टमाटर जैसे सुपाड़े को महारानी की गांड के प्रवेश द्वार पर लगा दिया। चिकना सुपाड़ा गांड के छेद को फैलाता हुआ थोड़ा सा अंदर गया.. उतना दर्द अपेक्षित था इसलिए महारानी की मुंह से कोई आवाज ना आई..

अब शक्तिसिंह ने महरानी के चूतड़ों को ओर जोर से फैलाया.. और लंड को थोड़ा और अंदर दबाया... अब महारानी थोड़ी अस्वस्थ होने लगी.. अब तक तो उन्होंने दासी की दो उंगलियों को ही अंदर लिया था... शक्तिसिंह का लंड उनकी कलाई के नाप का था.. चिकनाई के कारण लंड का चौथाई हिस्सा अंदर घुस गया... दर्द के बावजूद महारानी ने उफ्फ़ तक नहीं की... आज वो किसी भी तरह चुदना चाहती थी..

लंड को अब ज्यों का त्यों रखकर शक्तिसिंह ने महारानी के दोनों स्तनों को दबोच लिया... आटे की तरह गूँदते हुए वह उनकी धूँडियों को मसलने लगा.. महारानी के घने काले केश के नीचे छिपी सुराहीदार गर्दन को चूमकर उसने उनके कानों को हल्के से काट लिया...

महारानी थोड़ी सी पीछे की ओर आई ताकि शक्तिसिंह के बाकी के लंड को एक बार में अंदर ले सके.. पर सचेत शक्तिसिंह ने बड़ी सावधानी से खुदको भी थोड़ा सा पीछे कर लिया... महारानी के इरादे को भांपकर उसने थोड़ा सा ओर जोर लगाया और अपना आधा लंड उनकी गाँड़ में डाल दिया...

महारानी का दर्द अब काफी बढ़ गया.. उन्हे ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे कोई गरम सरिया उनकी गाँड़ में घुसा दिया गया हो... पूरा छेद जल रहा था... पर वह शक्तिसिंह को रोकना न चाहती थी.. वह धीरज धरकर अपने छेद को शक्तिसिंह के लंड की परिधि से अनुकूलित होने का इंतज़ार करने लगी... उन्होंने अपनी गर्दन को मोड़ा... और शक्तिसिंह ने उनके गुलाबी अधरों को चूम लिया...!!!
"
आधे से ज्यादा लंड को अंदर घुसाना शक्तिसिंह ने मुनासिब न समझा... उसने अपने लंड को थोड़ा सा बाहर खींच और फिर से अंदर घुसेड़ा..

"ऊई माँ..." महारानी चीख उठी...

"महारानी जी, दर्द हो रहा हो तो में बाहर निकाल लेता हूँ इसे..." डरे हुए शक्तिसिंह ने कहा

"नहीं नहीं... बाहर मत निकालना... पहली बार है तो थोड़ा दर्द तो होगा ही... थोड़ी देर में मैं अभ्यस्त हो जाऊँगी...!!"

शक्तिसिंह ने थोड़ी सी और लार लेकर लंड और गाँड़ के प्रतिच्छेदन पर मल दिया... महारानी का छेद फैलकर चूड़ी के आकार का बन गया था.. वह पसीने से तर हुई जा रही थी...

अब शक्तिसिंह ने हौले हौले लंड को अंदर बाहर करना शुरू किया... हर झटके पर महारानी की धीमी सिसकियाँ सुनाई दे रही थी... यह अनुभव शक्तिसिंह को बेहद अनोखा लगा... चुत के मुकाबले यह छेद काफी कसा हुआ था... और लंड को मुठ्ठी से भी ज्यादा शक्ति से जकड़ रखे था... इतना तनाव लंड पर महसूस होने पर शक्तिसिंह को बेहद आनंद आने लगा... अगर महारानी के दर्द का एहसास न होता तो वह हिंसक झटके लगाकर इस गाँड़ को चोद देता...

महारानी का लचीला गुलाबी छेद अपनी पूर्ण परिधि को हासिल कर चुका था... इससे ज्यादा फैलता तो चमड़ी फट जाती और खून निकल आता... थोड़ी देर आधे लंड से आगे पीछे करने के बाद... शक्तिसिंह ने एक जोर का झटका लगाया और पौना लंड धकेल दिया.. महारानी झटके के साथ उछल पड़ी... उनकी चीख गले में ही अटक गई... इतना लंड अंदर घुसाने के बाद शक्तिसिंह बिना हिले डुले थोड़ी देर तक खड़ा रहा ताकि महारानी के छेद को थोड़ा सा विश्राम मिले और वह इस छेदन के अनुकूलित हो सके..

अब उसने चूतड़ों को छोड़ दिया... दोनों जिस्म अब लंड के सहारे चिपक गए थे.. महारानी अपनी पीड़ा कम करने के हेतु से अपने दोनों स्तनों को क्रूरतापूर्वक मसल रही थी... शक्तिसिंह ने अपने हाथ को आगे ले जाकर महारानी की चुत में अंदर बाहर करना शुरू कर दिया। स्तन-मर्दन और चुत-घर्षण से उत्पन्न हुई उत्तेजना के कारण अब महारानी के गांड का दर्द कम हुआ..

"अब लगाओ धक्के... " महारानी ने फुसफुसाते हुए शक्तिसिंह से कहा

महारानी की जंघाओं को दोनों हाथों से पकड़कर शक्तिसिंह ने धीरे धीरे धक्के लगाने शुरू कर दिया... कसाव भरे इस छेद ने शक्तिसिंह को आनंद से सराबोर कर दिया... महारानी भी अपने जिस्म को बिना हिलाए उन झटकों को सह रही थी... दर्द कम हो गया था अब उन्हे आनंद की अपेक्षा थी..

अब शक्तिसिंह ताव में आकर धक्के लगाने में व्यस्त हो गया। महारानी को गांड में अजीब सी चुनचुनी महसूस होने लगी... अब धीरे धीरे उन्हे मज़ा आने लगा... हर झटके के साथ उनके चूतड़ थिरक रहे थे।

मध्याह्न का समय हो चुका था... सूरज बिल्कुल सर पर था.. नीचे दो नंगे जिस्म अप्राकृतिक चुदाई में जुटे हुए थे.. दोनों के शरीर पसीने से लथबथ हो गए थे.. महारानी का जिस्म गर्मी और चुदाई के कारण लाल हो गया था..

बेहद कसी हुई गांड ने शक्तिसिंह को ओर टिकने न दिया... लंड के चारों तरफ से महसूस होते दबाव ने शक्तिसिंह को शरण में आने पर मजबूर कर दिया.. उसके अंडकोश संकुचित होकर अपना सारा रस लंड की ओर धकेलने लगे... एक तेज झटका देकर शक्तिसिंह के लंड ने महारानी की गांड को अपने वीर्य से पल्लवित कर दिया... तीन चार जबरदस्त पिचकारी मारकर लंड ने अपना सारा गरम घी महारानी की गांड में उंडेल दिया।

गरम वीर्य का स्पर्श अंदर होते ही महारानी को बेहद अच्छा लगा... जैसे उनके घाव पर मरहम सा लग गया.. पर अभी वह स्खलित नहीं हुई थी... इसलिए अपने भगांकुर को बड़ी ही तीव्रता से रगड़ते जा रही थी। इस बात से बेखबर शक्तिसिंह ने अपने लंड को महारानी की गांड से सरकाकर बाहर निकाल लिया... जंग से लौटे सिपाही जैसे उसके हाल थे.. वह बगल में खड़ा होकर हांफ रहा था..

अपनी चुत को रगड़ते हुए महारानी उसके तरफ मुड़ी... और इशारा कर शक्तिसिंह को घास पर लेट जाने को कहा... शक्तिसिंह के लेटते ही वह अपनी टांगों को फैलाकर उसके मुंह पर सवार हो गई... महारानी की स्खलन की जरूरत को भांपते ही शक्तिसिंह की जीभ अपने काम पर लग गई और उस द्रवित चुत को चाटने लगी... चुत के भीतर के गुलाबी हिस्सों को शक्तिसिंह की जीभ कुरेद रही थी... महारानी की उंगली भी अपनी क्लिटोरिस को रगड़कर अपनी मंजिल को तलाश रही थी...

शक्तिसिंह के मुंह को चोदते हुए महारानी का शरीर अचानक लकड़ी की तरह सख्त होकर झटके खाने लगा... शक्तिसिंह के मुंह पर चुत रस का भरपूर मात्रा में जलाभिषेक हुआ... सिहरते हुए महारानी झड़ गई... और काफी देर तक उसी अवस्था में शक्तिसिंह के मुंह पर सवार रही। थोड़ी देर बाद वह धीरे से ढलकर शक्तिसिंह के बगल में घास पर ही लेट गई...

"वचन दो मुझे की मुझसे और मेरे गर्भ में पनप रही हमारी संतान से मिलने तुम आओगे..."

"जी महारानी जी.. "

थोड़ी देर के विश्राम के बाद दोनों की साँसे पूर्ववत हुई और वास्तविकता का एहसास हुआ... सब से पहले शक्तिसिंह उठ खड़ा हुआ और उसने अपने वस्त्र पहने... फिर आसपास गिरे घाघरे और चोली को समेटकर उसने महारानी को दिए.. प्रथम गाँड़ चुदाई से उभरती हुई महारानी भी धीरे से उठी और अपने वस्त्र पहन लिए।

शक्तिसिंह अपने घोड़े पर सवार हुआ.. और महारानी भी छावनी की तरफ चल दी।

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सूरज ढलने की कगार पर था और तभी क्षितिज पर महाराज का खेमा लौटता हुआ नजर आया.. उन्हे देखते ही छावनी में हलचल मच गई.. शिकार से वापिस आ रहे सैनिक काफी सुस्त नजर आ रहे थे... क्योंकी काफी गर्मी थी.. पर उनके चेहरे पर खुशी थी.. आज कुल मिलाकर उन्होंने २५ हिरण, २ तेंदुओ और १०० से ज्यादा खरगोशों का शिकार किया था... छावनी के बीच उन शिकार का जैसे ढेर सा बन गया... आज की दावत बड़ी ही खास होने वाली थी..

थकी हुई राजमाता लड़खड़ाती चाल से चलते अपने तंबू में चली गई... लग रहा था की पूरे दिन बाहर घूमने का परिश्रम उन्हे राज नहीं आया था... महाराज भी शराब की तलब को शांत करने अपने तंबू में लौट गए... सारे सैनिक सुस्ताकर यहाँ वहाँ ढेर होकर आराम करने लगे... उनमें शक्तिसिंह भी शामिल था... महारानी से मिलकर वापिस लौटते हुए उसने काफी दूर से जब महाराज के काफिले को देखा तब उनके पीछे न जाकर... दूसरे रास्ते से उनके काफी आगे निकल गया... जब वह काफिला बढ़ते बढ़ते आगे उससे मिला तब सबको यही प्रतीत हुआ की शक्तिसिंह काफी आगे निकल गए होने की वजह से दिख नहीं रहा था... किसी को भी कुछ शंका न हुई..

यहाँ राजमाता अपने तंबू में पहुंचते ही बिस्तर पर ढेर हो गई... पूरा दिन हाथी पर बैठे रहने से उनकी कमर अटक गई थी और बहुत दर्द कर रही थी... ऊपर से गर्मी ने भी उनकी हालत खराब कर दी थी... शिकार पर जाने का निर्णय करने पर वह अपने आप को ही कोसती रही। उन्होंने आवाज देकर अपनी दासी को बुलाया...

"जी राजमाता जी" सलाम करते हुए दासी ने कहा

"में दर्द से मरी जा रही हूँ.. थोड़ा सा गरम तेल ला और मेरी मालिश कर... हाय रे मेरी कमर" राजमाता दर्द से कराह रही थी

दासी थोड़ी ही देर में गरम तेल लेकर हाजिर हुई... राजमाता के बगल में बैठकर उनकी कमर पर मालिश करने लगी..

"आज खाना ठीक से खाया नहीं था क्या तूने?"

"जी भोजन तो मैंने दोपहर में ठीक से किया था"

"तो फिर हाथ का जोर लगा ठीक से... ये क्या हल्के हल्के सहला रही है...!! रात को सैनिकों के लंडों को तो बड़े जोर से मालिश करती है...लगा जोर ठीक से... मेरी कमर के तो जैसे टुकड़े टुकड़े हो गए हो ऐसा दर्द हो रहा है" अब वह दर्द से पागल हुई जा रही थी...

दासी शरमाते हुए दोनों हाथों से तेल मलने लगी.. पर उसके कोमल हाथों में वोह दम खम नहीं था जो राजमाता को चाहिए था... थोड़ी देर और मालिश के बाद राजमाता ने कहा

"तू छोड़ दे... ऐसे तो सुबह तक मालिश करेगी तब भी मेरा कुछ नहीं होगा... एक काम कर... जाकर शक्तिसिंह को संदेश दे की भोजन के बाद तुरंत यहाँ आ जाएँ"

"आप भोजन करने नहीं आएगी?"

"अरे मरी.. यहाँ दर्द से मेरी जान निकली जा रही है... और तुझे भोजन की चिंता है..!! तू जा अब और जो कहा है वो कर.. हाय में मर गई.. !!"

दासी तुरंत उठकर तंबू से बाहर चली गई और शक्तिसिंह को संदेश पहुंचाकर आई.. शक्तिसिंह भोजन निपटाकर तुरंत राजमाता के तंबू पर पहुंचा..

उसकी आशा के विपरीत, राजमाता बिस्तर पर लाश की तरह पड़ी थी.. रोज की तरह उसने तंबू के परदे को दोनों तरफ अंदर से गांठ मारकर बंद कर दिया ताकि कोई अंदर आ न जाए।

वह राजमाता के बिस्तर पर जाकर उनके पास बैठ गया और राजमाता की पीठ पर हाथ सहलाया।

"आज बड़ी जल्दी बुला लिया आपने? चलिए वस्त्र उतार दीजिए ताकि में आपको तृप्त कर सकूँ"

"कमीने, मेरी हालत तो देख...तुझे ठुकाई करने नहीं बुलाया है... मेरी कमर चूर चूर हो रही है... वहाँ गरम तेल पड़ा है उससे मेरी अच्छे से मालिश कर दे आज"

मुसकुराते हुए शक्तिसिंह ने तेल की कटोरी उठाई... और पेट के बल सो रही राजमाता के शरीर पर सवार हो गया। उनकी कमर पर तेल की धार गिराते हुए वह धीरे धीरे मालिश करने लगा... तेल की धार रिसकर उनके घाघरे में जा रही थी।

"राजमाता, अगर दिक्कत ना हो तो आपका घाघरा उतार दीजिए... सफेद रंग के वस्त्र तेल से खराब हो रहे है"

"अब तेरे सामने नंगा होने में मुझे भला कौन सी दिक्कत होगी!! ले मैंने गांठ खोल दी है... अब तू ही घाघरा खींचकर पैरों से निकाल दे... "

राजमाता ने अपने पेट को थोड़ा सा ऊपर किया और शक्तिसिंह ने बड़ी ही सफाई से घाघरा उतारकर नीचे रख दिया।

अब राजमाता के दो गोल ढले हुए चूतड़ों पर चढ़कर शक्तिसिंह अपने बलवान हाथों से मालिश करने लगा... राजमाता को बड़ी राहत मिल रही थी.. उसके प्रत्येक बार जोर लगाने पर वह कराह उठती... पीठ से लेकर चूतड़ों तक शक्तिसिंह जोर लगाते हुए चक्राकार हाथ घुमा रहा था.. राजमाता के मस्त कूल्हों को देखकर उसके मन में शरारती खयाल आया... चूतड़ों को फैलाकर उसने राजमाता की गांड के छेद पर तेल की धार गिराई...

"हाय रे... ये कहाँ तेल डाल रहा है तू!!"

"आप बस लेटी रहे... और देखें में कैसे आपकी सारी थकान दूर भगाता हूँ.. " राजमाता चुपचाप पड़ी रही

राजमाता की गाँड़ के बादामी घेरे वाले छेद पर तेल लगाकर वह उसके इर्दगिर्द उंगली घुमाने लगा... उंगली को थोड़ा सा दबाते छेद खुल जाता और तेल अंदर चला जाता। साथ ही साथ वह चूतड़ों को भी अपने भारी हाथों से मलकर मालिश किए जा रहा था। इस तगड़े मालिश से राजमाता को बड़ा ही आराम मिल रहा था... राहत मिलते ही उनकी आँख लग गई..

यहाँ शक्तिसिंह राजमाता के रसीले कूल्हों को और गाँड़ के छेद को देखकर उत्तेजित हो रहा था... मालिश के बीच रुककर उसने अपनी धोती उतार दी.. और वापिस राजमाता पर चढ़ गया.. अब उसका सारा ध्यान राजमाता के गाँड़ पर केंद्रित था.. दोपहर पहली बार कसी हुई गाँड़ का स्वाद चखकर उसे बड़ा मज़ा आया था.. असावधान राजमाता की गाँड़ देखकर उसकी आँखों में वासना के सांप लोटने लगे।

अब वह चूतड़ों को अलग कर उंगली पर काफी मात्रा में तेल लेकर राजमाता की गांड में धीरे धीरे सरकाने लगा। महारानी के मुकाबले राजमाता का छेद थोड़ा फैला हुआ था और उंगली भी तेल वाली थी इसलिए आसानी से अंदर चली गई... राजमाता की गांड के अंदर का मुलायम गरम स्पर्श महसूस करते ही शक्तिसिंह सिहर उठा... उसका लंड ताव में आकर राजमाता के घुटनों के ऊपर नगाड़े बजाने लगा...

राजमाता खर्राटे मार रही थी... इसलिए शक्तिसिंह को ओर प्रोत्साहन मिला... उसने अब दूसरी उंगली भी अंदर डाल दी.. राजमाता के खर्राटे अचानक बंद होने से शक्तिसिंह सावधान हो गया पर उनकी आँखें अभी भी बंद ही थी.. शक्तिसिंह ने दोनों उंगलियों को ज्यों का त्यों राजमाता की गांड में ही रहने दिया... कुछ पल के इंतज़ार के बाद खर्राटे फिर शुरू हो गए और शक्तिसिंह का काम भी...

दोनों उंगलियों को गांड में आगे पीछे करते हुए शक्तिसिंह और तेल डालता ही गया ताकि उनका छेद पूरी तरह से चिकना हो जाए... अधिक आसानी के लिए उसने धीरे से राजमाता की दोनों टांगों को बिस्तर पर फैला दिया... अब वह दोनों जांघों के बीच जा बैठा..

अब उसने अपनी योजना पर अमल करना शुरू किया... काफी सारा तेल लेकर वह अपने कड़े लंड पर मलने लगा.. उसका काल मूसल अब तेल से लसलसित हो चुका था.. अब एक हथेली से उसने राजमाता के कूल्हे को पकड़े रखा और हल्का सा जोर लगाकर अपना सुपाड़ा अंदर घुसेड़ दिया...

थकान के मारे लगभग बेहोश अवस्था में सो रही राजमाता की नींद अब भी नहीं खुली। शक्तिसिंह ने धीरे धीरे अपने लंड को अंदर सरकाना शुरू किया... आधे से ज्यादा लंड अंदर घुसाने पर भी जब राजमाता ने कोई हरकत न की तब उसने एक मजबूत झटका लगाते हुए पूरा लंड अंदर धकेल दिया...

राजमाता की नींद खुल गई.. उन्हे पता नहीं चल रहा था की आखिर क्या हो गया!! होश संभालते ही उन्हे ऐसा प्रतीत हुआ जैसे उनकी गांड में किसी ने जलती हुई मशाल घोंप दी हो!! शक्तिसिंह के शरीर के वज़न तले दबे होने के कारण वह ज्यादा हिल भी नहीं पा रही थी... मुड़कर देखने पर पता चला की शक्तिसिंह उनपर सवार था... फिर उन्हे अंदाजा लगाने में देर न लगी की आखिर उनकी गांड में क्या जल रहा था!!

"क्या कर रहा है कमीने? निकाल अपना लंड बाहर... " गुस्से में आकर राजमाता ने कहा

शक्तिसिंह आज अलग ही ताव में था.. राजमाता की मुलायम चौड़ी गांड का नशा उसके सर पर चढ़ चुका था.. इतने दिनों से राजमाता को चोदने के बाद वह इतना तो जान चुका था की उसकी थोड़ी बहुत मनमानी को सह लिया जाएगा...

"अपना शरीर ढीला छोड़ दीजिए राजमाता जी... फिर देखिए इसमें कैसा आनंद आता है.." उनके कानों में शक्तिसिंह फुसफुसाया

"कैसा आनंद? पीछे भी भला कोई डालता है क्या? पता नहीं कहाँ से ऐसी जानवरों वाली चुदाई सिख आया है"

"मेरा विश्वास कीजिए, आप अगर अपने पिछवाड़े की मांसपेशियों को थोड़ा सा शिथिल कर देगी तो जरा भी कष्ट न होगा और मज़ा भी आएगा"

"मुझे बिल्कुल भी मज़ा नहीं आ रहा है... पीछे जलन हो रही है... इतना मोटा लंड तूने अंदर घुसया कैसे यही पता नहीं चल पा रहा मुझे... "

शक्तिसिंह को लगा की बिना राजमाता को उत्तेजित किए वह उन्हे आगे का कार्यक्रम करने नहीं देगी... उसने उनकी जांघों के नीचे अपना हाथ सरकाया और उनके दाने को अपनी उंगलियों की हिरासत में ले लिया... उसे रगड़ते ही राजमाता सिहरने लगी..

"तुझे चुदासी चढ़ी ही थी तो पहले बता देता... में घूम जाती हूँ... फिर चाहे जितना मन हो आगे चोद ले.. "

"राजमाता जी, अब यह शुरू किया है तो खतम करने दीजिए... आपसे विनती है मेरी.. "

राजमाता मौन रहकर अपने दाने के घर्षण पर ध्यान केंद्रित करने लगी।

शक्तिसिंह धीरे धीरे धक्के लगा रहा था ताकि राजमाता कष्ट से उसे रोक न दे.. अब वह एक हाथ से राजमाता के भगांकुर को रगड़ रहा था और दूसरे हाथ से उनकी चुची... महारानी और राजमाता से इतनी बार चुदाई करके उसे यह ज्ञात हो गया था की स्त्री के कौनसे हिस्सों को छेड़ने से उनकी उत्तेजना तीव्र बन जाती है... उसने उनकी गर्दन के पिछले हिस्से को चाटना और चूमना भी शुरू कर दिया...

इन सारी हरकतों ने राजमाता को बेहद उत्तेजित कर दिया... और उस उत्तेजना ने गांड चुदाई के दर्द को भुला दिया.. वह सिसकियाँ भरते हुए अपने दाने के घर्षण, चुची के मर्दन और गर्दन पर चुंबन का तिहरा मज़ा ले रही थी।

भगांकुर को रगड़ते हुए अपनी उंगली राजमाता के भोसड़े में डालते हुए अंदर के गिलेपन का एहसास होते ही शक्तिसिंह को राहत हुई... अब उसे यह विश्वास हो गया की उसे यह अनोखी गाँड़ चुदाई बीच में रोकनी नहीं पड़ेगी...

अब शक्तिसिंह ने धक्कों की तीव्रता और गति दोनों बढ़ाई... राजमाता उफ्फ़ उफ्फ़ करती रही और वह उनके दाने को दबाकर चुत में उंगली घुसेड़ता रहा... अपने शरीर का पूरा भार रख देने के बाद भी उसका थोड़ा सा लंड का हिस्सा अभी भी बाहर था... राजमाता की गद्देदार गांड को वह बड़े मजे से चोदता रहा... चोदने के इस नए तरीके का ईजाद शक्तिसिंह को बेहद पसंद आया...

"अब बहोत हो गया... या तो तू झड़ जा या फिर मेरी गांड से लँड बाहर निकाल... " राजमाता कसमसाई

"बस अब बेहद करीब हूँ... मुझे मजधार में मत छोड़िएगा.. " हांफते हुए धक्के लगाते शक्तिसिंह ने कहा

राजमाता के भोसड़े से हाथ हटाकर अब वह दोनों स्तनों को मजबूती से मसलने लगा... शकतसिंह की जांघें और राजमाता के चूतड़ इस परिश्रम के कारण पसीने से तर हुए जा रहे थे...

"बस अब छोड़ मुझे... खतम कर इसे जल्दी... " राजमाता कराह रही थी...

शक्तिसिंह ने पिस्टन की तरह अपने लंड को राजमाता के इंजन की अंदर बाहर करना शुरू कर दिया... अंतिम कुछ धक्के देते हुए दहाड़कर शक्तिसिंह ने राजमाता की गांड अपने वीर्य से गीली कर दी... अपने पिछवाड़े में गरम तरल पदार्थ का स्पर्श राजमाता को भी अच्छा लगा... अंदर ज्यादा देर ना रुककर उसने अपना लंड बाहर निकाल लिया... राजमाता ने भी चैन की सांस ली और पलट गई... हांफते हुए शक्तिसिंह भी बगल में लेट गया..

"आज के बाद तू मेरी गांड से दूर ही रहना... " इस सदमे से राजमाता अभी उभरी नहीं थी...

"क्यों? आपको मज़ा नहीं आया?" मुसकुराते हुए शक्तिसिंह ने कहा

"खाक मज़ा... मेरी जान हलक में अटक गई थी.. "

"पहली बार में तो दर्द होता ही है ना... आगे करवाओ या पीछे.. "

"बात तो तेरी सही है.. मेरे पति ने जब पहली बार मुझसे संभोग किया था तब मुझे काफी रक्तस्त्राव हुआ था.. और दर्द की कोई सीमा न थी.. पर यह तो काफी अलग था... मैंने कभी अपने पीछे लेने की सोची न थी.. और बिना किसी अंदेशे के तूने अपना गधे जैसा लंड डाल दिया तो दर्द तो होगा ही ना!!

"पर अब दूसरी बार करेंगे तब दर्द नहीं होगा... बल्कि आप भी आनंद उठा पाएगी.. "

"तू दूसरी बार की बात कर ही मत... एक तो यहाँ पहले से पूरा जिस्म दर्द कर रहा था... ऊपर से तूने पीछे डालकर एक और अंग को दर्द दे दिया।"

"चिंता मत कीजिए राजमाता... इस संभोग से आपके पूरे शरीर में रक्तसंचार तेज हो गया है.. इसलिए अब जिस्मानी दर्द कम हो जाएगा"

"हम्म अब तू जा यहाँ से.. और मुझे विश्राम करने दे" राजमाता ने करवट लेटे हुए कहा

शक्तिसिंह ने अपने कपड़े पहने और मुस्कुराते हुए तंबू से बाहर निकल गया।

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उधर महाराज कमलसिंह के बिस्तर से उठकर चन्दा ने अपने कपड़े पहने... महाराज तो मरे हुए मुर्गे की तरह पड़े हुए थे.. पिछली रात चन्दा ने अपनी चुत की मजबूत मांसपेशियों में राजा के लंड को दबोच कर ऐसा मरोड़ा था की उनके लंड में मोच आ गई थी... उसके बाद उनका लंड पिचक कर बाहर निकल गया और चन्दा को अपने भगांकुर को मसलकर झड़ना पड़ा था.. महाराज के साथ चन्दा को जरा सी भी तृप्ति का एहसास नहीं होता था पर क्या करती..!! महाराज के हुकूम की अवहेलना भी तो नहीं कर सकती थी..

बचपन से ही तगड़े कदकाठी वाली चन्दा के दोस्त सारे लड़के ही रहे थे... लड़कियों वाले खेल उसने कभी खेले ही नहीं थे... जवान होने के बाद वह इतनी शक्तिशाली और बलिष्ठ बन गई थी की ना ही उसमें लड़कियों वाली नजाकत थी और ना ही छरहरा बदन... अमूमन कोई पुरुष उसमें ज्यादा दिलचस्पी नहीं लेता था... इसलिए वह काफी लंबे अरसे तक अनछुई ही रही थी.. ज्यादातर उसे हस्तहमैथुन से ही अपने आप को संतुष्ट करना पड़ता था..

आधे घंटे बाद नाश्ता करने महाराज और महारानी मेज पर बैठे थे तब दोनों के बीच साहजीक बातें हो रही थी... थोड़ी देर बाद लँगड़ाते हुए राजमाता आती दिखाई दी.. उनके चेहरे पर थकान की रेखाएं थी.. हर कदम चलने पर उन्हे दर्द होता प्रतीत हो रहा था।

"क्या हुआ माँ... आप ऐसे लँगड़ाते हुए क्यों चल रही है?" आश्चर्यसह महाराज ने पूछा

अब क्या बताती राजमाता? कल रात को शक्तिसिंह ने उनकी गांड के ऐसे तोते उड़ा दिए थे की एक कदम चलने में उन्हे भारी दर्द हो रहा था.. मन ही मन में शक्तिसिंह को कोसते हुए वह कराहकर कुर्सी पर बैठ गई।

"कल पूरा दिन हाथी पर बैठे बैठे कमर जकड़ गई थी... आदत नहीं है ना मुझे!! दो दिन मालिश करवाऊँगी तो ठीक हो जाएगा.." राजमाता ने उत्तर दिया

फिर उन्होंने महारानी की तरफ मुड़कर कहा

"दासियों ने मुझे सूचित किया की कल आप अकेले ही नदी किनारे सैर पर निकल गई थी?"

"जी वो कल अकेले बैठे बैठे ऊब सी गई थी... सोचा नदी के निर्मल जल को देखकर मन को थोड़ा सा प्रसन्न कर दूँ.."

"पर तुम्हारा ऐसे अकेले जंगल में घूमना ठीक नहीं है.. अब से तुम बिना किसी को साथ लिए कहीं नहीं जाओगी" कड़े सुर में राजमाता ने कहा

"जी नहीं जाऊँगी" आँखें झुकाकर महारानी ने उत्तर दिया

"और बेटा... आज नहीं जाओगे शिकार पर?" राजमाता ने कमलसिंह से पूछा

"नहीं माँ... मेरा भी शरीर आज दर्द कर रहा है... और गर्मी भी काफी हो रही है.. सोच रहा था की आज का दिन विश्राम ही कर लूँ" शरीर तो नहीं पर महाराज का लंड दर्द कर रहा था... पगलाई घोड़ी की तरह चन्दा ने कल उन पर ऐसी चढ़ाई कर दी थी की महाराज कुछ करने के काबिल बचे नहीं थे...

नाश्ता करने के बाद तीनों अपने तंबू की ओर लौट गए ।

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उस रात महाराज बड़ी ही बेचैनी से अपने तंबू में बैठे शराब पी रहे थे... रात का वक्त हो चला था और हवसी मन में इच्छाएं प्रकट होने लगी थी.. पर लंड अभी भी कल की चुदाई के दर्द से नहीं उभरा था... पिछली रात चन्दा ने अपनी फौलादी चुत से लंड को ऐसे निचोड़ा था की लंड को मोच सी आ गई थी... लिंग की मांसपेशियाँ दर्द कर रही थी... ऐसी बलवान जिस्म वाली स्त्री अगर लंड पर कूदेगी तो और क्या होगा!!

दर्द के बावजूद महाराज व्यग्र थे... उन्होंने चन्दा को आवाज लगाई... चंद तुरंत हाजिर हुई

"अरी चन्दा... कल तूने मेरे लंड के साथ क्या कर दिया?? सुबह से दर्द कर रहा है" महाराज के चेहरे पर दर्द की रेखाएं उभर आई

"जी मैंने तो वही किया जो हम पिछली दो रातों से करते आ रहे है.." भोली बनने का अभिनय करते हुए चन्दा ने कहा... जबकी उसे भलीभाँति मालूम था उसकी चुत की गिरफ्त में महाराज के लंड का यह हाल हुआ है।

महाराज ने चन्दा के सामने अपनी धोती खोल दी... अंदर सा उनका मरा हुआ लंड प्रकट हुआ... सूखी हुई भिंडी जैसा लंड देखकर चंद को मन में ही हंसी छूट गई।

"देख इसका हाल... अब तू है कर कुछ इलाज... "

"महाराज में कोई वैद्य तो हूँ नही जो इसका इलाज कर सकूँ... "

"जानता हूँ... पर इसे मुंह में लेकर चूस तो सकती है ना... "

सुनकर चन्दा का मुंह उतर गया... उसे लंड चूसना बिल्कुल पसंद नहीं था... घिन आती थी उसे... और कोई फौलादी तगड़ा लंड होता तो बात अलग थी.. यहाँ तो महाराज का मरे हुए चूहे जैसा लंड चूसना था...

"सोच क्या रही है!!! चल बैठ नीचे और चूसना शुरू कर दे... " कुर्सी पर बैठे महाराज ने अपनी टाँगे खोली

बेमन से झिझकते हुए चन्दा अपने घुटनों के बल, महाराज की कुर्सी के सामने बैठ गई.. महाराज के मुरझाए लंड को हाथ में लेकर थोड़ी देर खेलती रही.. लंड की चमड़ी को हल्का सा नीचे उतारते ही छोटे से कंचे जैसा महाराज का सुपाड़ा डरते हुए बाहर निकला... अब इस विचित्र जीव को कैसे मुंह में ले यही सोच रही थी चन्दा...

"क्या सोच रही है, मुंह में लेकर चूसना शुरू कर... "आदेशात्मक आवाज में महाराज ने कहा

अब चन्दा के पास चूसने के अलावा और कोई चारा न था... उसने मुंह बिगाड़कर महाराज के लंड के मुख को अपने होंठों से लगाए... उसके मोटे होंठों के बीच महाराज का मुरझाया लंड बीड़ी जैसा लग रहा था... वह उनके सुपाड़े को चूसना शुरू ही कर रही थी तब महाराज ने उसके सिर को अपने लंड पर दबा दिया... उनका पूरा लंड चन्दा के मुंह में चला गया...

महाराज की इस हरकत से चन्दा को बड़ा गुस्सा आया... फिर भी वह अपने मुंह को आगे पीछे करते हुए चूसती गई... करीब पाँच मिनट तक चूसने के बाद भी महाराज के लंड में जरा सी भी सख्ती नहीं आई...

"रुक जा... और अपनी छातियाँ खोल दे... " महाराज ने उसका सिर पकड़कर रोकते हुए कहा

चन्दा यंत्रवत खड़ी हो गई और अपना कवच निकालने लगी... भीतर पहना हुआ वस्त्र जो पसीने से गीला हो चला था... उसे भी उसने उतार दिया... भरे हुए मोटे साँवले बैंगन जैसे उसके दोनों स्तन यहाँ वहाँ झूलने लगे... उसकी दोनों निप्पल दबी हुई थी क्योंकी इस गतिवधि में उसे रत्तीभर भी उत्तेजना नसीब नही हुई थी।

महाराज उसके दोनों उरोजों को हथेलियों में भरकर मसलने लगे.. चन्दा को अपनी ओर खींचकर उसके स्तनों को चाटने और चूमने लगे... अपने एक हाथ को उन्होंने चन्दा की घाघरी के अंदर डाल दिया... उसकी लंगोट को सरकाकर चुत में उंगली करने का प्रयास करने लगे... चन्दा का पूरा योनिमार्ग सूखा और ऋक्ष था... फिर भी महाराज अपनी उंगली अंदर घुसेड़ने का प्रयास कर रहे थे जिससे चन्दा को हल्की सी पीड़ा का एहसास हो रहा था... वह चाहती थी की महाराज जल्द से जल्द निपट जाएँ ताकि उसका छुटकारा हो...

चन्दा के मजबूत शरीर की निकटता प्राप्त कर महाराज का लंड हरकत में आने लगा... पूर्णतः खड़ा तो नही हुआ पर उसमें सख्ती जरूर दिखने लगी थी.. महाराज भी यह देख खुश हुए और मन में राहत भी हुई की उनके लंड में अभी भी जान बची थी...

अब उन्होंने चन्दा को खींचकर वापिस नीचे बैठा दिया और अपना लंड उसके मुंह में फिर से दे दिया... जल्दी निपटारा चाहती चन्दा ने भी तेजी से अपना मुंह ऊपर नीचे करना शुरू कर दिया... पुरुषों की शरीर-रचना से परिचित चन्दा ने उनके टट्टों को पकड़कर हल्के से दबाया... और महाराज उसके मुंह में ही झड़ गए... उनके स्खलन से गिनकर तीन-चार बूंद वीर्य की निकली जिसका स्वाद मुंह में लगते ही चन्दा का स्वाद बिगड़ गया... ऐसे बेजान पानी जैसे अल्प मात्रा में निकलते वीर्य से आखिर महाराज ने महारानी को कैसे गर्भवती किया होगा, चन्दा सोचती रही...

अपने मुंह पर हाथ दबाकर वह खड़ी हो गई... और तंबू के कोने में जाकर उसने वह वीर्य थूक दिया... मुंह का स्वाद ठीक करने के लिए उसने पास पड़े मेज से शराब की सुराही उठाई और उसे सीधे अपने मुंह में उंडेल दिया... तीन-चार घूंट पीकर उसे कुछ अच्छा लगा.... स्खलन के बाद महाराज गहराई आँखों से कुर्सी पर अपना सिर टिकाए सुस्त पड़े थे... चन्दा ने घृणित नजर से महाराज को देखा, अपने वस्त्र पहने और वहाँ से चली गई...
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दूसरे दिन शिकार यात्रा का खेमा जंगल से सूरजगढ़ लौट आया...

एक दिन सब ने विश्राम करने में ही व्यतीत कर दीया.. उस दिन शाम के समय राजमाता अपने कक्ष में कुर्सी पर बैठे पुस्तक पढ़ रही थी तभी दासी ने आकार सूचित किया की उनसे मिलने दीवान जी आए थे। राजमाता ने तुरंत उन्हे अंदर बुलाने को कहा..

थोड़ी ही देर में, थुलथुले शरीर वाले दीवानजी अंदर पधारे... गले में मोतियों की माला और सिर पर सुनहरे रंग की पग़डी पहने दीवानजी की उम्र लगभग ५५ साल के करीब थी... राजमाता को सलाम कर वह उनके इशारे पर सामने रखी कुर्सी पर बैठ गए।

"कहिए दीवानजी, कैसे आना हुआ..?" राजमाता ने पूछा

"राजमाता जी, कल सुबह से दरबार की गतिविधियां आरंभ हो रही है... में चाहता हूँ की आप इस बार दरबार का संचालन करें... काफी सारे प्रश्न है जिनका समाधान ढूँढना है.. कर व्यवस्था में बदलाव करना है... राज्य की आय का ब्योरा भी करना है.. और सुरक्षा से लेकर भी काफी निर्णय करने है.. इस लिए आपकी मौजूदगी अनिवार्य है" दीवानजी ने बड़े ही अदब के साथ कहा

"पर ये रोजमर्रा की गतिविधियां तो महाराज को ही संभालनी चाहिए... तुम उनसे क्यों नही बात करते?"

राजमाता की बात सुनकर दीवानजी का मुंह उतर गया

"राजमाता जी, आपसे मिलने आने से पहले में उनसे ही मिलने गया था... वह प्रायः उनकी प्रवृत्तियों में काफी व्यस्त है और दरबार में पधार नही सकते.. इसलिए में यह दरख्वास्त आप के पास लेकर आया.. "

यह सुनकर राजमाता ने एक गहरी सांस ली.. अपने पुत्र को वह भलीभाँति जानती थी.. उसकी प्रवृत्तियाँ मतलब भोग-विलास और मदिरापान... ज्यादातर महत्वपूर्ण बातों को राजमाता ही संभालती आई थी.. इसलिए महाराज कमलसिंह का राज्य के कारभार में कुछ ज्यादा योगदान कभी नही रहा था... जब कमलसिंह युवा थे तब राजमाता सोचती थी की समय के साथ वह अपनी जिम्मेदारियों को निभाने में सक्षम बन जाएगा... पर वह तो किसी भी प्रकार की जवाबदेही से बचता ही रहता था... गनीमत थी की सूरजगढ़ में खेती और व्यापार काफी मात्रा में होता था इसलिए कर की आय से राज्य का खजाना कभी खाली नही रहता था... पर किसी भी राज्य के दिन-ब-दिन के प्रसाशन और व्यवस्थापन के काम का मुआयना करना अति-आवश्यक होता है...

राजमाता सोच में पड़ गई... इतना समय व्यतीत होने पर... और काफी बार समझाने के बावजूद महाराज कमलसिंह अपनी जिम्मेदारियों को गंभीरता से नही ले रहे थे... और अब कुछ ही समय में महाराज का उत्तराधिकारी भी आने वाला था... ऐसी सूरत में राज्य की स्थिरता बड़ी ही महत्वपूर्ण थी... राजमाता अब फिरसे राज्य की बागडोर को संभालने का निर्णय ले चुकी थी... पर उनके अकेले से यह जिम्मेदारी निभा पाना थोड़ा कठिन था..

काफी सोच-विचार के पश्चात, राजमाता ने उत्तर दिया

"ठीक है... आप तैयारी कीजिए.. कल दरबार का संचालन हम करेंगे"

दीवानजी यह सुनकर चिंता मुक्त हो गए... सारे मंत्री गण और दीवानजी खुद राजमाता की कुशलता के बारे में आश्वस्त थे.. दीवानजी ने कुर्सी से खड़े होकर राजमाता को सलामी दी... और उनके कक्ष से चले गए...

दूसरे दिन सुबह राजमाता की अगुवाई में दरबार की कार्यविधि को शुरू किया गया... राजमाता सिंहासन पर बिराजमान थी और उनके दोनों तरफ लगे आसनों पर सारे मंत्री, दीवानजी और सेनापति बैठे हुए थे...

एक के बाद एक समस्या और मसले पेश किए गए और राजमाता ने उन सबका त्वरित निराकरण भी कर दिया.. राजमाता की इस कुशलता के सारे मंत्रीगण कायल थे.. इसी कारणवश राजसभा में महाराज से ज्यादा राजमाता का रुतबा था।

इसी अवधि के दौरान एक भटकते हुए पुरुष ने राजमाता से मिलने की मांग की। आम नागरिकों के लिए राजमाता से मिलना और अपनी शिकायतें बताना बिल्कुल भी असामान्य नहीं था। वास्तव में उन्होंने इसका स्वागत किया और इसके लिए समय भी निश्चित कर दिया। लेकिन मुलाकात के पहले मिलने का उद्देश्य बताना आवश्यक रहता था ताकि अधिकारी राजमाता को मुलाकात की तैयारी में मदद करने के लिए पहले से ही प्रासंगिक जानकारी इकट्ठा कर सकें। राजमाता सभी की बातें विस्तार से सुनती थी और वास्तव में इन बैठकों को गंभीरता से लेती थी।

हालाँकि इस पुरुष ने मुलाकात का उद्देश्य बताने से इनकार कर दिया; सिवाय यह बताने के कि वह राजमाता की मदद करने के लिए यहां आया था और उससे अकेले में बात करेगा, किसी भी निम्न अधिकारी या मंत्री से नहीं। और इसलिए, निस्संदेह, अधिकारियों ने उसे राजमाता तक पहुंचने से वंचित रखा। अपने अहंकार के अलावा ऐसा नहीं लगता था कि उनके पास देने के लिए और कुछ है। वह लंबा, गौर वर्ण का आकर्षक और रहस्यमयी व्यक्तित्व का स्वामी था। उसका लंबा पतला शरीर और लंबा ललाट, उसके ज्ञानी और तपस्वी होने की पुष्टि कर रहा था। उसने बेदाग सफेद धोती पहन रखी थी, उनके नंगे धड़ पर रंगबिरंगी पत्थरों से बनी माला लटक रही थी। उसकी सारी सांसारिक संपत्ति कपड़े के एक छोटी सी गठरी में एकत्रित थी जो उसके दूसरे कंधे से लटक रही थी।

मुलाकात का अवसर ना मिलने पर वह हड़बड़ाकर वहाँ से चला गया और महल के द्वार के सामने डेरा लगाकर बैठ गया और इंतजार करने लगा। एक तपस्वी सदैव प्रतीक्षा कर सकता है क्योंकि उसकी इच्छाएँ और जरूरतें कम होती हैं। इस पुरुष के मामले में उन आवश्यकताओं की पूर्ति वहाँ से गुजरने वाले सामान्य लोगों द्वारा की जाती थी जो ऐसे तपस्वी ज्ञानी की सलाह और आशीर्वाद का सम्मान करते थे। आते जाते लोग भोजन और दैनिक जीवन के लिए आवश्यक अन्य वस्तुएँ छोड़ जाते थे।

कई दिनों के पश्चात राजमाता को इस दिव्य पुरुष के अस्तित्व के बारे में पता चला। फिर, जिज्ञासावश उसे मिलने की अनुमति देने के लिए प्रेरित किया। बुलावा भेजने पर सैनिक उसे लेकर हाजिर हुए। वह भावहीन चेहरे के साथ राजमाता के सामने खड़ा हो गया और इंतजार करने लगा। न कोई प्रणाम, न कोई अभिवादन, बस सिर्फ मूक दृष्टि!!!

आख़िरकार राजमाता ने कहा, "तुम मुझसे क्यों मिलना चाहते थे?"

"यह तय करने के लिए की क्या आप साम्राज्ञी बनने के लिए तैयार है या अभी भी केवल राजमाता ही बनी रहना चाहती है!!"

उस व्यक्ति के इस अत्यधिक अहंकार को देखकर दरबारियों में हंगामा मच गया और एक सैनिक तो उस पर हमला करने के लिए भी उठा, लेकिन राजमाता ने इशारे से उसे रोक दिया गया। इस व्यक्ति में राजमाता को रुचि जगी। शायद उसके पास अपने हास्यास्पद दावे का समर्थन करने के लिए कुछ था या शायद वह सिर्फ एक अहंकारी मूर्ख था। राजमाता ने सोचा, चलो पता लगाएं!!

"हम्म.. तो तुम्हारे आने का प्रयोजन तो पता चल गया... अब अपने बारे में भी तो कुछ बताओ"

"मेरा नाम विद्याधर है... और में विंध्य पर्वतों की तलहटी में बसे एक गाँव से आया हूँ"

"अच्छा विद्याधर, ये बताओ की यहाँ मेरे पास आना कैसे हुआ?" राजमाता को इस पुरुष में दिलचस्पी बढ़ने लगी

"में ज्ञानशीला नगर में शास्त्रों का अभ्यास कर रहा था... आए दिन कोई न कोई राजा उस नगर पर हमला कर देता और मेरे अभ्यास में बाधा पड़ती... तब मेरी रुचि इस भूगोल की राजनैतिक विषमताओ पर पड़ी.. यह प्रदेश कई राज्यों में बंटा हुआ है और सक्षम नेतृत्व के अभाव के कारण सारे राजा एक दूसरे से हमेशा लड़ते रहते है.. जरूरत है एक ऐसे सबल नेता की जो अपनी छाँव में सारे राज्यों को संभालकर एकता से जीना सीखा सके.. उन राजाओं के अहंकार और झूठी शान के खातिर सेंकड़ों सैनिकों की मृत्यु हो जाती है.. उनके परिवार अनाथ हो जाते है... आम जनता का जीवन भी व्याकुलता से भर जाता है... सक्षम राजाओं के लिए युद्ध अपना राज्य बढ़ाने का जरिया होगा पर आम प्रजाजनों का जीवन इससे नरक बन जाता है.. किसान खेती नही कर पाते, व्यापारी अपना उद्योग चला नही पाते... आवश्यक चीजें नही मिल पाती... महंगाई आसमान छु जाती है.. काफी गहन विचार के बाद में इस निष्कर्ष पर पहुंचा की अगर किसी सक्षम राज्य के नेतृत्व में अगर इन सारे कुनबों को ला दिया जाए तो इस खून खराबे का अंत हो जाएगा... प्रजाजन अपना जीवन खुशाली से व्यतीत कर पाएंगे... खेती और व्यापार बढ़ेगा तो सबका फायदा होगा!! काफी अध्ययन के बाद मुझे सूरजगढ़ की राजमाता में वह सारे गुण नजर आए जो में ढूंढ रहा था...में चाहता हूँ की आपके नेतृत्व में एक मजबूत साम्राज्य स्थापित किया जाए, फिर एक ऐसा राजवंश स्थापित होगा जो सैकड़ों वर्षों तक फैला रहेगा। मैं जानता हूं कि यह हमेशा के लिए नहीं रहेगा लेकिन यह मेरा उद्देश्य नहीं है। मेरा उद्देश्य, सबसे पहले और सबसे महत्वपूर्ण यही है की इस खूनखराबे और युद्धों को रोका जाएँ!!"

राजमाता इस पुरुष की असखलित वाक छटा से काफी प्रभावित होकर सुनती ही रही... !!!

"जैसे चाणक्य ने चन्द्रगुप्त को योग्य तालिम देकर एक सक्षम महाराजा बनाया था उसी तरह में आपको एक महान साम्राज्ञी बनने में आपकी सहायता करूंगा... और वो भी तब जब मुझे यह विश्वास हो जाएँ की आप इसके लिए योग्य हो!!"

उस पुरुष की बातें सुनते ही पूरी सभा आक्रोश से भर गई... यह टुच्चे आदमी की यह जुर्रत की वह राजमाता की योग्यता तय करेगा?? सेनापति अपने आसन से उठ खड़े हुए और उन्होंने अपनी तलवार निकाल ली। वह क्रोध से थरथर कांप रहे थे।

"राजमाता जी, आप आदेश करें तो एक पल में इस अहंकारी का सिर, धड़ से अलग कर दूँ"

राजमाता ने उत्तर नही दिया... वह इस तेजस्वी पुरुष की आँखों की चमक देखती रही... कुछ तो बात थी उसमें.. इतना विश्वास किसी इंसान में ऐसे ही नही प्रकट होता... किसी भी निर्णय पर पहुँचने से पहले राजमाता उसकी बात को विस्तारपूर्वक सुनना चाहती थी... उन्होंने इशारा कर सभा को बर्खास्त करने का आदेश दिया... थोड़ी ही देर में पूरा सभाखण्ड खाली हो गया... बच गए तो सिर्फ विद्याधर और राजमाता।

"अब बताओ," राजमाता ने कहा, अब वह दोनों अकेले थे, "मैं तुम्हें गंभीरता से क्यों लूं? अशिष्टता और दंभ के अलावा तुम्हारे पास ऐसा क्या है, जो मुझे विश्वास दिलाएगा कि तुम इस कार्य में मेरी मदद कर सकते हो?"

"मेरे पास ज्ञान है, और उस ज्ञान को व्यावहारिक उपयोग में लाने की बुद्धि है," उसने बड़े ही आत्मविश्वास के साथ कहा, "मैंने सभी शास्त्रों का सविस्तार पठन किया है। कई शक्षत्र तो मुझे कंठस्थ है। मैंने लगन से ऐसे गुरुओं की तलाश की है जो न केवल मुझे प्राचीन ग्रंथ या शास्त्र पढ़ाएं बल्कि उनके पीछे की सच्चाई भी समझाएं। मैंने सीखा है कि महान चीजें अलौकिक या परग्रहवासी प्राणियों के कृत्यों से हासिल नहीं की जाती हैं, बल्कि उन विचारों के कठिन अनुप्रयोग से होती हैं जिनके बारे में कोई मानता है कि वे अलौकिक शक्तियों से आते हैं और इन तथाकथित पवित्र ग्रंथों या 'शास्त्रों' में निहित हैं। और जिसे आप अहंकार मानते हैं," विद्याधर ने आगे कहा, "वह असल में अहंकार नही है, मुझ पर, मेरे ज्ञान पर और अपने ज्ञान की व्याख्या करने और उसे क्रियान्वित करने की मेरी बुद्धिशक्ति पर पूर्ण विश्वास है। मैं अपने लक्ष्य के प्रति पूरी तरह से आश्वस्त हूं और मुझे पूरा यकीन है कि मैं इसे हासिल कर सकता हूं अगर मुझे इसके लिए योग्य व्यक्ति मिलें।"

"और मैं तुम्हें कैसे विश्वास दिलाऊं कि वह योग्य व्यक्ति में स्वयं हूं?" राजमाता ने आँखों में चमक लाते हुए पूछा क्योंकि उन्हें यह पुरुष पसंद आने लगा था।

"मेरे कुछ सवालों का उत्तर देकर.. " विद्याधर ने जवाब दिया

"सवाल पूछो," राजमाता ने कहा और इंतजार करने लगी। उन्होंने नाटकीय ढंग से अपनी ठुड्डी के नीचे एक हाथ रखा और अपने चेहरे पर जिज्ञासा के भाव धारण कर लिए। वह इस अहंकारी पुरुष के साथ मानसिक द्वंद्वयुद्ध करने के लिए तैयार थी।

"सच और झूठ में क्या अंतर है?"

"कोई अंतर नहीं है," उन्होंने तुरंत कहा, "वह परिणाम ही है जो सच और जूठ को परिभाषित करता है।" यह कोई मौलिक उत्तर न था... शास्त्रों में इस विषय पर विस्तृत लेखन किया जा चुका है

"शक्ति का सही अर्थ क्या है?"

"यह उन साधनों में से एक है जिसके द्वारा आप अपने लक्ष्यों को प्राप्त करते हैं। इसे प्रभावी ढंग से उपयोग करने के लिए व्यक्ति को इसका प्रतिरूपण करने में सक्षम होना चाहिए। उपयोग किए जाने पर शक्ति दिखाई देती है। मुख्य रूप से इसके उपयोग का खतरा इसे एक उपयोगी साधन बनाता है।

और मैं साधन शब्द पर जोर दे रही हूं, क्योंकि वही सब कुछ है - खुद को अभिव्यक्त करने और अपनी इच्छा थोपने का एक उपकरण। हम सभी के भीतर क्रूरता है, और जो चीज हमें एक दूसरे से अलग करती है,और यह वह है की हम किस हद तक इसे खुद को व्यक्त करने देते हैं।

एक शासक के रूप में यदि मैं इसका अत्यधिक उपयोग करती हूँ तो यह मुझे एक अत्याचारी भी बना सकता है। लेकिन मुझे उससे कोई फरक नही पड़ता, मुझे इसका उपयोग करना होगा फिर भले ही कुछ लोगों के लिए में अत्याचारी बन जाऊँ।"

काफी लंबा-चौड़ा उत्तर था.. राजमाता खुद अचंभित थी की यह सब उनके मन में त्वरित प्रकट कैसे हो रहा है!!

"अच्छे और बुरे में क्या अंतर है?" अगला प्रश्न आया

"कोई अंतर नहीं है," फिर से तुरंत जवाब आया, क्योंकि राजमाता ने स्वयं इस बारे में सोचा था और कुछ समय पहले एक उत्तर तैयार किया था, "यह व्याख्या का विषय है। एक व्यक्ति को मारना बुरा हो सकता है और एक हजार को मारना अच्छा हो सकता है। यह आपकी व्यक्तिगत सोच पर निर्भर करता है... अगर कहना चाहे तो कह सकते है की अंतर केवल दृष्टिकोण का है"

"क्या आप ऊपर वाले की शक्ति को मानते हैं?"

"हाँ, मानती हूँ... " दृढ़तापूर्वक राजमाता ने कहा

"तो अगर आपके गुरु आपसे कुछ न करने के लिए कहें क्योंकि ऊपरवाला नहीं चाहता की ऐसा हो, तो आप क्या करेंगे?"

"यह ऊपरवाले की इच्छा की उनकी व्याख्या होगी और यदि मेरी व्याख्या अलग है तो मैं जैसा चाहूँगी वैसा ही करूंगी।"

"तो फिर ऊपरवाले के क्रोध का क्या करेगी, जिसके बारे में ज्ञानी पुरुष कहते हैं कि यदि आप उसकी इच्छा का पालन नही करेंगे तो आप पर उनका कहर टूट पड़ेगा!!"

"मैंने काफी रीति रिवाजों का पालन नही किया है जिसके बारे में बताया गया था और चेतावनी भी दी गई थी की इसका परिणाम बहुत बुरा होगा और ऊपरवाला मुझे सज़ा देगा। पर देखो, में यहाँ तुम्हारे सामने खड़ी हूँ, चुस्त दुरस्त और एक राज्य की राजमाता...!!" मुसकुराते हुए राजमाता ने उत्तर दिया

वह अपनी बाहों को अपनी छाती पर रखकर खड़ा रहा और बोला "आप बुद्धिमान हैं और स्वतंत्रता से सोचने में सक्षम हैं। आप शिक्षित भी हैं और मुद्दों को निष्पक्षता से देखने में निपुण हैं। आपकी आँखों में देखकर मुझे यह सहज रूप से लगता है कि आप में दया भी है। आपके पास वह सारे महान गुण हैं जो एक काबिल शासक में होने चाहिए।"

"बस इतना ही...!!" राजमाता ने उसकी चुटकी लेते हुए कहा "मैंने कुछ प्रश्नों के उत्तर क्या दे दिए... तुम्हें मेरी योग्यता का विश्वास हो गया!!"

यह सुनते ही उस पुरुष केकठोर चेहरे पर मुस्कान की झलक दिखाई दी।

अपने हाथ जोड़कर, सिर झुकाकर उसने कहा "कृपया मुझे अपना गुरु बनने की अनुमति दीजिए ताकि मैं अपना लक्ष्य प्राप्त कर सकूं और अपने जीवन को अर्थपूर्ण बना सकूं।"

उस पुरुष के अहंकार से विनम्रता की ओर अचानक हुए इस बदलाव ने राजमाता को आश्चर्यचकित कर दिया। आखिर वह चाहता क्या था? उन्होंने सोचा। हालांकि उस पुरुष को पारदर्शी नजर में ईमानदारी झलक रही थी।

"ठीक है," राजमाता ने उत्तर दिया, "देखते हैं तुम क्या कर सकते हो। लेकिन अभी तुम महल के बाहर ही रहो। में सोच के बताऊँगी इस बारे में"

विद्याधर ने हाथ जोड़कर राजमाता को नमन किया और वहाँ से चल दिया...

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सुबह अपनी दिनचर्या निपटाकर राजमाता अपने कक्ष में विविध कसरत कर रही थी... वह हमेशा से कसरत करती ताकि उनकी योनि की मांसपेशियाँ ढीली ना पड़ जाएँ और पेट के इर्दगिर्द चर्बी का जमावड़ा ना हो। उनकी कसरत में तब बाधा आई जब उन्हे अपने कक्ष के बाहर हंगामा सुनाई दिया। प्रतीत हो रहा था कि विद्याधर ने तय कर लिया था कि अब राजमाता को प्रशिक्षित करने का समय आ गया था और उसने पहरेदारों से नजर बचाकर महल में घुसने का प्रयास किया था।

शारीरिक रूप से रोके जाने पर उसने संस्कृत में पहरेदारों को गालियां देना शुरू कर दिया था। इससे पहरेदार डर गए क्योंकि एक तपस्वी के श्राप से निश्चित रूप से हर कोई दर्ता था। सारे पहरेदार अपने मुख्य सैनिक की तलाश में यहाँ वहाँ दौड़ने लगे।

कुछ ही पलों में उनका मुखिया प्रकट हुआ... वह और कोई नहीं पर शक्तिसिंह था... उस पर इस तपस्वी की गालियों का कोई असर नही हुआ.. उसने एक पल में विध्यधार को कंधे से उचक लिया और धमकाकर चुप करा दिया... बलवान शक्तिसिंह की आग उबलती नजर को देखते ही विद्याधर के तोते उड़ गए। अब वह गालियां देने के बजाय डर के कारण जोर जोर से चीखने लगा...

राजमाता इस हंगामे से त्रस्त और परेशान हो गईं। बाहर आकर उन्हों ने शक्तिसिंह को चिल्लाते विद्याधर को छोड़ देने का आदेश दिया। फिर उन्हों ने अपने महल के पहरेदारों को बुलाया और उनसे कहा कि वे विद्याधर को पहचानें और उसे हर समय अंदर आने की अनुमति दें।

आने वाले सप्ताहों में, विद्याधर राजमाता का करीबी बन गया था। वह उन्हे मार्गदर्शन और सलाह देने, कानून पारित करने में मदद करने और निजी तौर पर एक-एक सत्र में उसे शासन करने की कला सिखाने के लिए हमेशा तैयार रहता था। किसी भी समय राजमाता को मिलने में कठिनाई न हो इसलिए उसे महल में निजी कक्ष भी दे दिया गया था।

एक दिन, ऐसा ही एक शिक्षण सत्र चल रहा था जो की कराधान पर केंद्रित था।
यह सत्र गहमा-गहमी हुई क्योंकि विद्याधर इस बात से चिढ़ गया था कि राजमाता को वह बात समझ में नहीं आ रही थी जो वह उन्हें सिखा रहे थे। मामला तब तूल पकड़ गया जब उसने पूछा, "कर बढ़ाए बिना मैं अच्छी तरह से राज्य का संचालन कैसे कर सकती हूँ?"

इससे वह क्रोधित हो गया, "क्या आप सुन नहीं रहे कि मैं क्या कह रहा हूं? क्या आप एक अच्छा शासक और राजवंश के संस्थापक बनना चाहती हो या सिर्फ एक छोटे से राज्य की राजमाता बनी रहना चाहती हो? मुझे बताओ, क्या आप ठीक से सीखना चाहते हो? यदि नहीं, तो बता दीजिए और मेरा समय बर्बाद करना बंद कीजिए।"

"उफ़," राजमाता ने हताशा में कहा, "तुम्हारा अपने गुस्से पर कोई नियंत्रण ही नहीं है। इतने प्रतिभाशाली व्यक्ति होकर भी तुम्हारी भावनात्मक स्थिरता दो साल के बच्चे जितनी है।"

राजमाता के व्यंग्य को पूरी तरह से नजरअंदाज करते हुए, उसने तीखेपन से कहा, "मैं आपके उत्तर की प्रतीक्षा कर रहा हूं।"

हताश राजमाता उसकी बात सुनना चाहती थी, उन्हों ने कहा, "हाँ, हाँ, मैं सुन रही हूँ, मुझे बताओ।"

अपना गुस्सा जाहिर करने के बाद उसने अधिक सौहार्दपूर्ण स्वर में कहा, "इसका निराकरण प्रसाशन का स्थानीयकरण करने में है। आप लोगों को यह तय करने दें कि वे छोटे स्थानीय स्तर पर क्या चाहते हैं। स्थानीय अधिकारियों को लोगों द्वारा चुना जाना चाहिए; चुने गए लोगों को जवाबदेह होने दें और शासक इन झमेलों से दूर ही रहे। आप एक बड़े क्षेत्र के लिये पर्यवेक्षकों को नियुक्त करते हो। उनके चुनाव में आप काफी सावधान रहें कि आप किसे नियुक्त करते हैं और सुनिश्चित करें कि वे स्थानीय राजनीति से दूर रहें। जैसे-जैसे आपका राज्य बढ़ेगा, यह और अधिक महत्वपूर्ण हो जाएगा। इन पर्यवेक्षकों को कभी भी अत्यधिक शक्तिशाली न होने दें। और अपनी सरकार की सबसे छोटी इकाई तक सीमित रखे। हमेशा याद रखें जहां लोग महसूस कर सकें कि वे अपने भाग्य को नियंत्रित करने के लिए सशक्त हैं। अपने करों का बड़ा हिस्सा स्थानीय रखें और सुनिश्चित करें कि लोग स्थानीय स्तर पर खर्च हो रहें पैसों का प्रभाव देख सकें।"

अपनी बात का विचारपूर्वक निष्कर्ष निकाल कर उसने कहा, "अच्छी सरकार प्रदान करने के लिए, अपना राजस्व बढ़ाने के कई तरीके हैं। कर बढ़ाना हर समस्या का हल नही होता।"

"अब काफी अभ्यास हो गया, मेरी राजमाता," विद्याधर ने कहा, और फिर वह नीचे की ओर खिसकते हुए राजमाता के करीब आया जहां वह मुलायम तकियों पर बैठी थी, "अब कुछ आनंद भी कर लिया जाए।"

विद्याधर ने एक झटके में, उनके घाघरे को ऊपर उठा दिया, उनकी जाँघों को अलग कर दिया और अपना चेहरा राजमाता की जांघों में छिपा दिया।

अचानक हुए इस हमले से राजमाता एकदम स्तब्ध रह गई. इतने सप्ताहों की इस रिश्ते में अब तक ऐसा कुछ भी नही हुआ था जो विद्याधर को ऐसा करने पर प्रेरित करें!!!

इससे पहले कि वह दूर हट पाती, या विरोध भी कर पाती, विद्याधर की जीभ राजमाता की योनि की परतों को कुरेदने लगी और उस अनुभूति ने राजमाता के मन को झकझोर को रख दिया। विद्याधर अपनी जीभ से चुत को टटोलने में काफी निपुण था।
 
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चिड़ियों की चहचहाट से जंगल की सुबह हो गई... सेवक सफाई में जुट गए थे और खानसामे सुबह का नाश्ता बनाने में... शक्तिसिंह अपने तंबू में खर्राटे मार कर सो रहा था... आधी रात तक राजमाता के भूखे भोंसड़े को पेलने के बाद वह सुबह चार बजे चुपके से अपने तंबू में लौटकर, चुदाई की थकान उतार रहा था...

शाही तंबूओ के बीचोंबीच सेवकों ने बड़ा सा मेज और कुर्सियाँ लगाई थी... महाराज और उनके परिवार के लिए विविध प्रकार के व्यंजन और फलों का इंतेजाम नाश्ते के लिए किया गया था...

राजमाता और महारानी काफी समय से मेज पर बैठे बैठे महाराज के आने का इंतज़ार करते रहे... अंत में थककर उन्होंने नाश्ता शुरू कर दिया.. थोड़ी देर बाद, महाराज लड़खड़ाती चाल से चलते हुए खाने के मेज तक आए... उनकी आँखें नशे के कारण लाल थी.. पर थकान की असली वजह तो केवल वह और चन्दा ही जानते थे...

"बड़ी देर कर दी आने में... ?" राजमाता ने सेब का टुकड़ा खाते हुए पूछा

"हाँ... रात को नींद आते काफी वक्त लग गया... इसी लिए जागने में थोड़ी देर हो गई.. "

"मुझे तो लगता है की इसका कारण तुम्हारा अधिक मात्रा में मदिरा सेवन ही है..." राजमाता ने ऋक्ष आवाज में कहा

"क्या माँ... आप हर बार यही बात क्यों निकालती है?" महाराज परेशान हो गए

"क्योंकी तुम्हारी ये आदत तुम्हारा स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचा रही है.. अब इस स्थिति में तुम शिकार करने कैसे जाओगे?"

इस बात को बदलने के उद्देश्य से महाराज ने प्रस्ताव रखा

"शिकार पर तो में जाऊंगा ही... में सोच रहा था, क्यों न आप और महारानी भी शिकार पर मेरे साथ चलें? अच्छा अनुभव रहेगा... "

"इस अवस्था में महारानी को ले जाना ठीक नहीं रहेगा..." राजमाता ने कहा

"तो फिर आप ही चलिए... एक बार देखेंगी तो विश्वास होगा की आपके बेटे का निशान कितना सटीक है.. "

राजमाता ने कुछ सोचकर कहा "ठीक है... में तुम्हारे साथ चलूँगी.. इससे पहले मुझे महारानी की देखभाल का प्रबंध करना होगा... तुम तैयार हो जाओ... जब निकलोगे तब में शामिल हो जाऊँगी.. " राजमाता मेज से उठकर अपने तंबू की ओर चल पड़ी।

राजमाता के शिकार पर जाने का प्रयोजन सुनकर महारानी की आँखों में चमक आ गई... वह धीरे से खाने के मेज से उठ खड़ी हुई और तंबुओं के पीछे ओजल हो गई... कुछ दूरी पर स्थित शक्तिसिंह के तंबू में वह दबे पाँव घुस गई... शक्तिसिंह घोड़े बेचकर सो रहा था... उसने शक्तिसिंह को जगाया...

"अरे महारानी आप फिरसे आ गई... !!" अपनी आँखों को हथेलियों से मलते हुए शक्तिसिंह ने कहा

"ध्यान से सुनो... मेरे पास ज्यादा वक्त नहीं है... आज महाराज के साथ राजमाता भी शिकार पर जा रही है... तुम कुछ बहाना बनाकर यहीं रुक जाओ... फिर शाम तक हमारे पास बहुत समय रहेगा... !!" उत्सुक महारानी ने कहा

"आप जानती है की क्या कह रही है? राजमाता ऐसा कदापि होने नहीं देगी... उन्हे जरा भी भनक लगी की में यहाँ रुक गया हूँ तो वह शिकार पर जाएगी ही नहीं... यदि जाएगी भी तो बीच रास्ते वापिस लौटकर हमें रंगेहाथों पकड़ लेगी... "

"तो फिर क्या किया जाए... इस तरह तो हम मिल ही नहीं पाएंगे... " महारानी उदास हो गई

"थोड़ी धीरज रखिए, कुछ ना कुछ रास्ता जरूर निकलेगा... हम जरूर मिल पाएंगे"

"पर कैसे? मुझसे अब और बर्दाश्त नहीं होता..."

शक्तिसिंह मौन रहा... उसके पास इसका कोई उत्तर या इलाज नहीं था...

"नहीं, हमे आज ही मिलना होगा... तुम बीमारी का बहाना बना लो... और सब के जाते ही मेरे तंबू में चले आना" व्याकुल महारानी ने अपनी जिद नहीं छोड़ी..

"यह मुमकिन नहीं है महारानी जी... बहुत खतरा है ऐसा करने में "

"तो तुम नहीं मानोगे... ठीक है... लगता है वक्त आ गया है की राजमाता को बता दिया जाएँ की कैसे तुम राजमहल में वापिस लौटकर भी मेरे जिस्म को नोचते रहे हो... साथ ही महाराज को भी इस बारे में सूचित कर देती हूँ..." महारानी ने अपना अंतिम हथियार आजमाया

"ये आप क्या कह रही है महारानी जी? ऐसा मत कीजिए, में हाथ जोड़ता हुए आपके" शक्तिसिंह के होश गुम हो गए.....

"तो फिर जैसा में कहती हूँ वैसा करो..."

"मुझे एक तरकीब सूझ रही है महारानी जी... में दस्ते के साथ शिकार पर जाऊंगा... मौका देखकर में वहाँ से गायब हो जाऊंगा.. पर वापिस यहाँ छावनी में आना मुमकिन न होगा... आप एक काम कीजिए... टहलने के बहाने आप दूर नदी के किनारे, जहां बीहड़ झाड़ियाँ है, वहाँ मेरा इंतज़ार कीजिए... में वहीं आप से मिलूँगा.."

महारानी आनंदित हो गई.. उनके चेहरे पर चमक आ गई..

"ठीक है... फिर यह तय रहा... में तुम्हें नदी के किनारे मिलूँगी... पर जल्दी आना.. मुझे ज्यादा इंतज़ार मत करवाना... "

"जी जरूर... अब आप यहाँ से जल्दी जाइए.. "

उछलते कदमों के साथ महारानी वापिस चली गई। शक्तिसिंह तुरंत बिस्तर से उठा और अपने दैनिक कामों से निपटकर, सैनिकों के साथ शिकार पर जाने की तैयारी करने लगा।

शिकार पर जाने के लिए महाराज का खेमा तैयार हो गया था... आगे दो हाथी पर महाराज और राजमाता बिराजमान थे... पीछे २५ घोड़ों पर सैनिक सवार थे जिसका नेतृत्व शक्तिसिंह कर रहा था... साथ ही करीब ५० सैनिक पैदल भाला लिए चल रहे थे। महाराज कअंगरक्षक चन्दा भी हाथी के बिल्कुल बगल में चल रही थी... कुछ सैनिक ढोल नगाड़े गले में लटकाए हुए थे.. जिसका उपयोग जानवारों को भड़काकर एक दिशा में एकत्रित करने के लिए किया जाता था। साथ ही साथ एक बग्गी भी थी जिसमे भोजन और अन्य जरूरी चीजें लदी हुई थी।

जंगल में चलते चलते एक घंटा हो गया था.. महाराज ने अब तक दो हिरनों को अपने बाण का शिकार बनाया था... अभी उन्हे किसी खूंखार जंगली जानवर की तलाश थी.. पैदल चल रहे सैनिक चारों दिशा में घूम रहे थे... कुछ सैनिक पेड़ पर चढ़कर जानवर को ढूंढकर खेमे को इत्तिला कर रहे थे...

इसी बीच शक्तिसिंह ने अपने घोड़े की गति कम करते हुए एक जगह स्थगित कर दिया... पूरा खेमा शिकार की तलाश में आगे निकल गए... जब उनके और शक्तिसिंह के बीच सुरक्षित दूरी बन गई तब उसने घोड़े का रुख मोड़ा और वह छावनी के पास नदी के तट की ओर चल पड़ा...

तेज दौड़ रहे घोड़े के साथ शक्तिसिंह का ह्रदय भी उछल रहा था... राजमहल में छुपकर महारानी से मिलना अलग बात थी... पर यहाँ जंगल में उन से मिलना खतरे से खाली नहीं था... किसी के देख लेने का खतरा तो कम था क्योंकी नदी का तट छावनी की विपरीत दिशा में था.. पर उसे भय यह था की अकेली महारानी का सामना किसी जंगली जानवर से ना हो जाए। इसी लिए वह दोगुनी तेजी से घोड़े को दौड़ाते हुए नदी की और जा रहा था।

नदी के तट पर पहुंचते ही शक्तिसिंह ने अपने घोड़े को रोका... उसे थोड़ा सा पानी पिलाया और नजदीक के पेड़ के साथ बांध दिया... उसे महारानी कहीं भी नजर नहीं आ रही थी... वो काफी देर तक यहाँ वहाँ ढूँढता रहा और आखिर थक कर वह एक पेड़ की छाँव में खड़ा हो गया...

अचानक पीछे से दो हाथों ने शक्तिसिंह को धर दबोचा... प्रतिक्रिया में शक्तिसिंह ने अपना बरछा निकाला और वार करने के लिए मुड़कर देखा तो वह महारानी थी... वह शक्तिसिंह का डरा हुआ मुंह देखकर खिलखिलाकर हँस रही थी... शक्तिसिंह की सांस में सांस आई... उसने बरछा वापिस म्यान में रख दिया।

"आपने तो मुझे डरा ही दिया महारानी जी... " गर्मी के कारण शक्तिसिंह के सिर पर पसीने की बूंदें जम गई थी

महारानी ने बिना कोई उत्तर दिए शक्तिसिंह को अपनी ओर खींचा और उसकी विशाल छाती में अपना चेहरा दबाते हुए उसे बाहुपाश में जकड़ लिया... शक्तिसिंह ने आसपास नजर दौड़ाई... के कोई देख ना रहा हो... फिर निश्चिंत होकर उसने महारानी को अपनी बाहों में भर लिया...

काफी देर इसी अवस्था में रहने के बाद महारानी ने अपना चेहरा उठाया और शक्तिसिंह को पागलों की तरह चूमना शुरू कर दिया... उनके हाथ शक्तिसिंह की बलिष्ठ भुजाओं को सहला रहे थे.. चूमते वक्त उनके कदम ऐसे डगमगा रहे थे जैसे संभोग के पहले गरम घोड़ी चहलकदमी कर रही हो। शक्तिसिंह भी इस गर्माहट भरे चुंबनों का योग्य उत्तर दे रहा था। उसने चूमते हुए महारानी की चोली में अपना हाथ घुसा दिया... और बड़ी नारंगी जैसे दोनों स्तनों को मसलने लगा। महारानी की निप्पल अब सख्त होकर ऐसा कोण बना रही थी की उनका आकार चोली के वस्त्र के ऊपर से भी नजर आने लगा था। स्तनों को सहलाने में सहूलियत हो जाए इस उद्देश्य से महारानी ने चुंबन जारी रखते हुए अपनी चोली खोल दी... शक्तिसिंह की हथेलियों से ढंके उनके दोनों पंछी मुक्त होकर खुले वातावरण का आनंद लेने लगे...

थोड़ी देर यूँ ही चूमते रहने के बाद महारानी ने शक्तिसिंह को अपने बाहुपाश से मुक्त किया... कमर से ऊपर नंगी खड़ी महारानी की अद्वितीय सुंदरता को आँखें भर कर देखता ही रहा शक्तिसिंह...!!

अब महारानी ने अपने घाघरे का नाड़ा खोलना शुरू ही किया था की शक्तिसिंह ने उनका हाथ पकड़कर रोक लिया...

"आप यह क्या कर रही है महारानी जी?"

"वही, जो यहाँ करने आए है... "

"मेरे कहने का यह अर्थ है की... बाकी सब तो ठीक था... पर इस अवस्था में योनिप्रवेश करने बिल्कुल भी ठीक नहीं होगा... लिंग के झटके से आने वाली संतान को नुकसान पहुँच सकता है"

यह सुन महारानी मुस्कुराई... और अपने पेट पर हाथ फेरने लगी... उसने शक्तिसिंह का हाथ पकड़ा और अपने पेट पर रख दिया...

"अंदर पनप रहे इस नन्हे जीव को महसूस करो... इसकी स्थापना तुम्हारे बीज और मेरे अंड से ही हुई है... कहने के लिए यह राजा की संतान होगी... पर हमारे लिए यह सदैव तुम्हारी संतान ही रहेगी... " बड़े ही वात्सल्य से शक्तिसिंह की हथेली को अपने पेट पर घुमाते हुए महारानी ने कहा

"और उसी संतान के स्वास्थ्य और सुरक्षा के लिए कह रहा हूँ... इस हालत में संभोग कर हम उसे जोखिम में नहीं डाल सकते"

"तो फिर क्या करूँ में इस नीचे लगी आग का? तुम ही कोई रास्ता निकालो" उदास महारानी ने कहा

"ऐसी स्थिति में तो कुछ हो नहीं सकता... आप अगर स्वयं भी खुदको आनंदित करने का प्रयास करेगी तो गर्भाशय के संकुचन के कारण शिशु को खतरा हो सकता है"

"एक तरीका है मेरे दिमाग में... जिससे मेरी आग भी बुझ जाएगी और गर्भस्थ शिशु को कोई नुकसान भी नहीं पहुंचेगा... " महारानी का उपजाऊ दिमाग किसी भी सूरत में अपनी हवस की आग मिटाना चाहता था

"कौन सा तरीका?" असमंजस में शक्तिसिंह ने पूछा

महारानी ने नाड़ा खोलकर अपना घाघरा गिरा दिया और पूर्णतः नंगी हो गई... प्रकृति के सानिध्य में, पंछियों की चहकने की और नदी के कलकल बहने की ध्वनि के बीच... इस अति सुंदर महारानी का नग्न रूप बड़ा ही दिव्य प्रतीत हो रहा था... कितना भी देख लो मन ही नहीं भरता था..

पास के एक घने पेड़ के थड़ पर अपने दोनों हाथ टिकाकर उन्होंने शक्तिसिंह की ओर अपनी गर्दन घुमाई और फिर अपनी गांड उचककर उसे इशारा किया...

महारानी की इस इशारे को शक्तिसिंह समझ ना पाया। अपने चूतड़ हाथों से फैलाकर जब संकेत दिया तब जाकर शक्तिसिंह के दिमाग की बत्ती जली और उसे झटका लगा...

"यह आप क्या कह रही है महारानी जी...?"

"अगर योनि-प्रवेश नहीं कर सकते तो पीछे से तो डाल ही सकते हो... समझ सकती हूँ की तुम एक योद्धा हो और पीछे से वार करने में नहीं मानते... पर यह कोई युद्ध नहीं है.. इस लिए मेरे प्यारे सैनिक... तैयार हो जाओ... और प्यास बुझा दो अपनी महारानी की.. " हँसते हुए महारानी ने कहा और वापिस अपने हाथ पेड़ पर रखकर अपनी गांड पेश कर दी...

शक्तिसिंह अभी भी सदमे में था... महारानी के दो गोल गोरे गोरे चूतड़ों को देखकर उसका मन तो बड़ा ही कर रहा था, पर दो कारण थे उसकी विडंबना के.. एक के उसने कभी किसी की गाँड़ नहीं मारी थी... और दूसरा के क्या महारानी उसके मूसल जैसे लंड को अपनी कोमल गाँड़ में ले पाएगी? वह अपना सिर खुजाता हुआ महारानी के उभरे नितंबों को ताकता रहा...

"क्या सोच रहे हो तुम... हमारे पास ज्यादा वक्त नहीं है... में नदी किनारे सैर करने के बहाने निकली हूँ... ज्यादा देर मेरी अनुपस्थिति रही तो सैनिक ढूंढते हुए आ जाएंगे... जल्दी करो" बेचैन होकर महारानी ने कहा... वासना की आग उनके जिस्म को अब तपा रही थी।

हिचकते हुए शक्तिसिंह महारानी के करीब आया... उनके मक्खन के गोलों जैसे नितंबों को सहलाते ही उसका लंड खड़ा हो गया... उन चूतड़ों को चौड़ा कर उसने महारानी के गुदा-द्वार के दर्शन किए... छोटा गुलाबी छेद देखकर शक्तिसिंह और भी डर गया... यह सोचकर की लंड घुसने पर उसकी क्या दशा होगी..!!

अपने हाथ महारानी के जिस्म के आगे की ओर ले जाकर वह उनके स्तनों को मींजने लगा... महारानी के बड़े गोल स्तनों की निप्पल अब सहवास की अपेक्षा से तनकर खड़ी हो गई थी... पेड़ के सहारे खड़ी महारानी ने अपने दोनों पैरों को थोड़ा सा और फैला लिया.. शक्तिसिंह ने दो चूतड़ों के बीच हाथ घुसेड़कर महारानी की चुत तक ले गया... योनिरस से लसलसित चुत में अपनी उंगली डालकर आगे पीछे किया... उसका उदेश्य यह था की जितना हो सके महारानी को उत्तेजित किया जाए... ताकि उन्हे दर्द कम हो... महारानी की हवस अब उबल रही थी... अपनी गीली उंगलियों को चुत से बाहर निकालकर उसने महारानी की गाँड़ में एक उंगली घुसा दी...

"ऊईई.. जरा धीरे से... " कराह उठी महारानी

शक्तिसिंह ने थोड़ी देर उस उंगली को अंदर बाहर करते हुए गाँड़ के छेद का मुआयना किया... चुत के मुकाबले यह छेद काफी कसा हुआ और तंग महसूस हुआ... और अंदर जरा सी भी आद्रता नहीं थी.. शक्तिसिंह ने उंगली बाहर निकालकर अपने मुंह से थोड़ी सी लार निकाली... और उंगली को गीला कर वापस अंदर डाला.. इस बार महारानी के दर्द की कोई प्रतिक्रिया न दिखी...

अब धीरे से अपनी दूसरी उंगली गांड में सरकाते हुए उसने दूसरे हाथ से महारानी के भगांकुर का हवाला ले लिया... एक हाथ की दो उँगलियाँ अब महारानी की गाँड़ को कुरेद रही थी और दूसरा हाथ उनकी क्लिटोरिस को रगड़ रहा था। महारानी अब ताव में आकर भारी साँसे ले रही थी.. हर सांस के साथ उनका पूरा शरीर ऊपर नीचे हो रहा था... भगांकुर के लगातार घर्षण से वह सिसकियाँ भरते हुए झड़ गई..

अब शक्तिसिंह ने अपनी धोती की गांठ खोल दी। उसका तना हुआ हथियार बाहर निकलकर, सामने दिख रहे शिकार का निरीक्षण करने लगा। काफी मात्रा में मुंह से लार निकालकर शक्तिसिंह ने अपने पूरे लंड को पोत दिया... लार से चिपचिपा होकर लंड काले नाग जैसा दिख रहा था...

शक्तिसिंह ने संतुलन स्थापित करने के उद्देश्य से अपनी दोनों टांगों को फैलाकर अपने लंड को महारानी की गाँड़ के बिल्कुल सामने जमा दिया। दोनों हथेलियों से उसने चूतड़ों को फैलाकर अपने टमाटर जैसे सुपाड़े को महारानी की गांड के प्रवेश द्वार पर लगा दिया। चिकना सुपाड़ा गांड के छेद को फैलाता हुआ थोड़ा सा अंदर गया.. उतना दर्द अपेक्षित था इसलिए महारानी की मुंह से कोई आवाज ना आई..

अब शक्तिसिंह ने महरानी के चूतड़ों को ओर जोर से फैलाया.. और लंड को थोड़ा और अंदर दबाया... अब महारानी थोड़ी अस्वस्थ होने लगी.. अब तक तो उन्होंने दासी की दो उंगलियों को ही अंदर लिया था... शक्तिसिंह का लंड उनकी कलाई के नाप का था.. चिकनाई के कारण लंड का चौथाई हिस्सा अंदर घुस गया... दर्द के बावजूद महारानी ने उफ्फ़ तक नहीं की... आज वो किसी भी तरह चुदना चाहती थी..

लंड को अब ज्यों का त्यों रखकर शक्तिसिंह ने महारानी के दोनों स्तनों को दबोच लिया... आटे की तरह गूँदते हुए वह उनकी धूँडियों को मसलने लगा.. महारानी के घने काले केश के नीचे छिपी सुराहीदार गर्दन को चूमकर उसने उनके कानों को हल्के से काट लिया...

महारानी थोड़ी सी पीछे की ओर आई ताकि शक्तिसिंह के बाकी के लंड को एक बार में अंदर ले सके.. पर सचेत शक्तिसिंह ने बड़ी सावधानी से खुदको भी थोड़ा सा पीछे कर लिया... महारानी के इरादे को भांपकर उसने थोड़ा सा ओर जोर लगाया और अपना आधा लंड उनकी गाँड़ में डाल दिया...

महारानी का दर्द अब काफी बढ़ गया.. उन्हे ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे कोई गरम सरिया उनकी गाँड़ में घुसा दिया गया हो... पूरा छेद जल रहा था... पर वह शक्तिसिंह को रोकना न चाहती थी.. वह धीरज धरकर अपने छेद को शक्तिसिंह के लंड की परिधि से अनुकूलित होने का इंतज़ार करने लगी... उन्होंने अपनी गर्दन को मोड़ा... और शक्तिसिंह ने उनके गुलाबी अधरों को चूम लिया...!!!
"
आधे से ज्यादा लंड को अंदर घुसाना शक्तिसिंह ने मुनासिब न समझा... उसने अपने लंड को थोड़ा सा बाहर खींच और फिर से अंदर घुसेड़ा..

"ऊई माँ..." महारानी चीख उठी...

"महारानी जी, दर्द हो रहा हो तो में बाहर निकाल लेता हूँ इसे..." डरे हुए शक्तिसिंह ने कहा

"नहीं नहीं... बाहर मत निकालना... पहली बार है तो थोड़ा दर्द तो होगा ही... थोड़ी देर में मैं अभ्यस्त हो जाऊँगी...!!"

शक्तिसिंह ने थोड़ी सी और लार लेकर लंड और गाँड़ के प्रतिच्छेदन पर मल दिया... महारानी का छेद फैलकर चूड़ी के आकार का बन गया था.. वह पसीने से तर हुई जा रही थी...

अब शक्तिसिंह ने हौले हौले लंड को अंदर बाहर करना शुरू किया... हर झटके पर महारानी की धीमी सिसकियाँ सुनाई दे रही थी... यह अनुभव शक्तिसिंह को बेहद अनोखा लगा... चुत के मुकाबले यह छेद काफी कसा हुआ था... और लंड को मुठ्ठी से भी ज्यादा शक्ति से जकड़ रखे था... इतना तनाव लंड पर महसूस होने पर शक्तिसिंह को बेहद आनंद आने लगा... अगर महारानी के दर्द का एहसास न होता तो वह हिंसक झटके लगाकर इस गाँड़ को चोद देता...

महारानी का लचीला गुलाबी छेद अपनी पूर्ण परिधि को हासिल कर चुका था... इससे ज्यादा फैलता तो चमड़ी फट जाती और खून निकल आता... थोड़ी देर आधे लंड से आगे पीछे करने के बाद... शक्तिसिंह ने एक जोर का झटका लगाया और पौना लंड धकेल दिया.. महारानी झटके के साथ उछल पड़ी... उनकी चीख गले में ही अटक गई... इतना लंड अंदर घुसाने के बाद शक्तिसिंह बिना हिले डुले थोड़ी देर तक खड़ा रहा ताकि महारानी के छेद को थोड़ा सा विश्राम मिले और वह इस छेदन के अनुकूलित हो सके..

अब उसने चूतड़ों को छोड़ दिया... दोनों जिस्म अब लंड के सहारे चिपक गए थे.. महारानी अपनी पीड़ा कम करने के हेतु से अपने दोनों स्तनों को क्रूरतापूर्वक मसल रही थी... शक्तिसिंह ने अपने हाथ को आगे ले जाकर महारानी की चुत में अंदर बाहर करना शुरू कर दिया। स्तन-मर्दन और चुत-घर्षण से उत्पन्न हुई उत्तेजना के कारण अब महारानी के गांड का दर्द कम हुआ..

"अब लगाओ धक्के... " महारानी ने फुसफुसाते हुए शक्तिसिंह से कहा

महारानी की जंघाओं को दोनों हाथों से पकड़कर शक्तिसिंह ने धीरे धीरे धक्के लगाने शुरू कर दिया... कसाव भरे इस छेद ने शक्तिसिंह को आनंद से सराबोर कर दिया... महारानी भी अपने जिस्म को बिना हिलाए उन झटकों को सह रही थी... दर्द कम हो गया था अब उन्हे आनंद की अपेक्षा थी..

अब शक्तिसिंह ताव में आकर धक्के लगाने में व्यस्त हो गया। महारानी को गांड में अजीब सी चुनचुनी महसूस होने लगी... अब धीरे धीरे उन्हे मज़ा आने लगा... हर झटके के साथ उनके चूतड़ थिरक रहे थे।

मध्याह्न का समय हो चुका था... सूरज बिल्कुल सर पर था.. नीचे दो नंगे जिस्म अप्राकृतिक चुदाई में जुटे हुए थे.. दोनों के शरीर पसीने से लथबथ हो गए थे.. महारानी का जिस्म गर्मी और चुदाई के कारण लाल हो गया था..

बेहद कसी हुई गांड ने शक्तिसिंह को ओर टिकने न दिया... लंड के चारों तरफ से महसूस होते दबाव ने शक्तिसिंह को शरण में आने पर मजबूर कर दिया.. उसके अंडकोश संकुचित होकर अपना सारा रस लंड की ओर धकेलने लगे... एक तेज झटका देकर शक्तिसिंह के लंड ने महारानी की गांड को अपने वीर्य से पल्लवित कर दिया... तीन चार जबरदस्त पिचकारी मारकर लंड ने अपना सारा गरम घी महारानी की गांड में उंडेल दिया।

गरम वीर्य का स्पर्श अंदर होते ही महारानी को बेहद अच्छा लगा... जैसे उनके घाव पर मरहम सा लग गया.. पर अभी वह स्खलित नहीं हुई थी... इसलिए अपने भगांकुर को बड़ी ही तीव्रता से रगड़ते जा रही थी। इस बात से बेखबर शक्तिसिंह ने अपने लंड को महारानी की गांड से सरकाकर बाहर निकाल लिया... जंग से लौटे सिपाही जैसे उसके हाल थे.. वह बगल में खड़ा होकर हांफ रहा था..

अपनी चुत को रगड़ते हुए महारानी उसके तरफ मुड़ी... और इशारा कर शक्तिसिंह को घास पर लेट जाने को कहा... शक्तिसिंह के लेटते ही वह अपनी टांगों को फैलाकर उसके मुंह पर सवार हो गई... महारानी की स्खलन की जरूरत को भांपते ही शक्तिसिंह की जीभ अपने काम पर लग गई और उस द्रवित चुत को चाटने लगी... चुत के भीतर के गुलाबी हिस्सों को शक्तिसिंह की जीभ कुरेद रही थी... महारानी की उंगली भी अपनी क्लिटोरिस को रगड़कर अपनी मंजिल को तलाश रही थी...

शक्तिसिंह के मुंह को चोदते हुए महारानी का शरीर अचानक लकड़ी की तरह सख्त होकर झटके खाने लगा... शक्तिसिंह के मुंह पर चुत रस का भरपूर मात्रा में जलाभिषेक हुआ... सिहरते हुए महारानी झड़ गई... और काफी देर तक उसी अवस्था में शक्तिसिंह के मुंह पर सवार रही। थोड़ी देर बाद वह धीरे से ढलकर शक्तिसिंह के बगल में घास पर ही लेट गई...

"वचन दो मुझे की मुझसे और मेरे गर्भ में पनप रही हमारी संतान से मिलने तुम आओगे..."

"जी महारानी जी.. "

थोड़ी देर के विश्राम के बाद दोनों की साँसे पूर्ववत हुई और वास्तविकता का एहसास हुआ... सब से पहले शक्तिसिंह उठ खड़ा हुआ और उसने अपने वस्त्र पहने... फिर आसपास गिरे घाघरे और चोली को समेटकर उसने महारानी को दिए.. प्रथम गाँड़ चुदाई से उभरती हुई महारानी भी धीरे से उठी और अपने वस्त्र पहन लिए।

शक्तिसिंह अपने घोड़े पर सवार हुआ.. और महारानी भी छावनी की तरफ चल दी।

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सूरज ढलने की कगार पर था और तभी क्षितिज पर महाराज का खेमा लौटता हुआ नजर आया.. उन्हे देखते ही छावनी में हलचल मच गई.. शिकार से वापिस आ रहे सैनिक काफी सुस्त नजर आ रहे थे... क्योंकी काफी गर्मी थी.. पर उनके चेहरे पर खुशी थी.. आज कुल मिलाकर उन्होंने २५ हिरण, २ तेंदुओ और १०० से ज्यादा खरगोशों का शिकार किया था... छावनी के बीच उन शिकार का जैसे ढेर सा बन गया... आज की दावत बड़ी ही खास होने वाली थी..

थकी हुई राजमाता लड़खड़ाती चाल से चलते अपने तंबू में चली गई... लग रहा था की पूरे दिन बाहर घूमने का परिश्रम उन्हे राज नहीं आया था... महाराज भी शराब की तलब को शांत करने अपने तंबू में लौट गए... सारे सैनिक सुस्ताकर यहाँ वहाँ ढेर होकर आराम करने लगे... उनमें शक्तिसिंह भी शामिल था... महारानी से मिलकर वापिस लौटते हुए उसने काफी दूर से जब महाराज के काफिले को देखा तब उनके पीछे न जाकर... दूसरे रास्ते से उनके काफी आगे निकल गया... जब वह काफिला बढ़ते बढ़ते आगे उससे मिला तब सबको यही प्रतीत हुआ की शक्तिसिंह काफी आगे निकल गए होने की वजह से दिख नहीं रहा था... किसी को भी कुछ शंका न हुई..

यहाँ राजमाता अपने तंबू में पहुंचते ही बिस्तर पर ढेर हो गई... पूरा दिन हाथी पर बैठे रहने से उनकी कमर अटक गई थी और बहुत दर्द कर रही थी... ऊपर से गर्मी ने भी उनकी हालत खराब कर दी थी... शिकार पर जाने का निर्णय करने पर वह अपने आप को ही कोसती रही। उन्होंने आवाज देकर अपनी दासी को बुलाया...

"जी राजमाता जी" सलाम करते हुए दासी ने कहा

"में दर्द से मरी जा रही हूँ.. थोड़ा सा गरम तेल ला और मेरी मालिश कर... हाय रे मेरी कमर" राजमाता दर्द से कराह रही थी

दासी थोड़ी ही देर में गरम तेल लेकर हाजिर हुई... राजमाता के बगल में बैठकर उनकी कमर पर मालिश करने लगी..

"आज खाना ठीक से खाया नहीं था क्या तूने?"

"जी भोजन तो मैंने दोपहर में ठीक से किया था"

"तो फिर हाथ का जोर लगा ठीक से... ये क्या हल्के हल्के सहला रही है...!! रात को सैनिकों के लंडों को तो बड़े जोर से मालिश करती है...लगा जोर ठीक से... मेरी कमर के तो जैसे टुकड़े टुकड़े हो गए हो ऐसा दर्द हो रहा है" अब वह दर्द से पागल हुई जा रही थी...

दासी शरमाते हुए दोनों हाथों से तेल मलने लगी.. पर उसके कोमल हाथों में वोह दम खम नहीं था जो राजमाता को चाहिए था... थोड़ी देर और मालिश के बाद राजमाता ने कहा

"तू छोड़ दे... ऐसे तो सुबह तक मालिश करेगी तब भी मेरा कुछ नहीं होगा... एक काम कर... जाकर शक्तिसिंह को संदेश दे की भोजन के बाद तुरंत यहाँ आ जाएँ"

"आप भोजन करने नहीं आएगी?"

"अरे मरी.. यहाँ दर्द से मेरी जान निकली जा रही है... और तुझे भोजन की चिंता है..!! तू जा अब और जो कहा है वो कर.. हाय में मर गई.. !!"

दासी तुरंत उठकर तंबू से बाहर चली गई और शक्तिसिंह को संदेश पहुंचाकर आई.. शक्तिसिंह भोजन निपटाकर तुरंत राजमाता के तंबू पर पहुंचा..

उसकी आशा के विपरीत, राजमाता बिस्तर पर लाश की तरह पड़ी थी.. रोज की तरह उसने तंबू के परदे को दोनों तरफ अंदर से गांठ मारकर बंद कर दिया ताकि कोई अंदर आ न जाए।

वह राजमाता के बिस्तर पर जाकर उनके पास बैठ गया और राजमाता की पीठ पर हाथ सहलाया।

"आज बड़ी जल्दी बुला लिया आपने? चलिए वस्त्र उतार दीजिए ताकि में आपको तृप्त कर सकूँ"

"कमीने, मेरी हालत तो देख...तुझे ठुकाई करने नहीं बुलाया है... मेरी कमर चूर चूर हो रही है... वहाँ गरम तेल पड़ा है उससे मेरी अच्छे से मालिश कर दे आज"

मुसकुराते हुए शक्तिसिंह ने तेल की कटोरी उठाई... और पेट के बल सो रही राजमाता के शरीर पर सवार हो गया। उनकी कमर पर तेल की धार गिराते हुए वह धीरे धीरे मालिश करने लगा... तेल की धार रिसकर उनके घाघरे में जा रही थी।

"राजमाता, अगर दिक्कत ना हो तो आपका घाघरा उतार दीजिए... सफेद रंग के वस्त्र तेल से खराब हो रहे है"

"अब तेरे सामने नंगा होने में मुझे भला कौन सी दिक्कत होगी!! ले मैंने गांठ खोल दी है... अब तू ही घाघरा खींचकर पैरों से निकाल दे... "

राजमाता ने अपने पेट को थोड़ा सा ऊपर किया और शक्तिसिंह ने बड़ी ही सफाई से घाघरा उतारकर नीचे रख दिया।

अब राजमाता के दो गोल ढले हुए चूतड़ों पर चढ़कर शक्तिसिंह अपने बलवान हाथों से मालिश करने लगा... राजमाता को बड़ी राहत मिल रही थी.. उसके प्रत्येक बार जोर लगाने पर वह कराह उठती... पीठ से लेकर चूतड़ों तक शक्तिसिंह जोर लगाते हुए चक्राकार हाथ घुमा रहा था.. राजमाता के मस्त कूल्हों को देखकर उसके मन में शरारती खयाल आया... चूतड़ों को फैलाकर उसने राजमाता की गांड के छेद पर तेल की धार गिराई...

"हाय रे... ये कहाँ तेल डाल रहा है तू!!"

"आप बस लेटी रहे... और देखें में कैसे आपकी सारी थकान दूर भगाता हूँ.. " राजमाता चुपचाप पड़ी रही

राजमाता की गाँड़ के बादामी घेरे वाले छेद पर तेल लगाकर वह उसके इर्दगिर्द उंगली घुमाने लगा... उंगली को थोड़ा सा दबाते छेद खुल जाता और तेल अंदर चला जाता। साथ ही साथ वह चूतड़ों को भी अपने भारी हाथों से मलकर मालिश किए जा रहा था। इस तगड़े मालिश से राजमाता को बड़ा ही आराम मिल रहा था... राहत मिलते ही उनकी आँख लग गई..

यहाँ शक्तिसिंह राजमाता के रसीले कूल्हों को और गाँड़ के छेद को देखकर उत्तेजित हो रहा था... मालिश के बीच रुककर उसने अपनी धोती उतार दी.. और वापिस राजमाता पर चढ़ गया.. अब उसका सारा ध्यान राजमाता के गाँड़ पर केंद्रित था.. दोपहर पहली बार कसी हुई गाँड़ का स्वाद चखकर उसे बड़ा मज़ा आया था.. असावधान राजमाता की गाँड़ देखकर उसकी आँखों में वासना के सांप लोटने लगे।

अब वह चूतड़ों को अलग कर उंगली पर काफी मात्रा में तेल लेकर राजमाता की गांड में धीरे धीरे सरकाने लगा। महारानी के मुकाबले राजमाता का छेद थोड़ा फैला हुआ था और उंगली भी तेल वाली थी इसलिए आसानी से अंदर चली गई... राजमाता की गांड के अंदर का मुलायम गरम स्पर्श महसूस करते ही शक्तिसिंह सिहर उठा... उसका लंड ताव में आकर राजमाता के घुटनों के ऊपर नगाड़े बजाने लगा...

राजमाता खर्राटे मार रही थी... इसलिए शक्तिसिंह को ओर प्रोत्साहन मिला... उसने अब दूसरी उंगली भी अंदर डाल दी.. राजमाता के खर्राटे अचानक बंद होने से शक्तिसिंह सावधान हो गया पर उनकी आँखें अभी भी बंद ही थी.. शक्तिसिंह ने दोनों उंगलियों को ज्यों का त्यों राजमाता की गांड में ही रहने दिया... कुछ पल के इंतज़ार के बाद खर्राटे फिर शुरू हो गए और शक्तिसिंह का काम भी...

दोनों उंगलियों को गांड में आगे पीछे करते हुए शक्तिसिंह और तेल डालता ही गया ताकि उनका छेद पूरी तरह से चिकना हो जाए... अधिक आसानी के लिए उसने धीरे से राजमाता की दोनों टांगों को बिस्तर पर फैला दिया... अब वह दोनों जांघों के बीच जा बैठा..

अब उसने अपनी योजना पर अमल करना शुरू किया... काफी सारा तेल लेकर वह अपने कड़े लंड पर मलने लगा.. उसका काल मूसल अब तेल से लसलसित हो चुका था.. अब एक हथेली से उसने राजमाता के कूल्हे को पकड़े रखा और हल्का सा जोर लगाकर अपना सुपाड़ा अंदर घुसेड़ दिया...

थकान के मारे लगभग बेहोश अवस्था में सो रही राजमाता की नींद अब भी नहीं खुली। शक्तिसिंह ने धीरे धीरे अपने लंड को अंदर सरकाना शुरू किया... आधे से ज्यादा लंड अंदर घुसाने पर भी जब राजमाता ने कोई हरकत न की तब उसने एक मजबूत झटका लगाते हुए पूरा लंड अंदर धकेल दिया...

राजमाता की नींद खुल गई.. उन्हे पता नहीं चल रहा था की आखिर क्या हो गया!! होश संभालते ही उन्हे ऐसा प्रतीत हुआ जैसे उनकी गांड में किसी ने जलती हुई मशाल घोंप दी हो!! शक्तिसिंह के शरीर के वज़न तले दबे होने के कारण वह ज्यादा हिल भी नहीं पा रही थी... मुड़कर देखने पर पता चला की शक्तिसिंह उनपर सवार था... फिर उन्हे अंदाजा लगाने में देर न लगी की आखिर उनकी गांड में क्या जल रहा था!!

"क्या कर रहा है कमीने? निकाल अपना लंड बाहर... " गुस्से में आकर राजमाता ने कहा

शक्तिसिंह आज अलग ही ताव में था.. राजमाता की मुलायम चौड़ी गांड का नशा उसके सर पर चढ़ चुका था.. इतने दिनों से राजमाता को चोदने के बाद वह इतना तो जान चुका था की उसकी थोड़ी बहुत मनमानी को सह लिया जाएगा...

"अपना शरीर ढीला छोड़ दीजिए राजमाता जी... फिर देखिए इसमें कैसा आनंद आता है.." उनके कानों में शक्तिसिंह फुसफुसाया

"कैसा आनंद? पीछे भी भला कोई डालता है क्या? पता नहीं कहाँ से ऐसी जानवरों वाली चुदाई सिख आया है"

"मेरा विश्वास कीजिए, आप अगर अपने पिछवाड़े की मांसपेशियों को थोड़ा सा शिथिल कर देगी तो जरा भी कष्ट न होगा और मज़ा भी आएगा"

"मुझे बिल्कुल भी मज़ा नहीं आ रहा है... पीछे जलन हो रही है... इतना मोटा लंड तूने अंदर घुसया कैसे यही पता नहीं चल पा रहा मुझे... "

शक्तिसिंह को लगा की बिना राजमाता को उत्तेजित किए वह उन्हे आगे का कार्यक्रम करने नहीं देगी... उसने उनकी जांघों के नीचे अपना हाथ सरकाया और उनके दाने को अपनी उंगलियों की हिरासत में ले लिया... उसे रगड़ते ही राजमाता सिहरने लगी..

"तुझे चुदासी चढ़ी ही थी तो पहले बता देता... में घूम जाती हूँ... फिर चाहे जितना मन हो आगे चोद ले.. "

"राजमाता जी, अब यह शुरू किया है तो खतम करने दीजिए... आपसे विनती है मेरी.. "

राजमाता मौन रहकर अपने दाने के घर्षण पर ध्यान केंद्रित करने लगी।

शक्तिसिंह धीरे धीरे धक्के लगा रहा था ताकि राजमाता कष्ट से उसे रोक न दे.. अब वह एक हाथ से राजमाता के भगांकुर को रगड़ रहा था और दूसरे हाथ से उनकी चुची... महारानी और राजमाता से इतनी बार चुदाई करके उसे यह ज्ञात हो गया था की स्त्री के कौनसे हिस्सों को छेड़ने से उनकी उत्तेजना तीव्र बन जाती है... उसने उनकी गर्दन के पिछले हिस्से को चाटना और चूमना भी शुरू कर दिया...

इन सारी हरकतों ने राजमाता को बेहद उत्तेजित कर दिया... और उस उत्तेजना ने गांड चुदाई के दर्द को भुला दिया.. वह सिसकियाँ भरते हुए अपने दाने के घर्षण, चुची के मर्दन और गर्दन पर चुंबन का तिहरा मज़ा ले रही थी।

भगांकुर को रगड़ते हुए अपनी उंगली राजमाता के भोसड़े में डालते हुए अंदर के गिलेपन का एहसास होते ही शक्तिसिंह को राहत हुई... अब उसे यह विश्वास हो गया की उसे यह अनोखी गाँड़ चुदाई बीच में रोकनी नहीं पड़ेगी...

अब शक्तिसिंह ने धक्कों की तीव्रता और गति दोनों बढ़ाई... राजमाता उफ्फ़ उफ्फ़ करती रही और वह उनके दाने को दबाकर चुत में उंगली घुसेड़ता रहा... अपने शरीर का पूरा भार रख देने के बाद भी उसका थोड़ा सा लंड का हिस्सा अभी भी बाहर था... राजमाता की गद्देदार गांड को वह बड़े मजे से चोदता रहा... चोदने के इस नए तरीके का ईजाद शक्तिसिंह को बेहद पसंद आया...

"अब बहोत हो गया... या तो तू झड़ जा या फिर मेरी गांड से लँड बाहर निकाल... " राजमाता कसमसाई

"बस अब बेहद करीब हूँ... मुझे मजधार में मत छोड़िएगा.. " हांफते हुए धक्के लगाते शक्तिसिंह ने कहा

राजमाता के भोसड़े से हाथ हटाकर अब वह दोनों स्तनों को मजबूती से मसलने लगा... शकतसिंह की जांघें और राजमाता के चूतड़ इस परिश्रम के कारण पसीने से तर हुए जा रहे थे...

"बस अब छोड़ मुझे... खतम कर इसे जल्दी... " राजमाता कराह रही थी...

शक्तिसिंह ने पिस्टन की तरह अपने लंड को राजमाता के इंजन की अंदर बाहर करना शुरू कर दिया... अंतिम कुछ धक्के देते हुए दहाड़कर शक्तिसिंह ने राजमाता की गांड अपने वीर्य से गीली कर दी... अपने पिछवाड़े में गरम तरल पदार्थ का स्पर्श राजमाता को भी अच्छा लगा... अंदर ज्यादा देर ना रुककर उसने अपना लंड बाहर निकाल लिया... राजमाता ने भी चैन की सांस ली और पलट गई... हांफते हुए शक्तिसिंह भी बगल में लेट गया..

"आज के बाद तू मेरी गांड से दूर ही रहना... " इस सदमे से राजमाता अभी उभरी नहीं थी...

"क्यों? आपको मज़ा नहीं आया?" मुसकुराते हुए शक्तिसिंह ने कहा

"खाक मज़ा... मेरी जान हलक में अटक गई थी.. "

"पहली बार में तो दर्द होता ही है ना... आगे करवाओ या पीछे.. "

"बात तो तेरी सही है.. मेरे पति ने जब पहली बार मुझसे संभोग किया था तब मुझे काफी रक्तस्त्राव हुआ था.. और दर्द की कोई सीमा न थी.. पर यह तो काफी अलग था... मैंने कभी अपने पीछे लेने की सोची न थी.. और बिना किसी अंदेशे के तूने अपना गधे जैसा लंड डाल दिया तो दर्द तो होगा ही ना!!

"पर अब दूसरी बार करेंगे तब दर्द नहीं होगा... बल्कि आप भी आनंद उठा पाएगी.. "

"तू दूसरी बार की बात कर ही मत... एक तो यहाँ पहले से पूरा जिस्म दर्द कर रहा था... ऊपर से तूने पीछे डालकर एक और अंग को दर्द दे दिया।"

"चिंता मत कीजिए राजमाता... इस संभोग से आपके पूरे शरीर में रक्तसंचार तेज हो गया है.. इसलिए अब जिस्मानी दर्द कम हो जाएगा"

"हम्म अब तू जा यहाँ से.. और मुझे विश्राम करने दे" राजमाता ने करवट लेटे हुए कहा

शक्तिसिंह ने अपने कपड़े पहने और मुस्कुराते हुए तंबू से बाहर निकल गया।

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उधर महाराज कमलसिंह के बिस्तर से उठकर चन्दा ने अपने कपड़े पहने... महाराज तो मरे हुए मुर्गे की तरह पड़े हुए थे.. पिछली रात चन्दा ने अपनी चुत की मजबूत मांसपेशियों में राजा के लंड को दबोच कर ऐसा मरोड़ा था की उनके लंड में मोच आ गई थी... उसके बाद उनका लंड पिचक कर बाहर निकल गया और चन्दा को अपने भगांकुर को मसलकर झड़ना पड़ा था.. महाराज के साथ चन्दा को जरा सी भी तृप्ति का एहसास नहीं होता था पर क्या करती..!! महाराज के हुकूम की अवहेलना भी तो नहीं कर सकती थी..

बचपन से ही तगड़े कदकाठी वाली चन्दा के दोस्त सारे लड़के ही रहे थे... लड़कियों वाले खेल उसने कभी खेले ही नहीं थे... जवान होने के बाद वह इतनी शक्तिशाली और बलिष्ठ बन गई थी की ना ही उसमें लड़कियों वाली नजाकत थी और ना ही छरहरा बदन... अमूमन कोई पुरुष उसमें ज्यादा दिलचस्पी नहीं लेता था... इसलिए वह काफी लंबे अरसे तक अनछुई ही रही थी.. ज्यादातर उसे हस्तहमैथुन से ही अपने आप को संतुष्ट करना पड़ता था..

आधे घंटे बाद नाश्ता करने महाराज और महारानी मेज पर बैठे थे तब दोनों के बीच साहजीक बातें हो रही थी... थोड़ी देर बाद लँगड़ाते हुए राजमाता आती दिखाई दी.. उनके चेहरे पर थकान की रेखाएं थी.. हर कदम चलने पर उन्हे दर्द होता प्रतीत हो रहा था।

"क्या हुआ माँ... आप ऐसे लँगड़ाते हुए क्यों चल रही है?" आश्चर्यसह महाराज ने पूछा

अब क्या बताती राजमाता? कल रात को शक्तिसिंह ने उनकी गांड के ऐसे तोते उड़ा दिए थे की एक कदम चलने में उन्हे भारी दर्द हो रहा था.. मन ही मन में शक्तिसिंह को कोसते हुए वह कराहकर कुर्सी पर बैठ गई।

"कल पूरा दिन हाथी पर बैठे बैठे कमर जकड़ गई थी... आदत नहीं है ना मुझे!! दो दिन मालिश करवाऊँगी तो ठीक हो जाएगा.." राजमाता ने उत्तर दिया

फिर उन्होंने महारानी की तरफ मुड़कर कहा

"दासियों ने मुझे सूचित किया की कल आप अकेले ही नदी किनारे सैर पर निकल गई थी?"

"जी वो कल अकेले बैठे बैठे ऊब सी गई थी... सोचा नदी के निर्मल जल को देखकर मन को थोड़ा सा प्रसन्न कर दूँ.."

"पर तुम्हारा ऐसे अकेले जंगल में घूमना ठीक नहीं है.. अब से तुम बिना किसी को साथ लिए कहीं नहीं जाओगी" कड़े सुर में राजमाता ने कहा

"जी नहीं जाऊँगी" आँखें झुकाकर महारानी ने उत्तर दिया

"और बेटा... आज नहीं जाओगे शिकार पर?" राजमाता ने कमलसिंह से पूछा

"नहीं माँ... मेरा भी शरीर आज दर्द कर रहा है... और गर्मी भी काफी हो रही है.. सोच रहा था की आज का दिन विश्राम ही कर लूँ" शरीर तो नहीं पर महाराज का लंड दर्द कर रहा था... पगलाई घोड़ी की तरह चन्दा ने कल उन पर ऐसी चढ़ाई कर दी थी की महाराज कुछ करने के काबिल बचे नहीं थे...

नाश्ता करने के बाद तीनों अपने तंबू की ओर लौट गए ।

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उस रात महाराज बड़ी ही बेचैनी से अपने तंबू में बैठे शराब पी रहे थे... रात का वक्त हो चला था और हवसी मन में इच्छाएं प्रकट होने लगी थी.. पर लंड अभी भी कल की चुदाई के दर्द से नहीं उभरा था... पिछली रात चन्दा ने अपनी फौलादी चुत से लंड को ऐसे निचोड़ा था की लंड को मोच सी आ गई थी... लिंग की मांसपेशियाँ दर्द कर रही थी... ऐसी बलवान जिस्म वाली स्त्री अगर लंड पर कूदेगी तो और क्या होगा!!

दर्द के बावजूद महाराज व्यग्र थे... उन्होंने चन्दा को आवाज लगाई... चंद तुरंत हाजिर हुई

"अरी चन्दा... कल तूने मेरे लंड के साथ क्या कर दिया?? सुबह से दर्द कर रहा है" महाराज के चेहरे पर दर्द की रेखाएं उभर आई

"जी मैंने तो वही किया जो हम पिछली दो रातों से करते आ रहे है.." भोली बनने का अभिनय करते हुए चन्दा ने कहा... जबकी उसे भलीभाँति मालूम था उसकी चुत की गिरफ्त में महाराज के लंड का यह हाल हुआ है।

महाराज ने चन्दा के सामने अपनी धोती खोल दी... अंदर सा उनका मरा हुआ लंड प्रकट हुआ... सूखी हुई भिंडी जैसा लंड देखकर चंद को मन में ही हंसी छूट गई।

"देख इसका हाल... अब तू है कर कुछ इलाज... "

"महाराज में कोई वैद्य तो हूँ नही जो इसका इलाज कर सकूँ... "

"जानता हूँ... पर इसे मुंह में लेकर चूस तो सकती है ना... "

सुनकर चन्दा का मुंह उतर गया... उसे लंड चूसना बिल्कुल पसंद नहीं था... घिन आती थी उसे... और कोई फौलादी तगड़ा लंड होता तो बात अलग थी.. यहाँ तो महाराज का मरे हुए चूहे जैसा लंड चूसना था...

"सोच क्या रही है!!! चल बैठ नीचे और चूसना शुरू कर दे... " कुर्सी पर बैठे महाराज ने अपनी टाँगे खोली

बेमन से झिझकते हुए चन्दा अपने घुटनों के बल, महाराज की कुर्सी के सामने बैठ गई.. महाराज के मुरझाए लंड को हाथ में लेकर थोड़ी देर खेलती रही.. लंड की चमड़ी को हल्का सा नीचे उतारते ही छोटे से कंचे जैसा महाराज का सुपाड़ा डरते हुए बाहर निकला... अब इस विचित्र जीव को कैसे मुंह में ले यही सोच रही थी चन्दा...

"क्या सोच रही है, मुंह में लेकर चूसना शुरू कर... "आदेशात्मक आवाज में महाराज ने कहा

अब चन्दा के पास चूसने के अलावा और कोई चारा न था... उसने मुंह बिगाड़कर महाराज के लंड के मुख को अपने होंठों से लगाए... उसके मोटे होंठों के बीच महाराज का मुरझाया लंड बीड़ी जैसा लग रहा था... वह उनके सुपाड़े को चूसना शुरू ही कर रही थी तब महाराज ने उसके सिर को अपने लंड पर दबा दिया... उनका पूरा लंड चन्दा के मुंह में चला गया...

महाराज की इस हरकत से चन्दा को बड़ा गुस्सा आया... फिर भी वह अपने मुंह को आगे पीछे करते हुए चूसती गई... करीब पाँच मिनट तक चूसने के बाद भी महाराज के लंड में जरा सी भी सख्ती नहीं आई...

"रुक जा... और अपनी छातियाँ खोल दे... " महाराज ने उसका सिर पकड़कर रोकते हुए कहा

चन्दा यंत्रवत खड़ी हो गई और अपना कवच निकालने लगी... भीतर पहना हुआ वस्त्र जो पसीने से गीला हो चला था... उसे भी उसने उतार दिया... भरे हुए मोटे साँवले बैंगन जैसे उसके दोनों स्तन यहाँ वहाँ झूलने लगे... उसकी दोनों निप्पल दबी हुई थी क्योंकी इस गतिवधि में उसे रत्तीभर भी उत्तेजना नसीब नही हुई थी।

महाराज उसके दोनों उरोजों को हथेलियों में भरकर मसलने लगे.. चन्दा को अपनी ओर खींचकर उसके स्तनों को चाटने और चूमने लगे... अपने एक हाथ को उन्होंने चन्दा की घाघरी के अंदर डाल दिया... उसकी लंगोट को सरकाकर चुत में उंगली करने का प्रयास करने लगे... चन्दा का पूरा योनिमार्ग सूखा और ऋक्ष था... फिर भी महाराज अपनी उंगली अंदर घुसेड़ने का प्रयास कर रहे थे जिससे चन्दा को हल्की सी पीड़ा का एहसास हो रहा था... वह चाहती थी की महाराज जल्द से जल्द निपट जाएँ ताकि उसका छुटकारा हो...

चन्दा के मजबूत शरीर की निकटता प्राप्त कर महाराज का लंड हरकत में आने लगा... पूर्णतः खड़ा तो नही हुआ पर उसमें सख्ती जरूर दिखने लगी थी.. महाराज भी यह देख खुश हुए और मन में राहत भी हुई की उनके लंड में अभी भी जान बची थी...

अब उन्होंने चन्दा को खींचकर वापिस नीचे बैठा दिया और अपना लंड उसके मुंह में फिर से दे दिया... जल्दी निपटारा चाहती चन्दा ने भी तेजी से अपना मुंह ऊपर नीचे करना शुरू कर दिया... पुरुषों की शरीर-रचना से परिचित चन्दा ने उनके टट्टों को पकड़कर हल्के से दबाया... और महाराज उसके मुंह में ही झड़ गए... उनके स्खलन से गिनकर तीन-चार बूंद वीर्य की निकली जिसका स्वाद मुंह में लगते ही चन्दा का स्वाद बिगड़ गया... ऐसे बेजान पानी जैसे अल्प मात्रा में निकलते वीर्य से आखिर महाराज ने महारानी को कैसे गर्भवती किया होगा, चन्दा सोचती रही...

अपने मुंह पर हाथ दबाकर वह खड़ी हो गई... और तंबू के कोने में जाकर उसने वह वीर्य थूक दिया... मुंह का स्वाद ठीक करने के लिए उसने पास पड़े मेज से शराब की सुराही उठाई और उसे सीधे अपने मुंह में उंडेल दिया... तीन-चार घूंट पीकर उसे कुछ अच्छा लगा.... स्खलन के बाद महाराज गहराई आँखों से कुर्सी पर अपना सिर टिकाए सुस्त पड़े थे... चन्दा ने घृणित नजर से महाराज को देखा, अपने वस्त्र पहने और वहाँ से चली गई...
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दूसरे दिन शिकार यात्रा का खेमा जंगल से सूरजगढ़ लौट आया...

एक दिन सब ने विश्राम करने में ही व्यतीत कर दीया.. उस दिन शाम के समय राजमाता अपने कक्ष में कुर्सी पर बैठे पुस्तक पढ़ रही थी तभी दासी ने आकार सूचित किया की उनसे मिलने दीवान जी आए थे। राजमाता ने तुरंत उन्हे अंदर बुलाने को कहा..

थोड़ी ही देर में, थुलथुले शरीर वाले दीवानजी अंदर पधारे... गले में मोतियों की माला और सिर पर सुनहरे रंग की पग़डी पहने दीवानजी की उम्र लगभग ५५ साल के करीब थी... राजमाता को सलाम कर वह उनके इशारे पर सामने रखी कुर्सी पर बैठ गए।

"कहिए दीवानजी, कैसे आना हुआ..?" राजमाता ने पूछा

"राजमाता जी, कल सुबह से दरबार की गतिविधियां आरंभ हो रही है... में चाहता हूँ की आप इस बार दरबार का संचालन करें... काफी सारे प्रश्न है जिनका समाधान ढूँढना है.. कर व्यवस्था में बदलाव करना है... राज्य की आय का ब्योरा भी करना है.. और सुरक्षा से लेकर भी काफी निर्णय करने है.. इस लिए आपकी मौजूदगी अनिवार्य है" दीवानजी ने बड़े ही अदब के साथ कहा

"पर ये रोजमर्रा की गतिविधियां तो महाराज को ही संभालनी चाहिए... तुम उनसे क्यों नही बात करते?"

राजमाता की बात सुनकर दीवानजी का मुंह उतर गया

"राजमाता जी, आपसे मिलने आने से पहले में उनसे ही मिलने गया था... वह प्रायः उनकी प्रवृत्तियों में काफी व्यस्त है और दरबार में पधार नही सकते.. इसलिए में यह दरख्वास्त आप के पास लेकर आया.. "

यह सुनकर राजमाता ने एक गहरी सांस ली.. अपने पुत्र को वह भलीभाँति जानती थी.. उसकी प्रवृत्तियाँ मतलब भोग-विलास और मदिरापान... ज्यादातर महत्वपूर्ण बातों को राजमाता ही संभालती आई थी.. इसलिए महाराज कमलसिंह का राज्य के कारभार में कुछ ज्यादा योगदान कभी नही रहा था... जब कमलसिंह युवा थे तब राजमाता सोचती थी की समय के साथ वह अपनी जिम्मेदारियों को निभाने में सक्षम बन जाएगा... पर वह तो किसी भी प्रकार की जवाबदेही से बचता ही रहता था... गनीमत थी की सूरजगढ़ में खेती और व्यापार काफी मात्रा में होता था इसलिए कर की आय से राज्य का खजाना कभी खाली नही रहता था... पर किसी भी राज्य के दिन-ब-दिन के प्रसाशन और व्यवस्थापन के काम का मुआयना करना अति-आवश्यक होता है...

राजमाता सोच में पड़ गई... इतना समय व्यतीत होने पर... और काफी बार समझाने के बावजूद महाराज कमलसिंह अपनी जिम्मेदारियों को गंभीरता से नही ले रहे थे... और अब कुछ ही समय में महाराज का उत्तराधिकारी भी आने वाला था... ऐसी सूरत में राज्य की स्थिरता बड़ी ही महत्वपूर्ण थी... राजमाता अब फिरसे राज्य की बागडोर को संभालने का निर्णय ले चुकी थी... पर उनके अकेले से यह जिम्मेदारी निभा पाना थोड़ा कठिन था..

काफी सोच-विचार के पश्चात, राजमाता ने उत्तर दिया

"ठीक है... आप तैयारी कीजिए.. कल दरबार का संचालन हम करेंगे"

दीवानजी यह सुनकर चिंता मुक्त हो गए... सारे मंत्री गण और दीवानजी खुद राजमाता की कुशलता के बारे में आश्वस्त थे.. दीवानजी ने कुर्सी से खड़े होकर राजमाता को सलामी दी... और उनके कक्ष से चले गए...

दूसरे दिन सुबह राजमाता की अगुवाई में दरबार की कार्यविधि को शुरू किया गया... राजमाता सिंहासन पर बिराजमान थी और उनके दोनों तरफ लगे आसनों पर सारे मंत्री, दीवानजी और सेनापति बैठे हुए थे...

एक के बाद एक समस्या और मसले पेश किए गए और राजमाता ने उन सबका त्वरित निराकरण भी कर दिया.. राजमाता की इस कुशलता के सारे मंत्रीगण कायल थे.. इसी कारणवश राजसभा में महाराज से ज्यादा राजमाता का रुतबा था।

इसी अवधि के दौरान एक भटकते हुए पुरुष ने राजमाता से मिलने की मांग की। आम नागरिकों के लिए राजमाता से मिलना और अपनी शिकायतें बताना बिल्कुल भी असामान्य नहीं था। वास्तव में उन्होंने इसका स्वागत किया और इसके लिए समय भी निश्चित कर दिया। लेकिन मुलाकात के पहले मिलने का उद्देश्य बताना आवश्यक रहता था ताकि अधिकारी राजमाता को मुलाकात की तैयारी में मदद करने के लिए पहले से ही प्रासंगिक जानकारी इकट्ठा कर सकें। राजमाता सभी की बातें विस्तार से सुनती थी और वास्तव में इन बैठकों को गंभीरता से लेती थी।

हालाँकि इस पुरुष ने मुलाकात का उद्देश्य बताने से इनकार कर दिया; सिवाय यह बताने के कि वह राजमाता की मदद करने के लिए यहां आया था और उससे अकेले में बात करेगा, किसी भी निम्न अधिकारी या मंत्री से नहीं। और इसलिए, निस्संदेह, अधिकारियों ने उसे राजमाता तक पहुंचने से वंचित रखा। अपने अहंकार के अलावा ऐसा नहीं लगता था कि उनके पास देने के लिए और कुछ है। वह लंबा, गौर वर्ण का आकर्षक और रहस्यमयी व्यक्तित्व का स्वामी था। उसका लंबा पतला शरीर और लंबा ललाट, उसके ज्ञानी और तपस्वी होने की पुष्टि कर रहा था। उसने बेदाग सफेद धोती पहन रखी थी, उनके नंगे धड़ पर रंगबिरंगी पत्थरों से बनी माला लटक रही थी। उसकी सारी सांसारिक संपत्ति कपड़े के एक छोटी सी गठरी में एकत्रित थी जो उसके दूसरे कंधे से लटक रही थी।

मुलाकात का अवसर ना मिलने पर वह हड़बड़ाकर वहाँ से चला गया और महल के द्वार के सामने डेरा लगाकर बैठ गया और इंतजार करने लगा। एक तपस्वी सदैव प्रतीक्षा कर सकता है क्योंकि उसकी इच्छाएँ और जरूरतें कम होती हैं। इस पुरुष के मामले में उन आवश्यकताओं की पूर्ति वहाँ से गुजरने वाले सामान्य लोगों द्वारा की जाती थी जो ऐसे तपस्वी ज्ञानी की सलाह और आशीर्वाद का सम्मान करते थे। आते जाते लोग भोजन और दैनिक जीवन के लिए आवश्यक अन्य वस्तुएँ छोड़ जाते थे।

कई दिनों के पश्चात राजमाता को इस दिव्य पुरुष के अस्तित्व के बारे में पता चला। फिर, जिज्ञासावश उसे मिलने की अनुमति देने के लिए प्रेरित किया। बुलावा भेजने पर सैनिक उसे लेकर हाजिर हुए। वह भावहीन चेहरे के साथ राजमाता के सामने खड़ा हो गया और इंतजार करने लगा। न कोई प्रणाम, न कोई अभिवादन, बस सिर्फ मूक दृष्टि!!!

आख़िरकार राजमाता ने कहा, "तुम मुझसे क्यों मिलना चाहते थे?"

"यह तय करने के लिए की क्या आप साम्राज्ञी बनने के लिए तैयार है या अभी भी केवल राजमाता ही बनी रहना चाहती है!!"

उस व्यक्ति के इस अत्यधिक अहंकार को देखकर दरबारियों में हंगामा मच गया और एक सैनिक तो उस पर हमला करने के लिए भी उठा, लेकिन राजमाता ने इशारे से उसे रोक दिया गया। इस व्यक्ति में राजमाता को रुचि जगी। शायद उसके पास अपने हास्यास्पद दावे का समर्थन करने के लिए कुछ था या शायद वह सिर्फ एक अहंकारी मूर्ख था। राजमाता ने सोचा, चलो पता लगाएं!!

"हम्म.. तो तुम्हारे आने का प्रयोजन तो पता चल गया... अब अपने बारे में भी तो कुछ बताओ"

"मेरा नाम विद्याधर है... और में विंध्य पर्वतों की तलहटी में बसे एक गाँव से आया हूँ"

"अच्छा विद्याधर, ये बताओ की यहाँ मेरे पास आना कैसे हुआ?" राजमाता को इस पुरुष में दिलचस्पी बढ़ने लगी

"में ज्ञानशीला नगर में शास्त्रों का अभ्यास कर रहा था... आए दिन कोई न कोई राजा उस नगर पर हमला कर देता और मेरे अभ्यास में बाधा पड़ती... तब मेरी रुचि इस भूगोल की राजनैतिक विषमताओ पर पड़ी.. यह प्रदेश कई राज्यों में बंटा हुआ है और सक्षम नेतृत्व के अभाव के कारण सारे राजा एक दूसरे से हमेशा लड़ते रहते है.. जरूरत है एक ऐसे सबल नेता की जो अपनी छाँव में सारे राज्यों को संभालकर एकता से जीना सीखा सके.. उन राजाओं के अहंकार और झूठी शान के खातिर सेंकड़ों सैनिकों की मृत्यु हो जाती है.. उनके परिवार अनाथ हो जाते है... आम जनता का जीवन भी व्याकुलता से भर जाता है... सक्षम राजाओं के लिए युद्ध अपना राज्य बढ़ाने का जरिया होगा पर आम प्रजाजनों का जीवन इससे नरक बन जाता है.. किसान खेती नही कर पाते, व्यापारी अपना उद्योग चला नही पाते... आवश्यक चीजें नही मिल पाती... महंगाई आसमान छु जाती है.. काफी गहन विचार के बाद में इस निष्कर्ष पर पहुंचा की अगर किसी सक्षम राज्य के नेतृत्व में अगर इन सारे कुनबों को ला दिया जाए तो इस खून खराबे का अंत हो जाएगा... प्रजाजन अपना जीवन खुशाली से व्यतीत कर पाएंगे... खेती और व्यापार बढ़ेगा तो सबका फायदा होगा!! काफी अध्ययन के बाद मुझे सूरजगढ़ की राजमाता में वह सारे गुण नजर आए जो में ढूंढ रहा था...में चाहता हूँ की आपके नेतृत्व में एक मजबूत साम्राज्य स्थापित किया जाए, फिर एक ऐसा राजवंश स्थापित होगा जो सैकड़ों वर्षों तक फैला रहेगा। मैं जानता हूं कि यह हमेशा के लिए नहीं रहेगा लेकिन यह मेरा उद्देश्य नहीं है। मेरा उद्देश्य, सबसे पहले और सबसे महत्वपूर्ण यही है की इस खूनखराबे और युद्धों को रोका जाएँ!!"

राजमाता इस पुरुष की असखलित वाक छटा से काफी प्रभावित होकर सुनती ही रही... !!!

"जैसे चाणक्य ने चन्द्रगुप्त को योग्य तालिम देकर एक सक्षम महाराजा बनाया था उसी तरह में आपको एक महान साम्राज्ञी बनने में आपकी सहायता करूंगा... और वो भी तब जब मुझे यह विश्वास हो जाएँ की आप इसके लिए योग्य हो!!"

उस पुरुष की बातें सुनते ही पूरी सभा आक्रोश से भर गई... यह टुच्चे आदमी की यह जुर्रत की वह राजमाता की योग्यता तय करेगा?? सेनापति अपने आसन से उठ खड़े हुए और उन्होंने अपनी तलवार निकाल ली। वह क्रोध से थरथर कांप रहे थे।

"राजमाता जी, आप आदेश करें तो एक पल में इस अहंकारी का सिर, धड़ से अलग कर दूँ"

राजमाता ने उत्तर नही दिया... वह इस तेजस्वी पुरुष की आँखों की चमक देखती रही... कुछ तो बात थी उसमें.. इतना विश्वास किसी इंसान में ऐसे ही नही प्रकट होता... किसी भी निर्णय पर पहुँचने से पहले राजमाता उसकी बात को विस्तारपूर्वक सुनना चाहती थी... उन्होंने इशारा कर सभा को बर्खास्त करने का आदेश दिया... थोड़ी ही देर में पूरा सभाखण्ड खाली हो गया... बच गए तो सिर्फ विद्याधर और राजमाता।

"अब बताओ," राजमाता ने कहा, अब वह दोनों अकेले थे, "मैं तुम्हें गंभीरता से क्यों लूं? अशिष्टता और दंभ के अलावा तुम्हारे पास ऐसा क्या है, जो मुझे विश्वास दिलाएगा कि तुम इस कार्य में मेरी मदद कर सकते हो?"

"मेरे पास ज्ञान है, और उस ज्ञान को व्यावहारिक उपयोग में लाने की बुद्धि है," उसने बड़े ही आत्मविश्वास के साथ कहा, "मैंने सभी शास्त्रों का सविस्तार पठन किया है। कई शक्षत्र तो मुझे कंठस्थ है। मैंने लगन से ऐसे गुरुओं की तलाश की है जो न केवल मुझे प्राचीन ग्रंथ या शास्त्र पढ़ाएं बल्कि उनके पीछे की सच्चाई भी समझाएं। मैंने सीखा है कि महान चीजें अलौकिक या परग्रहवासी प्राणियों के कृत्यों से हासिल नहीं की जाती हैं, बल्कि उन विचारों के कठिन अनुप्रयोग से होती हैं जिनके बारे में कोई मानता है कि वे अलौकिक शक्तियों से आते हैं और इन तथाकथित पवित्र ग्रंथों या 'शास्त्रों' में निहित हैं। और जिसे आप अहंकार मानते हैं," विद्याधर ने आगे कहा, "वह असल में अहंकार नही है, मुझ पर, मेरे ज्ञान पर और अपने ज्ञान की व्याख्या करने और उसे क्रियान्वित करने की मेरी बुद्धिशक्ति पर पूर्ण विश्वास है। मैं अपने लक्ष्य के प्रति पूरी तरह से आश्वस्त हूं और मुझे पूरा यकीन है कि मैं इसे हासिल कर सकता हूं अगर मुझे इसके लिए योग्य व्यक्ति मिलें।"

"और मैं तुम्हें कैसे विश्वास दिलाऊं कि वह योग्य व्यक्ति में स्वयं हूं?" राजमाता ने आँखों में चमक लाते हुए पूछा क्योंकि उन्हें यह पुरुष पसंद आने लगा था।

"मेरे कुछ सवालों का उत्तर देकर.. " विद्याधर ने जवाब दिया

"सवाल पूछो," राजमाता ने कहा और इंतजार करने लगी। उन्होंने नाटकीय ढंग से अपनी ठुड्डी के नीचे एक हाथ रखा और अपने चेहरे पर जिज्ञासा के भाव धारण कर लिए। वह इस अहंकारी पुरुष के साथ मानसिक द्वंद्वयुद्ध करने के लिए तैयार थी।

"सच और झूठ में क्या अंतर है?"

"कोई अंतर नहीं है," उन्होंने तुरंत कहा, "वह परिणाम ही है जो सच और जूठ को परिभाषित करता है।" यह कोई मौलिक उत्तर न था... शास्त्रों में इस विषय पर विस्तृत लेखन किया जा चुका है

"शक्ति का सही अर्थ क्या है?"

"यह उन साधनों में से एक है जिसके द्वारा आप अपने लक्ष्यों को प्राप्त करते हैं। इसे प्रभावी ढंग से उपयोग करने के लिए व्यक्ति को इसका प्रतिरूपण करने में सक्षम होना चाहिए। उपयोग किए जाने पर शक्ति दिखाई देती है। मुख्य रूप से इसके उपयोग का खतरा इसे एक उपयोगी साधन बनाता है।

और मैं साधन शब्द पर जोर दे रही हूं, क्योंकि वही सब कुछ है - खुद को अभिव्यक्त करने और अपनी इच्छा थोपने का एक उपकरण। हम सभी के भीतर क्रूरता है, और जो चीज हमें एक दूसरे से अलग करती है,और यह वह है की हम किस हद तक इसे खुद को व्यक्त करने देते हैं।

एक शासक के रूप में यदि मैं इसका अत्यधिक उपयोग करती हूँ तो यह मुझे एक अत्याचारी भी बना सकता है। लेकिन मुझे उससे कोई फरक नही पड़ता, मुझे इसका उपयोग करना होगा फिर भले ही कुछ लोगों के लिए में अत्याचारी बन जाऊँ।"

काफी लंबा-चौड़ा उत्तर था.. राजमाता खुद अचंभित थी की यह सब उनके मन में त्वरित प्रकट कैसे हो रहा है!!

"अच्छे और बुरे में क्या अंतर है?" अगला प्रश्न आया

"कोई अंतर नहीं है," फिर से तुरंत जवाब आया, क्योंकि राजमाता ने स्वयं इस बारे में सोचा था और कुछ समय पहले एक उत्तर तैयार किया था, "यह व्याख्या का विषय है। एक व्यक्ति को मारना बुरा हो सकता है और एक हजार को मारना अच्छा हो सकता है। यह आपकी व्यक्तिगत सोच पर निर्भर करता है... अगर कहना चाहे तो कह सकते है की अंतर केवल दृष्टिकोण का है"

"क्या आप ऊपर वाले की शक्ति को मानते हैं?"

"हाँ, मानती हूँ... " दृढ़तापूर्वक राजमाता ने कहा

"तो अगर आपके गुरु आपसे कुछ न करने के लिए कहें क्योंकि ऊपरवाला नहीं चाहता की ऐसा हो, तो आप क्या करेंगे?"

"यह ऊपरवाले की इच्छा की उनकी व्याख्या होगी और यदि मेरी व्याख्या अलग है तो मैं जैसा चाहूँगी वैसा ही करूंगी।"

"तो फिर ऊपरवाले के क्रोध का क्या करेगी, जिसके बारे में ज्ञानी पुरुष कहते हैं कि यदि आप उसकी इच्छा का पालन नही करेंगे तो आप पर उनका कहर टूट पड़ेगा!!"

"मैंने काफी रीति रिवाजों का पालन नही किया है जिसके बारे में बताया गया था और चेतावनी भी दी गई थी की इसका परिणाम बहुत बुरा होगा और ऊपरवाला मुझे सज़ा देगा। पर देखो, में यहाँ तुम्हारे सामने खड़ी हूँ, चुस्त दुरस्त और एक राज्य की राजमाता...!!" मुसकुराते हुए राजमाता ने उत्तर दिया

वह अपनी बाहों को अपनी छाती पर रखकर खड़ा रहा और बोला "आप बुद्धिमान हैं और स्वतंत्रता से सोचने में सक्षम हैं। आप शिक्षित भी हैं और मुद्दों को निष्पक्षता से देखने में निपुण हैं। आपकी आँखों में देखकर मुझे यह सहज रूप से लगता है कि आप में दया भी है। आपके पास वह सारे महान गुण हैं जो एक काबिल शासक में होने चाहिए।"

"बस इतना ही...!!" राजमाता ने उसकी चुटकी लेते हुए कहा "मैंने कुछ प्रश्नों के उत्तर क्या दे दिए... तुम्हें मेरी योग्यता का विश्वास हो गया!!"

यह सुनते ही उस पुरुष केकठोर चेहरे पर मुस्कान की झलक दिखाई दी।

अपने हाथ जोड़कर, सिर झुकाकर उसने कहा "कृपया मुझे अपना गुरु बनने की अनुमति दीजिए ताकि मैं अपना लक्ष्य प्राप्त कर सकूं और अपने जीवन को अर्थपूर्ण बना सकूं।"

उस पुरुष के अहंकार से विनम्रता की ओर अचानक हुए इस बदलाव ने राजमाता को आश्चर्यचकित कर दिया। आखिर वह चाहता क्या था? उन्होंने सोचा। हालांकि उस पुरुष को पारदर्शी नजर में ईमानदारी झलक रही थी।

"ठीक है," राजमाता ने उत्तर दिया, "देखते हैं तुम क्या कर सकते हो। लेकिन अभी तुम महल के बाहर ही रहो। में सोच के बताऊँगी इस बारे में"

विद्याधर ने हाथ जोड़कर राजमाता को नमन किया और वहाँ से चल दिया...

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सुबह अपनी दिनचर्या निपटाकर राजमाता अपने कक्ष में विविध कसरत कर रही थी... वह हमेशा से कसरत करती ताकि उनकी योनि की मांसपेशियाँ ढीली ना पड़ जाएँ और पेट के इर्दगिर्द चर्बी का जमावड़ा ना हो। उनकी कसरत में तब बाधा आई जब उन्हे अपने कक्ष के बाहर हंगामा सुनाई दिया। प्रतीत हो रहा था कि विद्याधर ने तय कर लिया था कि अब राजमाता को प्रशिक्षित करने का समय आ गया था और उसने पहरेदारों से नजर बचाकर महल में घुसने का प्रयास किया था।

शारीरिक रूप से रोके जाने पर उसने संस्कृत में पहरेदारों को गालियां देना शुरू कर दिया था। इससे पहरेदार डर गए क्योंकि एक तपस्वी के श्राप से निश्चित रूप से हर कोई दर्ता था। सारे पहरेदार अपने मुख्य सैनिक की तलाश में यहाँ वहाँ दौड़ने लगे।

कुछ ही पलों में उनका मुखिया प्रकट हुआ... वह और कोई नहीं पर शक्तिसिंह था... उस पर इस तपस्वी की गालियों का कोई असर नही हुआ.. उसने एक पल में विध्यधार को कंधे से उचक लिया और धमकाकर चुप करा दिया... बलवान शक्तिसिंह की आग उबलती नजर को देखते ही विद्याधर के तोते उड़ गए। अब वह गालियां देने के बजाय डर के कारण जोर जोर से चीखने लगा...

राजमाता इस हंगामे से त्रस्त और परेशान हो गईं। बाहर आकर उन्हों ने शक्तिसिंह को चिल्लाते विद्याधर को छोड़ देने का आदेश दिया। फिर उन्हों ने अपने महल के पहरेदारों को बुलाया और उनसे कहा कि वे विद्याधर को पहचानें और उसे हर समय अंदर आने की अनुमति दें।

आने वाले सप्ताहों में, विद्याधर राजमाता का करीबी बन गया था। वह उन्हे मार्गदर्शन और सलाह देने, कानून पारित करने में मदद करने और निजी तौर पर एक-एक सत्र में उसे शासन करने की कला सिखाने के लिए हमेशा तैयार रहता था। किसी भी समय राजमाता को मिलने में कठिनाई न हो इसलिए उसे महल में निजी कक्ष भी दे दिया गया था।

एक दिन, ऐसा ही एक शिक्षण सत्र चल रहा था जो की कराधान पर केंद्रित था।
यह सत्र गहमा-गहमी हुई क्योंकि विद्याधर इस बात से चिढ़ गया था कि राजमाता को वह बात समझ में नहीं आ रही थी जो वह उन्हें सिखा रहे थे। मामला तब तूल पकड़ गया जब उसने पूछा, "कर बढ़ाए बिना मैं अच्छी तरह से राज्य का संचालन कैसे कर सकती हूँ?"

इससे वह क्रोधित हो गया, "क्या आप सुन नहीं रहे कि मैं क्या कह रहा हूं? क्या आप एक अच्छा शासक और राजवंश के संस्थापक बनना चाहती हो या सिर्फ एक छोटे से राज्य की राजमाता बनी रहना चाहती हो? मुझे बताओ, क्या आप ठीक से सीखना चाहते हो? यदि नहीं, तो बता दीजिए और मेरा समय बर्बाद करना बंद कीजिए।"

"उफ़," राजमाता ने हताशा में कहा, "तुम्हारा अपने गुस्से पर कोई नियंत्रण ही नहीं है। इतने प्रतिभाशाली व्यक्ति होकर भी तुम्हारी भावनात्मक स्थिरता दो साल के बच्चे जितनी है।"

राजमाता के व्यंग्य को पूरी तरह से नजरअंदाज करते हुए, उसने तीखेपन से कहा, "मैं आपके उत्तर की प्रतीक्षा कर रहा हूं।"

हताश राजमाता उसकी बात सुनना चाहती थी, उन्हों ने कहा, "हाँ, हाँ, मैं सुन रही हूँ, मुझे बताओ।"

अपना गुस्सा जाहिर करने के बाद उसने अधिक सौहार्दपूर्ण स्वर में कहा, "इसका निराकरण प्रसाशन का स्थानीयकरण करने में है। आप लोगों को यह तय करने दें कि वे छोटे स्थानीय स्तर पर क्या चाहते हैं। स्थानीय अधिकारियों को लोगों द्वारा चुना जाना चाहिए; चुने गए लोगों को जवाबदेह होने दें और शासक इन झमेलों से दूर ही रहे। आप एक बड़े क्षेत्र के लिये पर्यवेक्षकों को नियुक्त करते हो। उनके चुनाव में आप काफी सावधान रहें कि आप किसे नियुक्त करते हैं और सुनिश्चित करें कि वे स्थानीय राजनीति से दूर रहें। जैसे-जैसे आपका राज्य बढ़ेगा, यह और अधिक महत्वपूर्ण हो जाएगा। इन पर्यवेक्षकों को कभी भी अत्यधिक शक्तिशाली न होने दें। और अपनी सरकार की सबसे छोटी इकाई तक सीमित रखे। हमेशा याद रखें जहां लोग महसूस कर सकें कि वे अपने भाग्य को नियंत्रित करने के लिए सशक्त हैं। अपने करों का बड़ा हिस्सा स्थानीय रखें और सुनिश्चित करें कि लोग स्थानीय स्तर पर खर्च हो रहें पैसों का प्रभाव देख सकें।"

अपनी बात का विचारपूर्वक निष्कर्ष निकाल कर उसने कहा, "अच्छी सरकार प्रदान करने के लिए, अपना राजस्व बढ़ाने के कई तरीके हैं। कर बढ़ाना हर समस्या का हल नही होता।"

"अब काफी अभ्यास हो गया, मेरी राजमाता," विद्याधर ने कहा, और फिर वह नीचे की ओर खिसकते हुए राजमाता के करीब आया जहां वह मुलायम तकियों पर बैठी थी, "अब कुछ आनंद भी कर लिया जाए।"

विद्याधर ने एक झटके में, उनके घाघरे को ऊपर उठा दिया, उनकी जाँघों को अलग कर दिया और अपना चेहरा राजमाता की जांघों में छिपा दिया।

अचानक हुए इस हमले से राजमाता एकदम स्तब्ध रह गई. इतने सप्ताहों की इस रिश्ते में अब तक ऐसा कुछ भी नही हुआ था जो विद्याधर को ऐसा करने पर प्रेरित करें!!!


इससे पहले कि वह दूर हट पाती, या विरोध भी कर पाती, विद्याधर की जीभ राजमाता की योनि की परतों को कुरेदने लगी और उस अनुभूति ने राजमाता के मन को झकझोर को रख दिया। विद्याधर अपनी जीभ से चुत को टटोलने में काफी निपुण था।
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प्रत्येक बार जब उसकी जीभ चलती, पर्याप्त मात्र में चुत के होंठों पर जोर लगता... वह राजमाता को उत्तेजित करने के लिए सही मात्रा में दबाव लगाता और वह भी बिल्कुल सटीक समय पर। वह जीभ चलाना तभी रोक देता जब उसे महसूस होता था कि राजमाता उत्तेजना के चरमोत्कर्ष पर पहुँच रही है... और जैसे ही राजमाता के स्खलन का उबाल नीचे बैठ जाता वह पुनः चाटना शुरू कर देता। यह बिल्कुल वैसे ही था जैसे चाय का उबाल ऊपर तक आ जाने पर आंच को धीमा कर दिया जाता है ताकि चाय पतीले से बाहर ना गिर जाए... जैसे ही उबाल नीचे बैठ जाता है, आंच को वापिस तेज कर दिया जाता है। विद्याधर की इस कला की राजमाता कायल हो गई।

पिछले कई सप्ताहों से वह अभ्यास में इतनी व्यस्त रही थी की शक्तिसिंह को भी भूल गई थी। मुश्किल से तीन चार बार रात को चुदवाया था। विद्याधर ने उनकी सोई हुई वासना को फिर से जागृत कर दिया जो उनके राजसी मुखौटे के नीचे हमेशा उबलती रहती थी। वह बस लेटी रही और यह भूल गई कि कौन उसके साथ ऐसा कर रहा था। उन्होंने उस अनुभूति का आनंद लेते हुए यह सोचा की इससे उत्पन्न होती जटिलताओं से बाद में निपटा जाएगा।

विद्याधर उनकी भगांकुर की ओर बढ़ा, उसे उसके चमड़ीरूपी छत्र में से जीभ से कुरेदते हुए छेड़ा। फिर उसने राजमाता की जाँघों को अलग किया और अपनी जीभ को उनकी योनि में आसानी से प्रवेश कराया, धीरे-धीरे इसे और अंदर तक ले गया।

लेटी हुई राजमाता ने महसूस किया कि उसकी जीभ से चुदाई कला में संगीत के राग जैसी उतार-चढ़ाव सी एक लयबद्धता थी। शक्तिसिंह की जंगली चुदाई से बिल्कुल ही अलग - यह सुसंस्कृत था और इतनी कुशलता से चुत चुसाई कर रहा था कि वह पहले से ही एक संभोग सुख की शुरुआत महसूस कर रही थी।

वह स्खलन के बेहद करीब पहुँच ही चुकी थी तभी... ठीक उसी क्षण, उसने अपना चेहरा उनकी चुत से हटा लिया और सीधे उसकी आँखों में देखते हुए कहा,

"शक्तिसिंह से बिल्कुल अलग लग रहा है, है ना?"

शक्तिसिंह का उल्लेख राजमाता के लिए इतना चौंकाने वाला और अप्रत्याशित था कि उनकी सांस गले में अटक गई और वह घबरा कर विद्याधर की ओर देखने लगी और अपनी खुली जांघें फड़फड़ाते हुए दूर जाने की कोशिश करते बोली , "क्या, क्या कहा तुमने?"

"चिंता मत कीजिए, मेरी राजमाता," उसने सांत्वना देते हुए कहा, "आपका रहस्य मेरे ह्रदय में सुरक्षित है," उसने राजमाता के घुटनों को मजबूती से पकड़ लिया और उन्हे दूर जाने से रोक लिया।

"आप बड़ी ही सावधानी से शक्तिसिंह के साथ खेल रही थी। मुझे इस बारे में केवल इसलिए पता चला क्योंकि आपके बारे में सब कुछ जानना मेरा काम है। और वैसे भी मुझे इस बारे में केवल संयोग से ही पता चला। वैसे आप दोनों नियमित रूप से नही मिलते है.. कभी अपने स्नेह का सार्वजनिक प्रदर्शन भी नही करते है.. उल्टा मैंने तो आपको शक्तिसिंह से बड़ी सख्ती से पेश आते ही देखा है.. कमाल का आयोजन है आप दोनों का!!

राजमाता ने विद्याधर की ओर देखा, उनका मुंह अभी भी सदमे के कारण खुला हुआ था। फिर उन्होंने तुरंत खुद को संभाला

"ठीक है, तो तुम यह बात जान गए हैं। तो उस ज्ञान के साथ तुम क्या करने वाले हो?" राजमाता के मन में इस युवक को कैसे नियंत्रित करके अपना गलत फायदा उठाने से रोकने की योजना बनने लगी थी।

विद्याधर ने राजमाता के एक पैर को अपने दोनों हाथों से धीरे से पकड़ लिया और उनके पैर की उंगलियों को चूमने लगा! उसने राजमाता की ओर देखा और कहा

"मेरी प्यारी राजमाता, मैं आपका सेवक हूं, आपका गुलाम हूं। आपके अस्तित्व से ही मेरे जीवन को अर्थ मिला है। इत्मीनान रखिए, मैं आपको कभी कोई नुकसान नहीं पहुंचा सकता।"

राजमाता हतप्रभ थी!! यह वही आदमी था जिसका अहंकारी स्वभाव उससे छोड़े ना छूटता था... अचानक से ऐसा पूर्ण परिवर्तन!! राजमाता विद्याधर की ओर देखकर उसके इस बदलाव को भांपने की कोशिश करने लगी।

किसी कारणवश पुरुष उनके प्रति आकर्षित हो जाते थे। इससे उनकी नज़रों में उन पुरुषों का कद कम या ज्यादा नहीं होता था और ना ही इससे कुछ अतिरिक्त फायदा मिलता था। पर इससे उन्हे सुरक्षा का भाव महसूस होता था। यह आश्वासन भी मिलता था की वह पुरुष अपना सब कुछ बलिदान करने के लिए हमेशा तैयार रहेंगे और कभी उन्हे किसी भी तरह चोट या नुकसान नही पहुचाएंगे। आख़िरकार, सुरक्षा की प्राथमिकता या यूँ कहें कि उसकी तलाश ही वह प्रेरक शक्ति थी जिसने जिसने राजमाता को हमेशा प्रेरित किया था। यह उसकी साम्राज्य निर्माण की महत्वाकांक्षा का सबसे बड़ा स्तंभ भी था।

लेकिन किसने सोचा होगा कि इस आत्मविश्वासी विद्याधर का हृदय इतना रसिक भी था! अपने सारे अहंकार, अपनी अशिष्टता, अपनी अहंकारी प्रलाप के बावजूद, वह एक रूमानी पुरुष था! या फिर शायद नही था और केवल प्रपंच कर रहा हो?

"जो भी हो," राजमाता ने सोचा "चलो देखते हैं कि ये कहाँ तक जाता है" विद्याधर की संगति में उन्हे अब पहले से कहीं अधिक आराम और आनंद महसूस हो रहा था।

विद्याधर ने राजमाता की चुत को फिर से चाटना शुरू कर दिया था। केवल अपनी जीभ का उपयोग करते हुए, धीरे-धीरे और लयबद्ध तरीके से, वह धीरे-धीरे उसे उबाल के बिंदु पर ला रहा था। उसके बाएँ हाथ को उनका बायाँ स्तन मिल गया। राजमाता ने उसकी सहूलियत की खातिर अपनी चोली उतार दी और अपने दोनों हाथों से अपने दाहिने स्तन को दबाना शुरू कर दिया, जबकि वह बारी-बारी से उसके बाएं निपल को भींचता रहा और उसके दूसरे स्तन को दबाता रहा। वह जोर से कराह उठी और अपने दोनों हाथों से उसके सिर को पकड़कर, उसके चेहरे पर अपने कूल्हों को उछालने लगी।

इस चटाई के दौरान विद्याधर आश्चर्यचकित होकर अपने सामने पड़े उस दिव्य हुस्न समान शरीर का सर्वेक्षण करने से रोक नही पाता था। पूरी तरह से सुडौल जांघें, घुँघराले काले बालों वाली झाड़ी अपने पीछे नरम, गुलाबी होंठों को छुपा रही थी और उनकी उत्तेजना के कारण रीस रहे तरल पदार्थ से चमक भी रहे थे। मदमस्त पेट और सुडौल कमर और उनके ऊपर वह दिव्य स्तन, जिनके गुलाबी निपल्स उत्तेजना से खड़े थे, और फिर वह चेहरा, जिसकी सुंदरता मजबूत पुरुषों के घुटने कमजोर बना देता था और कमजोर पुरुषों को लार टपकाने पर मजबूर कर देता था।

राजमाता के गुलाबी अधर खुले हुए थे, उनकी साँसें गहरी पर असमान थी और उनकी आँखें बंद थीं क्योंकि उसका मस्तिष्क अविश्वसनीय संवेदनाओं का स्वाद ले रहा था। विद्याधर के अचानक चुसाई रोक देने से उत्तेजना की कमी होने के कारण उन्होंने अपनी आँखें खोलीं तो पाया कि विद्याधर उसे आश्चर्य से देख रहा था।

राजमाता की नज़रों से नजर मिलते ही विद्याधर ने तुरंत योनि और भगांकुर पर अपनी जीभ से तथा उनके स्तनों पर हाथों से हमला शुरू कर दिया। राजमाता एक बार फिर अद्भुत अनुभूति के सागर में डूब गई। विद्याधर की जीभ ने अपना जादू चलाया और इस बार वह तब तक नहीं रुका जब तक कि राजमाता स्खलित नही हो गई। धीमी-धीमी कराहों की एक तेज आवाज ने उसके संभोग सुख की घोषणा कर दी हांफते हुए राजमाता ने चरमोत्कर्ष को प्राप्त किया। विद्याधर का पूरा चेहरा उनके योनि-रस से सन गया। राजमाता को ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे वह चरमसूख के इंद्रधनुष की सवारी अनंत काल तक करती रही और फिर धीरे-धीरे वास्तविकता की धरती पर उतर आई।

राजमाता के यौन जीवन का यह सबसे गहरा संतुष्टिदायक चरमोत्कर्षों में से एक था। उन्हे अपनी साँसों और इंद्रियों पर नियंत्रण पाने में थोड़ा समय लगा। उनके घुटने अभी भी स्खलन सुख के कारण कमज़ोर थे, इसलिए वह अपने स्थान पर ही लेटी रही।

जब उन्हों ने अपनी आँखें खोलीं, तो देखा की विद्याधर अभी भी उसी स्थिति में, उनके पैरों के बीच में, उनकी ओर देख रहा था, जैसे कोई वफादार कुत्ता अपनी जीभ लटकाकर कृतज्ञता से मालिक की ओर देखता है!!

“आपको मज़ा आया मेरी राजमाता?” यह सारे मर्द हमेशा ऐसा मूर्खतापूर्ण प्रश्न क्यों पूछते हैं? राजमाता ने शब्दों के स्थान पर संभोगसुख से लिप्त मुस्कान से उत्तर दिया।

"तुमने यह जादू कैसे किया? मेरे तो होश ही उड़ गए।" ऐसा नहीं था कि वह शारीरिक सुख से वंचित थी या संभोग सुख के लिए मरी जा रही थी!! अभी कुछ रात पहले ही शक्तिसिंह ने तीन बार अपना वीर्य उनकी चुत में स्खलित भी किया था। उनके मुँह में, चुत में और एक बार उनकी गांड में भी। शक्तिसिंह को अब राजमाता की गांड से बेहद प्यार हो गया था!

"यह तंत्र का जादू है," विद्याधर ने कहा, और तुरंत व्याख्याता की भूमिका में वापस आ गया, "मैंने तांत्रिक काम क्रीडा का गहन पठन किया है। अपनी यात्राओं में मैं ऐसे लोगों से मिला भी हूं जो सक्रिय रूप से इसका अभ्यास करते हैं। तंत्रविद्या के यौन पहलुओं को मुझे एक देवदासी ने सिखाया था जो तांत्रिक-संभोग की विषय में काफी ज्ञानी मानी जाती है। यह ज्ञान में आपको भी काफी आसानी से सिखा सकता हूँ।"

और फिर उसने अपना आध्यात्मिक स्वर खो दिया और अजीब चुप्पी के साथ राजमाता के सामने खड़ा हो गया। उनकी चकाचौंध कर देने वाली नग्न सुंदरता इस तांत्रिक तपस्वी को अपने मोह के गिरफ्त में लेने के लिए जरूरत से कहीं अधिक थी। विद्याधर के अंदर का कामुक पुरुष वापीस जाग उठा। उसने अपनी धोती उतार दी और अपनी पीठ के पीछे हाथ रखकर खड़ा हो गया। उसका तना हुआ लिंग राजमाता की नज़रों के सामने निकला हुआ था, उसकी लिंग बड़ी ही उम्मीद से राजमाता की गीली चुत को ताक रहा था।

राजमाता ने उसकी ओर देखा और मन ही मन मुस्कुराई। खड़े लंड को देखकर वह हमेशा उत्तेजित हो जाती थी। वह धीरे से उठकर विद्याधर की ओर आई और उसके लंड की नोक को गीले होंठों से घेर लिया और अपनी जीभ उसके लिंग के निचले हिस्से पर फेरने लगी।

अब कराहने की बारी विद्याधर की थी। उसने नीचे देखा और सुंदर राजमाता को अपने लंड को चूसते हुए देख वह अपना होश गंवा बैठा। अपने पूरे आत्मविश्वास के बावजूद उसने वास्तव में कभी नहीं सोचा था कि वह इस मुकाम तक पहुँच पाएगा।

यह सच था की वह इस राज्य की ओर इसलिए आकर्षित हुआ था क्योंकि उसने सोचा था कि वह इसका उपयोग युद्धों को रोकने के लिए कर सकता है। इसके अलावा राजमाता की सुंदरता की अफवाहें सुनकर उसके मन में उन्हे भोगने की तीव्र इच्छा भी जागृत हुई थी वह भी एक प्रमुख कारण था।

विद्याधर वाकई में एक बेहद कामुक व्यक्ति था। उसने पूरे मुल्क में शिक्षा पाने के उद्देश्य से यात्रा करते वक्त अनेक राज्यों में अपना जौहर दिखाया था, कथित तौर पर सेंकड़ों बांज महिलाओं को गर्भवती किया था। वह घूमता हुआ जिस राज्य में भी जाता उसके सरहद पर डेरा डालकर बैठ जाता.. तपस्वी होने के कारण लोग अपनी समस्याओं का समाधान पाने के उद्देश्य से उसके पास आते... उन में से वह छानकर उन महिलाओं को रात के समय अपने पास बुलाता... जो संतान-प्राप्ति की इच्छुक हो.. सारी महिलाओं को तो नही, पर उसकी पारखी नजर वासना पूर्ण स्त्रीऑ को बहाली भांति पहचान लेती.. उसकी काम-कला की ख्याति महिलाओं में फैलते ही सारी औरतें उस पर ऐसे मंडराती जैसे गुड पर मक्खियाँ!!!

उन महिलाओं से वह अपना लंड और अंडकोष धुलवाता और फिर वह गंदा पानी इकट्ठा कर उन्हे पीने को कहता! इसे वह संतान-प्राप्ति की विधि का हिस्सा बताता। फिर उन महिलाओं को वह जंगल में ले जाकर जमकर चोदता । उसने तो एक ही समय में तीन तीन को एक साथ चोदा था!

उन सभी औरतों के मुकाबले, राजमाता का सौन्दर्य स्वर्ग समान था... वह अलौकिक सौंदर्यवती उसका लंड चूस रही थी और यह एहसास उसे अभिभूत कर रहा था। राजमाता को पहली दफा देखते ही वह उनसे बेहद आकर्षित हो गया था... प्रश्न यह था की उनके करीब पहुंचा कैसे जाए!! ना ही उसके पास वह शारीरिक सौष्ठव था... ना ही धन और ना ही वह किसी राज्य का महाराज था... उसके पास थी तो बस विलक्षण बुद्धि और शहद टपकाती जीभ... जिस जीभ ने आजतक सेंकड़ों महिलाओं को अपने शब्दों की जाल में फँसाकर उनकी चुत को चाट रखा था..

उसी जीभ का सहारा लेकर वह राजमाता की चुत तक पहुँच चुका था। एक तरह से वह उनके प्यार में बेतहाशा पड़ चुका था ऐसा कहें तो भी अतिशयोक्ति नही होगी।

काफी मशक्कत के बाद आखिर वह क्षण आ ही गई जिसका उसे बेसब्री से इंतज़ार था। बड़े ही हल्के हाथों से उसने राजमाता का मुख अपने लंड से हटाया और उन्हे पीठ के बल लिटा दिया।अब वह उनके पैरों के बीच बैठ गया और अपने लंड को हाथ में लेकर उनकी योनी में डाल दिया।

धीरे से उसके लंड ने शहद टपकाते उन चुत के होठों को अलग कर दिया और बड़ी आसानी से राजमाता की गीली और चिपचिपी यौन-गुफा में उसका लंड समा गया। जब उस दिव्य-द्वार के अंदर और बाहर धक्के लगा रहा था तब उसने अपने शरीर का सारा वज़न अपने हाथों को जमीन पर टिकाकर संभाला हुआ था। अब भी अपने शरीर को राजमाता के शरीर पर डालने की उसकी हिम्मत नही हो रही थी।

निश्चित रूप से विद्याधर का लंड शक्तिसिंह के लिंग जितना बड़ा नहीं था, फिर भी उसके लिंग के अंदर और बाहर होने वाली हर हरकत ने उन्हे बहुत उत्तेजित कर दिया था। उन्होंने अपने हाथ लंबे किए और उसे अपने ऊपर खींचा। राजमाता के होंठ उसके होंठों से मिल गए और दोनों की जीभ एक दूसरे में उलझ सी गई। बस इतनी सी हरकत से विद्याधर की सहनशक्ति की सीमा का अंत आ गया। वह राजमाता की योनी में ज्वालामुखी की तरह स्खलित हो पड़ा और अपने गुनगुने वीर्य से पूरे योनिमार्ग को भर दिया!!!

और इसी के साथ राजमाता और विद्याधर के चुदाई के शानदार दिनों की शुरुआत हो गई। इस बात का शक्तिसिंह को भी इल्म था (क्योंकि राजमाता ने ही उसे बताया था) लेकिन इससे उसे कोई परेशानी न थी। उसे तो बस अपनी राजमाता को चोदने में दिलचस्पी थी! वह तो बस इतना चाहता था की राजमाता असहाय अवस्था में पेट के बल लेटी हो और वह बेदर्दी से उनकी गांड चोद दे... इतना मिलने पर वह खुश था। विद्याधर भी समय समय पर इस अप्सरा समान सौंदर्यवान शरीर को भोगकर तृप्त रहता था.. राजमाता और शक्तिसिंह के संबंध से उसे कोई फरक नही पड़ता था। वह उनके व्यक्तित्व और हुस्न के प्यार में पागल था और जब भी राजमाता उसे अपने ऊपर चढ़ने का संकेत तब वह वास्तव में आभारी महसूस करता था। राजमाता उसकी बुर चाटने की कला की कायल हो गई थी। जब भी वह अपनी चुत फैलाती तब विद्याधर अपने सम्पूर्ण कौशल से उस जिम्मेदारी को निभाकर उनके भोसड़े को पर्याप्त मात्रा में द्रवित करके ही दम लेता!

लेकिन जब भी वे संभोग में व्यस्त नही होते थे, तब उनका संबंध पुनः गुरु और शिष्या का बन जाता था। ऐसे ही एक दिन राजमाता, विद्याधर के साथ एक अभ्यास के संलग्न बहस में मशरूफ़ थे।

"युद्ध कभी अच्छाई बनाम बुराई का नहीं होता।" विद्याधर ने कहा, "वास्तव में अच्छाई बनाम बुराई जैसा कुछ नहीं है क्योंकि कौन जानता है कि पूर्णतया अच्छा क्या है और पूर्णतया बुरा क्या है। अच्छाई और बुराई सापेक्ष हैं और इसकी व्याख्या हर व्यक्ति के लिए अलग अलग होती हैं। इतिहास गँवाह है... हमने बुरे लोगों को अच्छे काम करते देखा है और अच्छे लोगों का बुरा करते हुए भी देखा है। यदि आप अपनी व्याख्या का पर्याप्त लोगों को यकीन दिला सकते हैं तो आपकी व्याख्या सत्य है।"

राजमाता इस भारी ज्ञान का संभाषण सुनते सुनते थक गई; उसने बहुत पहले ही अच्छी बनाम बुरी चीजों के विषय पर गहरा पठन कर लिया था, लेकिन एक बार ये विद्याधर बोलना शुरू कर देता था तो उसे कोई रोक नहीं सकता था।

उन्होंने विद्याधर के सामने एक मदहोश अंगड़ाई ली और फिर अपने घाघरे को दोनों हाथों से उठा लिया... एक पल में उन्होंने अपने अंतर्वस्त्र उतार दिए अपनी योनी को खुली हवा का आनंद लेने का अवसर दिया। विद्याधर पुस्तक में सिर झुकाए अपने भाषण में खोया हुआ और तभी राजमाता अपनी चुत के साथ उंगलियों से शरारत करने में जुट गई थी। उसकी बातों का राजमाता के तरफ से कोई उत्तर ना मिलने पर विद्याधर ने अपनी नजर किताब से ऊपर की और बाज की तरह पंख फैलाए राजमाता को देखकर वह स्तब्ध रह गया।

अब राजमाता ने अपने सारे कपड़े उतार दिए और नंगी होकर बिस्तर पर लेट गई। उन्होंने अपनी जाँघों को फैलाया और बिस्तर के किनारे पर खिसक गई और अपनी चुत को फैलाकर, विध्यधार को उसका छेदन करने के लिए आमंत्रित करने लगी।

किताब को फेंककर वह जल्दी से राजमाता की ओर आगे बढ़ा। वह उनकी झांटेदार चुत के सामने घुटनों के बल बैठ गया और उनकी गोरी मांसल जाँघों को और भी फैलाकर उसकी जीभ उस झाड़ी में छिपी चुत पर प्यार से फिरने लगी। धीरे-धीरे उसने अपनी जीभ को राजमाता की पनियाई चुत में अंदर बाहर चलाना शुरू कर दिया।

विद्याधर की जीभ का जादू फिर से चल पड़ा। राजमाता एक बार फिर उस अविश्वसनीय अनुभूति के आगे पस्त हो गई और अपनी आँखें बंद करके दूसरी दुनिया की यात्रा पर निकल। विद्याधर ने फिर से अपनी कला का उपयोग किया और उसकी जीभ ने वासना और पूर्ति के बीच सही संतुलन पैदा किया।

राजमाता के भगांकुर को गुदगुदाते हुए, उनकी योनि की परतों को छेड़कर, वह बड़े ही साहसपूर्वक उनकी चुत में अपनी लपलपाती जीभ को धकेलता गया। पर आज राजमाता को कुछ तो अलग महसूस हो रहा था। विद्याधर की जीभ हिलाने के अलावा उसके बाकी शरीर की हलचल को भी वह महसूस कर पा रही थी।

उन्होंने अपनी आँखें खोलीं और देखा कि विद्याधर ने अपने सारे कपड़े (मुख्य रूप से अपनी धोती) उतार दिए थे और अपनी जीभ उनकी चुत में डाले हुए वह अपने हाथ से हस्तमैथुन भी कर रहा था। इस समय वह ऐसा दिख रहा था जैसे कोई तरुण युवक ने प्रथम बार अपने गुप्तांगों को सहलाकर आनंद करना सीखा हो!!!

विद्याधर की इस दिलचस्प हरकत को थोड़ी देर देखने के बाद वह फिरसे उसकी चुत चुसाई के आनंद की शरण में लौट गई और अपनी आँखें बंद कर चरमोत्कर्ष की प्रतीक्षा करने लगी। थोड़ी ही देर में स्खलन की प्रखरता ऐसे टकराई जैसे लहरे किनारे से टकराती है... एक बार फिर शानदार और मन को झकझोर देने वाला चरमोत्कर्ष प्राप्त कर राजमाता धन्य हो गई।

राजमाता ने आँखें खोली और पाया कि विद्याधर अभी भी अपने लंड को पागलों की तरह हिलाने में व्यस्त था। वह सहसा बीच में रुक गया और खड़ा हो गया। अपने पैर चौड़े कर वह तीव्र गति से अपना लंड हिलाने लगा और फिर एक झटके में स्खलित हो गया... उसके लंड की पिचकारी राजमाता के स्तनों और पेट पर हर जगह फैल गई और फिर जब उसे लगा कि वीर्य का बहाव ख़त्म हो रहा है तब उसने अपना लंड राजमाता की चुत में डाल दिया और आखिरी कुछ झटके उनकी गीली चुत में लगा दिए।

उनकी चुत में उसका लंड अभी भी सख्ती से गड़ा हुआ था। विद्याधर के वीर्य और उनके योनि-रस के चिपचिपे मिश्रण में लंड अंदर बाहर फिसल रहा था। राजमाता के विशाल स्तनों के सुडौल रूप को देख उसके सिर पर वासना फिर से हावी हो गई। वह बस राजमाता की चुत को रौंदना चाहता था।

विद्याधर का तंत्र का सारा ज्ञान तथा उसकी सुसंस्कृतता सब ख़त्म हो गईं!! अब वह बस एक मर्द था जो बेरहमी से अपने नीचे लेटी स्त्री को जमकर चोदना चाहता था ताकि फिरसे परमसुख को प्राप्त कर सके। जिस चुत के वो सपने देखता था उस चुत में उसका लंड लिपटा हुआ था और यह एहसास उसके अंदर-बाहर होते लिंग को और सख्त कर रहा था। अब उसके दिमाग में केवल एक ही विचार था - अपने बीज को राजमाता की चुत में भीतर तक स्थापित करना। निःसंदेह ऐसा करने से राजमाता गर्भवती नहीं होने वाली थीं क्योंकी वह काफी समय से गर्भ-निरोध की जड़ी-बूटियों का सेवन कर रही थी... जो उनके गर्भाशय को बंजर बनाए रखती थीं। वरना अब तक शक्तिसिंह ने उन्हे कब का गर्भवती बना दिया होता..

विद्याधर ने राजमाता की चुत में भीतर तक धक्के लगाने के उद्देश्य से उनके पैरों को और अधिक फैला दिया। हर धक्के के साथ उसके झांट महारानी की घुँघराले काले झांटों से उलझते जा रहे थे। उसके कामुक धक्को ने राजमाता को उत्तेजना की प्रखर सीमा पर पहुंचा दिया। वे दोनों एक ही समय पर झड़ गए।

राजमाता नाजुक कराहों के साथ सिसकते हुए झड़ रही थी.. विद्याधर के साथ हुआ हर स्खलन, पिछले स्खलन से बेहतर होता जा रहा था।

यह सिलसिला चलता गया... उनके मुलाकात के सत्रों के दौरान वह अभ्यास और चुदाई के बीच अदला बदली करते रहते थे..
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एक दिन बातचीत की शुरुआत विद्याधर से हुई, हमेशा की तरह, उसने एक सवाल पूछा

"दक्षिण में स्कन्ध पर्वत, सर्वकोशल और झालरगढ़ क्षेत्र हैं जहां प्राचीन आदिवासी लोग रहते हैं जिन्हें नोक कहा जाता है। मान लीजिए आप अपना साम्राज्य फैलाते हुए उनके प्रदेश तक पहुँच जाती है... पर वह नोक आदिवासी आपके राज्य से जुड़ना नही चाहते। ऐसी स्थिति में आप क्या करेंगे उनके साथ?"

"मैं उन्हें अपने हाल पर ही छोड़ दूंगी," राजमाता ने तुरंत कहा, "मैं उनके आसपास के सारे क्षेत्रों को जीत लूंगी पर उन्हें शांति से जीने दूंगी।"

"गलत जवाब," विद्याधर ने कहा।

विद्याधर का यह उत्तर सुन राजमाता उलझन में लग रही थी और इसलिए उन्होंने स्पष्ट किया, "आपको उनकी जमीन पर कब्ज़ा करना होगा। वह जमीन खनिज और सुवर्ण से समृद्ध है और नोक आदिवासी बेहद मेहनती लोग हैं। उन्हें खेती और मवेशी पालने वाले समुदायों में संगठित किया जा सकता है। इसके अलावा, वे खूंखार लड़ाकू कोम हैं जो आधुनिक हथियारों पर भरोसा नहीं करते बल्कि अपने परंपरागत शस्त्रों से अपने दुश्मन की आत्मा पर वार कर उन्हे ध्वस्त कर देते है। सही समय पर उन्हें किसी बेखबर दुश्मन पर छोड़ दिया जाए तो उनकी सेना शक्तिशाली हथियार का रूप धारण कर सकती है।"

"तो फिर ऐसे खूंखार लड़ाकू समुदाय पर में कैसे विजय प्राप्त कर सकती हूँ?"

"उन्हे अपना दोस्त बनाकर... "

"तुम मुझे उलझा रहे हो विद्याधर... में आखिर उन्हे अपना दोस्त कैसे बनाऊ?"

"आप उन्हें परेशान करने के लिए भाड़े के सैनिकों को काम पर लगा दे, और फिर आप अपनी सेना के साथ कूच करते हुए उन भाड़े के सैनिकों को कुचल दे। पैसों के लिए काम करते सैनिकों कमी नही है, उनका इंतेजाम बड़ी आसानी से हो सकता है। मैं इसकी व्यवस्था करूंगा। फिर उन सैनिकों से आप नोक समुदाय की रक्षा करेगी और वह आपके मित्र बन जाएंगे.. ! देखा कितना आसान है!!"

थोड़ा सा विचार कर विद्याधर ने कहा, "उस समुदाय की महिलाएं गजब की होती हैं। लंबा कद, लंबी टाँगे, गेहुआ रंग...सूडोल बदन और तो और उनमें संभोग की अविश्वसनीय भूख भी होती है।नोक आदिवासी महिला के चार या पांच तथाकथित पति होना कोई असामान्य बात नहीं है। सदियों से राजाओ द्वारा उनका अपहरण कर लिया जाता रहा है और उन्हें सर्वश्रेष्ठ दासियां बना दिया जाता है।"

"और अब आप के लिए कुछ ऐसा पेश करने जा रहा हूँ जो आपको अचरज में डुबो देगा.."

उसने बड़ी ही उत्साह से दरवाज़ा खोला और एक आदमी और औरत के जोड़े ने अंदर प्रवेश किया। पुरुष के पास टेबल की जोड़ी थी और उस महिला के पास वीणा थी। उस महिला ने सबसे पहले राजमाता का ध्यान अपनी ओर खींचा। उसकी मदहोश नशीली लचकदार चाल ही थी जिसने राजमाता को बेहद आकर्षित किया। लंबे कद और लंबी टांगों वाली वह महिला, किसी शास्त्रीय नर्तकी की लयबद्ध सुंदरता के साथ चलती हुई आई। उसके हर कदम के साथ पैरों में पहने घुँघरूओ की खनक उस खंड में गूंजने लगी थी।

वह दूध की तरह गोरी थी और उसकी काली आँखें झुकी हुई थीं जिससे पता चलता था कि वह हिमालय के क्षेत्र से थी। लेकिन उस क्षेत्र के मूल निवासियों जैसी चपटी नाक के विपरीत उसकी नाक लंबी और तीखी थी। वह पुरुष मजबूत कदकाठी वाले पहाड़ी पुरुषों जैसा ही था।

बैठने से पहले वह पुरुष और महिला ने सिर झुकाकर और हाथ जोड़कर राजमाता को प्रणाम किया। वह पुरुष ने तबले की जोड़ को योग्य स्थान पर जमाया और थाप देकर तबले की ताल को समायोजित करने लगा। वह महिला वीणा के तने के नीचे पैर मोड़कर बैठ गई और उसके वीणा के तारों को झनकारने लगी।

विद्याधर चुपचाप उस ओर चला गया जहाँ राजमाता बिस्तर पर लेटी हुई थी और उनकी बगल में बैठ गया। राजमाता ने पूछा, "ये लोग कौन हैं और वह क्या तत्व है जो मुझे आश्चर्य में डुबो देगा?"

संगीत वाद्ययंत्रों के शोर के बीच विद्याधर उनके कान में फुसफुसाया, "यह दोनों तंत्र में विशेषज्ञ हैं। विशेष रूप से तांत्रिक संभोग में उनकी निपुणता है," राजमाता की ओर अर्थपूर्ण ढंग से मुसकुराते हुए वह बोला।

राजमाता को यह विशेषता बड़ी खास लगी.. । हालांकि अभी उस जोड़े को देखकर कुछ खास प्रतीत नही हो रहा था। वह दोनों अपने वाद्य यंत्रों को नियंत्रित करने में व्यस्त थे। उनकी हरकतों में यौन-संबंधों के संलग्न कुछ भी नजर नही या रहा था।

राजमाता ने विद्याधर से पूछा, "क्या यह दोनों पति-पत्नी है?"

"यह तो मुझे नहीं पता," विद्याधर ने कहा, " हो सकता है की पति-पत्नी हो या फिर भाई-बहन भी हो सकते हैं। हकीकत कोई नहीं जानता। पर यह दोनों बहुत ही विवेकशील है और उनकी सेवा प्राप्त करने के लिए बड़ा महंगा मोल चुकाना पड़ता है। उनकी असलियत जानने से हमे कोई फरक नही पड़ेगा.. पर यकीन मानिए, इन दोनों के बारे में मैंने जो सुना है उसके मुताबिक, आपकी हर खर्ची हुई मुद्रा का पूरा लाभ देंगे।"

राजमाता ने अपना ध्यान वापस उस जोड़े की ओर लगाया। वाद्य यंत्रों का संरेखण ख़त्म हो चुका था. अब वह स्त्री वीणा के तारों को लयबद्ध तरीके से छेड़े जा रही थी। वह आदमी चुपचाप बैठा उसकी ओर देखता रहा।

धीरे-धीरे वीणा के मधुर स्वर में एक ठुमरी की शुरुआत की गई, जिसे राजमाता पहचान गई। शास्त्रीय संगीत में पारंगत होने के बावजूद भी वह राग को पहचान नही पा रही थी।

राजमाता की मनोदशा को भांपकर विद्याधर उनके कान में फुसफुसाया, "यह ऐसे संगीत सुर और राग है जिसे आपने पहले कभी नहीं सुना है। इसे अपनी इंद्रियों पर हावी होने दें और अपनी चेतना को उस पर केंद्रित करें तभी आप इसका पूर्ण आनद ले पाएंगे। आप को महसूस होगा कि आप जितना इन सुरों को सुनेंगे उतना अंदर डूबते जाएंगे। इन्हे सुनते हुए संभोग व यौन रति क्रीडा पर ध्यान केंद्रित करें और आप इतने उत्तेजित हो जाएंगे कि यदि आप संभोग करते हुए इस संगीत को सुनेंगे तो आप हर छोटी अनुभूति को बढ़ा हुआ महसूस करेंगे, हर छोटी भावना इतनी मजबूत होगी कि जब आप तृप्ति और चरमोत्कर्ष पर पहुंचेंगे तब ऐसा दिव्य अनुभव होगा जो इस सृष्टि के किसी मानव ने नही महसूस किया होगा!"

इस समय राजमाता के मन में संभोग संबंधित कोई विचार नही था। पर पूरे वातावरण में उन्हे कुछ अजीब सी कमी खल रही थी। उनका मन ऐसी कल्पना करने लगा की कहीं से शक्तिसिंह अचानक प्रकट हो जाए और अपने नग्न लंड को उनके सामने प्रदर्शीत करें... लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ, उस खंड का महोल काफी ठंडा और निष्क्रिय लग रहा था।

उनके सामने था तो बस वह विद्याधर और वह भी अपने नंगे लंड का प्रदर्शन नहीं कर रहा था बल्कि उनकी बगल में आँखें बंद कर के बैठा था और जाहिर तौर पर संगीत के सुरों पर अपना ध्यान केंद्रित कर रहा था।

आखिर राजमाता ने विद्याधर की बात का अनुसरण करने का फैसला किया। उन्होंने अपनी आँखें बंद कर लीं और वीणा की ध्वनि को अपनी इंद्रियों पर हावी होने दिया।

संगीत के उस जादू का असर देखने के लिए राजमाता ने अपने मन में ही एक पीपल के पेड़ पर ध्यान केंद्रित करने का फैसला किया। कोई साधारण पीपल का पेड़ नहीं बल्कि वह पीपल का पेड़ जो उन्हों ने अमरकंटक में देखा था, जहां पवित्र नदी नर्मदा का उद्गम होता था। उन्होंने कभी-कभी इस कल्पना का उपयोग अपने योगिक अभ्यास और प्राणायाम के एक भाग के रूप में किया था।

राजमाता ने अदृश्य रूप से अपने मन को पेड़ के उपर पहुंचते हुए पाया। पेड़ ने अपना एक अलग चरित्र धारण कर लिया था। पेड़ की पत्तियाँ हवा में कांप रही थीं और साथ साथ जन्म, मृत्यु और पुनर्जनन की कहानी को चरितार्थ कर रही थी। उस पेड़ के शक्तिशाली तने पर जीवनदायी रस का रिसाव होते देख सकती थी; वह पृथ्वी की प्रचुरता का स्वाद चखने वाली और पानी के छोटे-छोटे तालाबों में चुस्कियाँ लेने वाली एक जड़ का खोजी हुआ अंकुरण अंत बन गई। उस पेड़ के एक पत्ते के झड़ने पर भी उसका दर्द राजमाता महसूस कर रही थी... पेड़ की शाखों के लहराने पर वह प्रसन्नता और पूर्णता के एहसास को प्राप्त कर रही थी... मानो उन्हे जीवन का अर्थ और अपने अस्तित्व का उद्देश्य हासिल हो गया हो!!!!!
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और तभी उनकी एकाग्रता का भंग हुआ. अचानक संगीत बंद हो गया था। राजमाता ने अपनी आँखें खोलीं और पाया कि विद्याधर अपने चेहरे पर मुस्कान के साथ उन्हे देख रहा था

"मैंने कहा था न आपसे, यह बड़ा ही शक्तिशाली संगीत है, इसे सुनते ही ऐसा प्रतीत होता है मानों वह सुर नेतृत्व कर रहे हो और आप उसका अनुसरण कर रहे है। इनके श्रवण से आपका मस्तिष्क अपनी बेड़ियों से मुक्त हो जाता है। अब इस खुले हुए मस्तिष्क से आप उन सभी चीजों का अनुभव करने का प्रयास करें जो आपका भौतिक मन अनुभव करने में सक्षम है। कुछ तपस्वी इसे अवस्था को दर्द या हठयोग के माध्यम से भी हासिल करते हैं। यह एक ऐसी अनोखी दिव्य अवस्था है जिसे प्राप्त करना हर किसी के बस की बात नही है!! व्यक्तिगत रूप से मेरा यह मानना है की संगीत के माध्यम से भी वही हासिल किया जा सकता है जैसा आपने अभी अनुभव किया है। और इस अवस्था को प्राप्त करने का दूसरा मार्ग है उच्च कोटी के संभोग द्वारा हासिल किया गया चरमोत्कर्ष"

विद्याधर ने इस विषय पर थोड़ी ओर रोशनी डाली

"जब उत्तेजना को एक निश्चित सीमा तक प्रखरता पर ले जाया जाए, तो दर्द या संगीत से पैदा होती अनुभूतियों के समान परिणाम उत्पन्न हो सकते हैं। और यही तो कामसूत्र का सही अर्थ है। यह पुस्तक केवल यह नहीं बताती है कि कैसे चोदना है, बल्कि अपने आपको कैसे ऊपर उठाकर उस स्तर पर लाएं की आप संभोग के माध्यम से उच्च चेतना की ओर का सफर तय कर सकें। यहीं कामसूत्र पुस्तक की असली सिख है"

विद्याधर ने आगे कहा, "मुझे आपकी आत्मा और आध्यात्मिकता को उच्च अस्तित्व तक ले जाने में कोई दिलचस्पी नहीं है, बल्कि मैं आपको उस क्रिया का चरम आनंद लेने के लिए आपके दिमाग को तैयार करना चाहता हूँ, जिस क्रिया से आपको बेहद लगाव है - संभोग!!!"

अब उस पुरुष ने तबले पर थाप देना शुरू कर दिया - हल्के लम्बे तबले पर थाप की एक व्यापक ध्वनि, बड़े ही लयबद्ध से विराम और संपर्क का समन्वय व संकलन कर रही थी।

वह महिला अब खड़ी हुई और अपनी साड़ी को चारों ओर से व्यवस्थित किया। पहली बार राजमाता ने अच्छी तरह उसकी ओर देखा। उनके आगमन के बाद ऊपर ऊपर से निरीक्षण के बाद उन्हों ने वास्तव में उसकी ओर नहीं देखा था। अब महिला ने अपनी ओर राजमाता का ध्यान आकर्षित किया।

उसने सुनहरे पट्टे वाली चमकीले नीले रंग की रेशमी साड़ी पहनी थी। उस साड़ी को अपने पैरों से इस तरह कलात्मकता से लपेटकर पहना हुआ था जिससे की नृत्य करने और चलने में कोई तकलीफ ना हो। शास्त्रीय नर्तकियों की तरह उसकी काली आँखों को आकर्षक रूप से उजागर किया गया था। उसके लंबे काले बाल छोटी चमेली कलियों के गजरों से गूंथे हुए थे और उसकी चोटी पीठ से लेकर उसके नितंबों तक लटक रही थी।

उसने तबले की ताल पर थिरकना शुरू किया - शुरुआत में केवल छोटी-छोटी हरकतें, गर्दन और हाथ के अलग-अलग भ्रमण का प्रदर्शन करते हुए।

राजमाता की नजर उसकी सुडौल कमर, तंग चोली और नीचे लटकती साड़ी पर चिपक गई। और उस कमर एक अत्यंत आकर्षक नाभि सबका ध्यान अपनी ओर खींच रही थी।

संगीत और नृत्य की गति धीरे-धीरे बढ़ती गई। सहजता से, नर्तकी अपने नृत्य के आंतरिक अर्थ को अपने दर्शकों को पहुचाने के उद्देश्य से आगे बढ़ी। उसका नृत्य इतना कुशल था कि राजमाता ने न केवल उस नृत्य के भौतिक आयामों का आनंद लिया, बल्कि अपने मन को ईर्ष्या, प्रेम, ऊर्जा, कुरूपता, सौंदर्य और हवस के इर्द-गिर्द एक कहानी लिखते हुए पाया।
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हवस???? राजमाता को अचानक इस बात का एहसास हुआ कि वह महिला नग्न थी!! उसके शरीर पर एकमात्र आवरण चमेली की कलियाँ से बने गजरें ही थे जो उसके बालों को ढँक रहे थे। उसने अपने कपड़े कब उतारे? क्या वह जादू था या भ्रम, या उस नर्तकी की अत्यधिक निपुणता?

अब उसके नृत्य में भी निश्चित तौर पर मदहोशी नजर आ रही थी। तबले की ताल के हिसाब से वह नृत्य थोड़ा सा सुस्त था; पर अब वह स्त्री अपने अंग-संचालन से और उसके चेहरे के भाव से शास्त्रीय नृत्य की गहनता के बदले शुद्ध वासना व्यक्त कर रही थी।

अब वह नृत्य की हरकतें ऐसी प्रतीत हो रही थी जो विभिन्न स्थितियों में चुदाई की नकल करने बराबर हो, वह अपने सुंदर और आकर्षक स्तनों के हिलने-डुलने पर ज्यादा ध्यान दे रही थी। उसके हाथ उसके भरे हुए यौवन के चारों ओर घूमते हुए ऐसी मुद्रा बना रहे थे जैसे की वह राजमाता को अपनी घटादार बालों वाली योनि की ओर आकर्षित कर रही हो।

इसमें कोई संदेह नहीं था की वह महिला राजमाता को बहका कर अपनी ओर आकर्षित करने का प्रयास कर रही थी। और आश्चर्य की बात तो यह थी कि इससे राजमाता भी उत्तेजित हो गयीं। उन्होंने अपने जीवन में कभी किसी महिला के साथ संभोग की कल्पना नहीं की थी। आज तक उन्होंने सिर्फ कड़े लंड की ही कामना की थी जो उनके यौन छिद्रों में घुसकर उन्हे अत्यधिक आनंद दे। लेकिन अभी तो वह एक नग्न महिला का मादक नृत्य देखते हुए अपनी योनी में उस परिचित गीलेपन को महसूस कर रही थी!

राजमाता अब अधिक उत्तेजित हो ही रही थी की तब वह नर्तकी उनसे दूर चली गई और तबले पर ताल के साथ फिर से सामान्य शास्त्रीय करने लगी। ऐसा काफी समय तक चलता रहा और राजमाता एक बार फिर नृत्य नाटिका में इस हद तक शामिल हो गईं कि उस नर्तकी की नग्नता को संपूर्णतः भूल गई।

अचानक तबले का ताल बदल गया और काफी तेज़ और जटिल लय में बजने लगा। नर्तकी ने तीव्र हरकतों के साथ जवाब दिया जिसने राजमाता की चेतना को झकझोर दिया क्योंकि उसके नृत्य में फिरसे मदहोशी का रस टपकने लगा। नृत्य के परिश्रम से नर्तकी को अब पसीना आ रहा था और उसके चेहरे और अंगों पर पसीने की चमक ने उसकी कामुकता को और बढ़ा दिया था।

वह अपने थिरकते पैरों के साथ राजमाता के सामने घुटनों के बल बैठ गई, उसकी जांघें इतनी चौड़ी हो गईं कि उसकी चुत के होंठ उसकी झांटों की झाड़ियों से बाहर निकल गए। उसके शरीर का हर हिस्सा हिल रहा था - उसका सिर, आँखें, स्तन, कमर, हाथ और बेशक पैर, अलग-अलग फिर भी एक साथ। इन हरकतों से राजमाता ऐसे उत्तेजित हो गई जैसे खुले नग्न सख्त लंड को अपनी ओर आता देख लिया हो।

यह हरकतें और नृत्य मादक होते हुए भी यह अश्लील नही थे - इसका प्रभाव काफी कलात्मक और आध्यात्मिक था! राजमाता विस्मय से हांफने लगीं। वह उस नीचे बैठी नर्तकी की खुली चुत सी रही उत्तेजक गंध को सूँघ सकती थी। वह स्त्री राजमाता से शारीरिक संसर्ग चाहती थी!!! और राजमाता को इससे किसी भी प्रकार की कोई घृणा महसूस नहीं हुई, केवल प्रत्याशा की सुखद अनुभूति हुई।

तभी वह महिला खड़ी हो गई और पलट गई। तबले की ताल के साथ वह फिर से थिरकने लगी। अपने जिस्म को कामुक रूप से लचकाते हुए वह इस तरह हिलाने लगी की देखने वालों का ध्यान उसके लहराते सुडौल नितंबों पर केंद्रित हो जाए। उसके दोनों कूल्हें अपनी मस्ती में ऐसे थिरक रहे थे की उन्हे देखकर उत्तेजनावश राजमाता की सांस अटक गई।

अब वह अचानक से पलटी... और मचलते हुए राजमाता की ओर आगे बढ़ी... उनके बिल्कुल करीब आकार, बिना किसी डर या संकोच के उसने राजमाता की चोली की गांठ खोलकर उनकी चोली उतार दी... फिर उसने राजमाता के दोनों हाथों को अपने हाथों से पकड़ा और उन्हे खड़ा किया... संगीत के ताल पर राजमाता उसके संग झूम रही थी तब उसने उनके घाघरे के नाड़े को खोल दिया... !! और उनके नग्न शरीर को हल्के से इस तरह धक्का दिया की राजमाता बिस्तर पर पीठ के बल लेट गई... और उस स्त्री का चेहरा राजमाता की दोनों जांघों के बीच चला गया। अब तबले की ताल के साथ उसकी जीभ राजमाता की गीली चुत पर चलने लगी।

इस अचानक हमले ने, राजमाता को विद्याधर के पहले हमले की याद दिलाते हुए स्तब्ध कर दिया, लेकिन केवल थोड़ी देर के लिए। थोड़ी ही क्षणों के पश्चात अपनी चुत पर लहराती उस जीभ का प्रभाव ऐसा पड़ा की राजमाता वासना के सागर में हिलोरे लेने लगी।

राजमाता को इस महिला की जीभ गीली, लचीली, फिर भी कठोर महसूस हुई और सब से विशेष यह था की उसकी जीभ तबले की लय पर ही चल रही थी। सब से अनोखा एहसास वह था जब उसने राजमाता के चुत के होंठों पर जीभ से चाबुक मारने की एक अविश्वसनीय तरकीब का इस्तेमाल किया जिससे उनकी चुत और भगांकुर को तीव्र अनुभूति का एहसास हुआ।

और इस दौरान उस नर्तकी के हाथ राजमाता के अंग अंग पर घूम रहे थे... उनके पेट से लेकर स्तनों तक... और नीचे जंघाओं के मूल को वह कामुकतापूर्वक मालिश कर रही थी।

राजमाता ने स्वयं को उन संवेदनाओ के समक्ष समर्पित कर दिया। कुछ ही समय में उनकी उत्तेजना ऊपर, और ऊपर चढ़ती गई, जब तक कि वह एक अद्भुत चरमसुख की अवस्था में नहीं पहुंच गई।

जब राजमाता उस स्खलन के नशे से उभरी तो उन्होंने पाया कि वह नर्तकी अभी भी उनके गुप्तांगों पर जीभ फेरने में व्यस्त थी। फिर वह आगे बढ़ी और राजमाता के स्तनों को चूसने से पहले उनके होंठों की ओर बढ़ने लगी और मुंह के अंतरालों में अपनी लाल जीभ से चुंबन दिया।

राजमाता अब बेहद गरम हो गई थी। अब वह नर्तकी राजमाता के बेपरवाह शरीर पर चढ़ गई और अपनी चुत को फैलाकर राजमाता के मुख पर रख दिया। जैसे वो राजमाता पर हावी होना तो चाहती थी पर ऐसे की जैसे उनसे, अपने प्रति ध्यान देने की भीख मांग रही हो!!

राजमाता ने आज से पहले कभी कोई चुत नहीं चाटी थी. असल में उसने पहले कभी किसी चुत को इतने करीब से देखा भी नहीं था। इस नर्तकी की योनी बड़ी ही प्यारी लग रही थी... बालों वाली, लाल और गीली.. और उसमें से उत्तेजक रस की गंध भी बड़ी ही अनोखी सी आ रही थी।

इशारे से उस नर्तकी ने राजमाता को अपनी चुत चाटने के लिए कहा और उन्होंने तुरंत उसका पालन किया। उनकी जीभ का स्पर्श चुत पर महसूस होते ही उस स्त्री के शरीर में कम्पन सा दौड़ गया और वह धीरे-धीरे किसी सूत्र का पठन करने लगी। तबला अभी भी बज रहा था और उसके साथ सूत्र का पठन भी हो रहा था।

यह पहली बार था कि राजमाता ने उस नर्तकी की आवाज सुनी। उसकी आवाज गहरी, मधुर और मोहक थी। वह जिस सूत्र का पठन कर रही थी उसे भी राजमाता ने पहली बार सुना था। यह सूत्र कोई आम सूत्र नही थे बल्कि मन को मुक्त करने आहवाहन दे रहे थे ताकि मन स्वतंत्र रूप से विचरण कर सके, उसे वहां ले जा सके जहां कल्पना उसे ले जाती है।

और राजमाता ने इसका योग्य जवाब भी अपनी हरकतों से दिया-उस मोहक आवाज में हो रहे पठन से राजमाता का मन एक हिमखंड से मुक्त होकर बर्फीले ठंडे पानी से कलकल करती साफ धारा की ओर उड़ गया। उनकी जीभ उस स्पष्ट धारा में घुस गई और गति के प्रतिरूप में अपनी प्यास बुझाने लगी।

यह एहसास भ्रामक होने के साथ बेहद जटिल भी था। वह महिला उनके मुख के ऊपर सवारी करते करते हांफ रही थी और अपने कूल्हों को राजमाता की जीभ के ऊपर पर बार-बार ठोक रही थी। यह सिलसिला तब तक चला जब तक कि वह नर्तकी संभोग की पराकाष्ठा पर पहुँच ना गई।

स्खलन के बाद उसने राजमाता के चेहरे से अपनी चुत को हटाया और उनके पास बैठ गई। तबला तो बज ही रहा था और अब वीणा की बजने की ध्वनि भी इसमें शामिल हो गई। राजमाता ने ऊपर देखा तो विद्याधर को वीणा बजाते हुए देखकर आश्चर्यचकित रह गईं! वह काफी अच्छी वीणा बजा रहा था।

अब धीरे से उस नर्तकी ने राजमाता के जिस्म को हल्का सा उठाया और अपनी ओर तब तक खींचती रही जब तक की राजमाता उसकी गोद में बैठ ना गई। अब वह धीरे से राजमाता के शरीर को अपने साथ लेते हुए बिस्तर पर लेट गई। वह इस तरह से लेटे हुए थे की राजमाता की पीठ नर्तकी के सामने आ रही थी।

राजमाता उस नर्तकी के शरीर की कोमलता से अभिभूत हो गई। वह राजमाता के शरीर के अंगों को सहलाते हुए उनके स्तनों तक पहुंची और उनकी निप्पलों को छुआ। उस स्त्री के चुत के बाल राजमाता के चूतड़ों पर चुभते हुए अजीब स्पंदन पैदा कर रहे थे। दोनों की जांघें आपस में प्रेमालाप करने लगी।

राजमाता की निप्पलों से खेलते हुए वह उनके कानों को चूमने और चूसने लगी.. वह सूत्रों का पठन फिर से शुरू हो गया जो राजमाता को पिछली बार हिमखंड के यात्रा पर ले गया था। एक बार फिर उन सूत्रों को सुनकर राजमाता का मन एक ओर यात्रा पर निकल पड़ा।

इस बार एक पहाड़ी की चोटी पर, जहां गर्म हवा का हर झोंका, चाकू की नोक की तरह महसूस हो रहा था, जो उनके चेहरे, उनके कानों, उनके स्तनों, उनकी जांघों, उनकी चुत और चुत के अंदर के लाल गुलाबी उत्तेजित मांस पर थपेटे मार रहा था... वह स्त्री अपनी लंबी उंगलियों से जब जब राजमाता के चुत के होंठों को फैलाती, वह गरम हवाओं का एहसास राजमाता को सराबोर कर देता।

तभी उन्हे अचानक ठंडी बारिश गिरती हुई महसूस हुई, बूंद के बाद बूंद टपके जा रही थी और यह उस नर्तकी की गीली जीभ नहीं थी, बल्कि बारिश की फुहारें थीं जो उनके निप्पल, उनके भगांकुर और उनकी चुत के होंठों पर गिर रही थीं।

फिर जैसे ही वह नर्तकी, रानी को अपनी गोद में बिठाकर अपनी पूर्व स्थिति में लौटी, एक बार फिर उसकी उंगलियों का प्रत्येक स्पर्श, उनके झांट के बालों की प्रत्येक रगड़, रानी की पीठ पर उसके खड़े निपल्स की प्रत्येक खरोंच, जलन की तरह महसूस हुई, सिवाय इसके कि ये कामुक जलनें थीं, इतनी रोमांचक कि अगली अनुभूति की प्रत्याशा वासना को उन शिखरों पर ले गई जो राजमाता ने कभी महसूस नही की थी।

और वह सूत्रों का पठन जारी रहा और राजमाता का मन उन शब्दों के जादू में बँध गया। उन्होंने अपनी आँखें खोलीं और अपने सामने एक आदमी को देखा। वह एक बहुत ही तने हुए लंड के साथ नग्न अवस्था में था, जिसे वह आराम से सहला रहा था।

संगीत अब बंद हो गया था लेकिन राजमाता का दिमाग अब वह राजमहल के कक्ष में नही था... पर दूर आग और बर्फ की भूमि में था। उन्होंने देखा कि वह आदमी अब उनकी जाँघों के बीच आ गया था और अपने लंड को उनकी चुत में डाल रहा था।

उस आदमी के लंड डालते ही राजमाता को ऐसा महसूस हुआ जैसे चिलचिलाती गर्मी ने उनकी चुत की हर नस को जला दिया था। उन्हों ने कभी भी इतना जीवंत और इतना ग्रहणशील कभी महसूस नहीं किया था। लंड का अंदर और बाहर जाने वाला प्रत्येक धक्का उनके मन को झकझोर देने वाला और अत्यधिक गर्म था, इतना गर्म कि उन्हे लगता था की उनकी चुत उस गर्मी से जल जाएगी पर फिर भी वह जानती थी कि ऐसा नहीं होगा। उनकी चुत की हर नस, हर संवेदना उनके मस्तिष्क को एक उग्र और संतुष्टिदायक संदेश भेज रही थी।

सूत्रों का पठन जारी रहा और वह शब्द राजमाता के जिस्म की गर्मी को बढ़ाते जा रहे थे। अब वह अचानक उस गरम मॉसम से बर्फ की भूमि पर या गई जहां सब कुछ ठंडा था। उनकी चुत में जलन होनी बंद हो गई थी, राजमाता ने आँखें खोलीं तो देखा कि वह आदमी ने अपना लंड उनकी चुत से बाहर निकाल लिया था और अब विद्याधर उन्हें चोदने के लिए तैयार हो रहा था।

जब विद्याधर ने अपना तना हुआ लंड राजमाता के अनुभवी भोसड़े में अंदर डाला तब राजमाता को ऐसा प्रतीत हुआ जैसे अंदर किसी ने बर्फ की कुल्फी घुसेड़ दी हो!!! बेहद ठंडा एहसास...!!! इतना ठंडा की ठंड के कारण उनकी रोंगटे खड़े हो गए। फिर भी उस छेदन और धक्कों में एक अजीब स सुकून और ताजगी थी... वैसी ही ताजगी जो पहली बारिश के बाद प्रकृति को महसूस होती है!!

सूत्रों के शब्दों ने राजमाता के दिमाग का कब्जा ले लिया था... वह शब्द उन्हे उत्तेजित कर रहे थे... उकसा रहे थे.. की वह उस कुल्फी जैसे ठंडे लंड पर अपनी गरम वासनाभरी चुत से ऐसे झपटे की उस कुल्फी का सारा रस चूस निकालें।

राजमाता की चुत ने बिल्कुल वैसा ही किया... चुत की मांसपेशियों ने मरोड़ खाकर विद्याधर के लंड को ऐसा दबोचा की लंड का बीज एक पल में बाहर निकल गया... और उस ठंडे ठंडे वीर्य की बौछार ने राजमाता को स्खलित कर उनकी जलती हुई ऊर्जा को गीली करके शांत कर दिया।

पर यह क्या हुआ?? अमूमन स्खलन की कुछ उत्कृष्ट क्षण बीत जाने पर मन और शरीर शांत हो जाता था.. यह स्खलन तो रुकने का नाम ही नही ले रहा था!! राजमाता ऐसा महसूस कर रही थी जैसे की वह लगातार स्खलित होती ही जा रही थी... चरमसीमा का आनंद खतम ही नही हो रहा था!!

तब वह आदमी फिर खड़ा हुआ और विद्याधर को हटाकर अपना लंड पेलकर राजमाता की चुत में धक्के लगाने लगा.. और उन दोनों के संभोग के बीच वह नर्तकी ने, उस आदमी के लंड के साथ अपनी एक उंगली भी राजमाता की चुत में घुसा दी थी... राजमाता को अपनी चुत काफी भरी हुई और भारी भारी सी लग रही थी... भ्रम की अवस्था में होने के बावजूद राजमाता ने देखा की वह नर्तकी ने अपनी पहली, दूसरी, तीसरी उंगली और अपना हाथ भी लंड के साथ अंदर घुसा दिया!! उसने राजमाता की चुत के अंदर उस आदमी के लंड को पकड़ लिया और उसे राजमाता की चुत के अंदर ही हिलाने लगी..!! फिर भी राजमाता को कोई दर्द नहीं हो रहा था बल्कि परिपूर्णता का बड़ा ही अद्भुत एहसास हो रहा था।

उस आदमी ने राजमाता की चुत और नर्तकी की मुठ्ठी में कुछ धक्के लगाने के बाद अपना लंड बाहर निकाल लिया... उस स्त्री की चार उँगलियाँ अभी भी चुत के अंदर थी जब की उसका अंगूठा उनके भगांकुर को रगड़ रहा था। वह सूत्रों के शब्द राजमाता के मस्तिष्क को एक और जलजले के लिए तैयार होने को कह रहे थे तभी उस उस आदमी ने अपने लंड पर थोड़ी सी लार लगाकर राजमाता की गांड के छेद पर अपना लंड रख दिया।

वह स्त्री अपनी उँगलियाँ चुत में चलाती जा रही थी और वह आदमी राजमाता की गांड पर बेरहमी से प्रहार कर रहा था। वह शब्द राजमाता को नर्तकी के हाथ और उस आदमी के लंड के हर धक्के पर ध्यान केंद्रित करने पर मजबूर कर रहे थे जो उनकी गांड और भोसड़े को रगड़ रहे थे, फिर भी दर्द का कोई एहसास न था... थी तो बस हवस से भरी उत्तेजना!!

अब राजमाता को एक और मन को झकझोर देने वाले चरमोत्कर्ष की शुरुआत महसूस हुई, वह आदमी जुनून पूर्वक घुरघुराने लगा और आहें भरने लगा और उनकी गांड में जोरदार और बेरहमी से तब तक धक्के मारता रहा जब तक कि उन्हे अपनी गांड में उसकी गर्म फुहारें महसूस नहीं हुईं। राजमाता भी एक चीख के साथ झड़ गई... और फिर वह हाथ और लंड धीरे से बाहर निकल गए और आख़िरकार सूत्रों का पठन भी बंद हो गया।

इस अनुभव से राजमाता इतनी थक गई थी कि वह वहीं पड़ी रही और गहरी नींद सो गई। जब उनकी आँखें खुली तब अँधेरा हो चुका था और वह अपने कक्ष में अकेली थी। उनका दिमाग यह तय नही कर पा रहा था की जो कुछ भी उन्होंने देखा, सुना या महसूस किया वह वास्तविकता थी या फिर केवल एक भ्रम था... उनका पूरा शरीर निढाल हो चुका था और मस्तिष्क हिल चुका था। इस अनुभव का आयोजन करने के लिए वह मन ही मन विद्याधर की आभारी हो गई। निःसंदेह विद्याधर भी बहुत खुश था कि वह राजमाता को ऐसा अद्वितीय अनुभव करवा सका और उनके चेहरे की खुशी, उसके लिए किसी इनाम से कम नही थी।

वह आदमी और नर्तकी और कुछ सप्ताह राजमहल में रुकें.. और उस समय के दौरान राजमाता ने वह सुख हासिल किया जो उन्होंने स्वप्न में भी कभी नही सोचा था। राजमाता की विनती पर वह तांत्रिक जोड़ी कभी कभार राजमहल में आते रहते। इस तरह शक्तिसिंह, विद्याधर और उस तांत्रिक जोड़ी के बीच राजमाता ने एक भरपूर संभोग से परिपूर्ण जीवन का आनंद लिया। नियमित जीवन में शक्तिसिंह और विद्याधर दोनों मन भरकर उन्हे चोदते... दोनों ही अलग अलग तरीके से राजमाता को तृप्त करते। दोनों ही राजमाता की वासना को संतुष्ट करने के लिए कुछ भी करने को तैयार रहते और जैसे यह पर्याप्त नहीं था... वह तांत्रिक जोड़ी भी उन्हे आश्चर्यचकित करने के लिए कभी भी आ टपकती।
 

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