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चिड़ियों की चहचहाट से जंगल की सुबह हो गई... सेवक सफाई में जुट गए थे और खानसामे सुबह का नाश्ता बनाने में... शक्तिसिंह अपने तंबू में खर्राटे मार कर सो रहा था... आधी रात तक राजमाता के भूखे भोंसड़े को पेलने के बाद वह सुबह चार बजे चुपके से अपने तंबू में लौटकर, चुदाई की थकान उतार रहा था...
शाही तंबूओ के बीचोंबीच सेवकों ने बड़ा सा मेज और कुर्सियाँ लगाई थी... महाराज और उनके परिवार के लिए विविध प्रकार के व्यंजन और फलों का इंतेजाम नाश्ते के लिए किया गया था...
राजमाता और महारानी काफी समय से मेज पर बैठे बैठे महाराज के आने का इंतज़ार करते रहे... अंत में थककर उन्होंने नाश्ता शुरू कर दिया.. थोड़ी देर बाद, महाराज लड़खड़ाती चाल से चलते हुए खाने के मेज तक आए... उनकी आँखें नशे के कारण लाल थी.. पर थकान की असली वजह तो केवल वह और चन्दा ही जानते थे...
"बड़ी देर कर दी आने में... ?" राजमाता ने सेब का टुकड़ा खाते हुए पूछा
"हाँ... रात को नींद आते काफी वक्त लग गया... इसी लिए जागने में थोड़ी देर हो गई.. "
"मुझे तो लगता है की इसका कारण तुम्हारा अधिक मात्रा में मदिरा सेवन ही है..." राजमाता ने ऋक्ष आवाज में कहा
"क्या माँ... आप हर बार यही बात क्यों निकालती है?" महाराज परेशान हो गए
"क्योंकी तुम्हारी ये आदत तुम्हारा स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचा रही है.. अब इस स्थिति में तुम शिकार करने कैसे जाओगे?"
इस बात को बदलने के उद्देश्य से महाराज ने प्रस्ताव रखा
"शिकार पर तो में जाऊंगा ही... में सोच रहा था, क्यों न आप और महारानी भी शिकार पर मेरे साथ चलें? अच्छा अनुभव रहेगा... "
"इस अवस्था में महारानी को ले जाना ठीक नहीं रहेगा..." राजमाता ने कहा
"तो फिर आप ही चलिए... एक बार देखेंगी तो विश्वास होगा की आपके बेटे का निशान कितना सटीक है.. "
राजमाता ने कुछ सोचकर कहा "ठीक है... में तुम्हारे साथ चलूँगी.. इससे पहले मुझे महारानी की देखभाल का प्रबंध करना होगा... तुम तैयार हो जाओ... जब निकलोगे तब में शामिल हो जाऊँगी.. " राजमाता मेज से उठकर अपने तंबू की ओर चल पड़ी।
राजमाता के शिकार पर जाने का प्रयोजन सुनकर महारानी की आँखों में चमक आ गई... वह धीरे से खाने के मेज से उठ खड़ी हुई और तंबुओं के पीछे ओजल हो गई... कुछ दूरी पर स्थित शक्तिसिंह के तंबू में वह दबे पाँव घुस गई... शक्तिसिंह घोड़े बेचकर सो रहा था... उसने शक्तिसिंह को जगाया...
"अरे महारानी आप फिरसे आ गई... !!" अपनी आँखों को हथेलियों से मलते हुए शक्तिसिंह ने कहा
"ध्यान से सुनो... मेरे पास ज्यादा वक्त नहीं है... आज महाराज के साथ राजमाता भी शिकार पर जा रही है... तुम कुछ बहाना बनाकर यहीं रुक जाओ... फिर शाम तक हमारे पास बहुत समय रहेगा... !!" उत्सुक महारानी ने कहा
"आप जानती है की क्या कह रही है? राजमाता ऐसा कदापि होने नहीं देगी... उन्हे जरा भी भनक लगी की में यहाँ रुक गया हूँ तो वह शिकार पर जाएगी ही नहीं... यदि जाएगी भी तो बीच रास्ते वापिस लौटकर हमें रंगेहाथों पकड़ लेगी... "
"तो फिर क्या किया जाए... इस तरह तो हम मिल ही नहीं पाएंगे... " महारानी उदास हो गई
"थोड़ी धीरज रखिए, कुछ ना कुछ रास्ता जरूर निकलेगा... हम जरूर मिल पाएंगे"
"पर कैसे? मुझसे अब और बर्दाश्त नहीं होता..."
शक्तिसिंह मौन रहा... उसके पास इसका कोई उत्तर या इलाज नहीं था...
"नहीं, हमे आज ही मिलना होगा... तुम बीमारी का बहाना बना लो... और सब के जाते ही मेरे तंबू में चले आना" व्याकुल महारानी ने अपनी जिद नहीं छोड़ी..
"यह मुमकिन नहीं है महारानी जी... बहुत खतरा है ऐसा करने में "
"तो तुम नहीं मानोगे... ठीक है... लगता है वक्त आ गया है की राजमाता को बता दिया जाएँ की कैसे तुम राजमहल में वापिस लौटकर भी मेरे जिस्म को नोचते रहे हो... साथ ही महाराज को भी इस बारे में सूचित कर देती हूँ..." महारानी ने अपना अंतिम हथियार आजमाया
"ये आप क्या कह रही है महारानी जी? ऐसा मत कीजिए, में हाथ जोड़ता हुए आपके" शक्तिसिंह के होश गुम हो गए.....
"तो फिर जैसा में कहती हूँ वैसा करो..."
"मुझे एक तरकीब सूझ रही है महारानी जी... में दस्ते के साथ शिकार पर जाऊंगा... मौका देखकर में वहाँ से गायब हो जाऊंगा.. पर वापिस यहाँ छावनी में आना मुमकिन न होगा... आप एक काम कीजिए... टहलने के बहाने आप दूर नदी के किनारे, जहां बीहड़ झाड़ियाँ है, वहाँ मेरा इंतज़ार कीजिए... में वहीं आप से मिलूँगा.."
महारानी आनंदित हो गई.. उनके चेहरे पर चमक आ गई..
"ठीक है... फिर यह तय रहा... में तुम्हें नदी के किनारे मिलूँगी... पर जल्दी आना.. मुझे ज्यादा इंतज़ार मत करवाना... "
"जी जरूर... अब आप यहाँ से जल्दी जाइए.. "
उछलते कदमों के साथ महारानी वापिस चली गई। शक्तिसिंह तुरंत बिस्तर से उठा और अपने दैनिक कामों से निपटकर, सैनिकों के साथ शिकार पर जाने की तैयारी करने लगा।
शिकार पर जाने के लिए महाराज का खेमा तैयार हो गया था... आगे दो हाथी पर महाराज और राजमाता बिराजमान थे... पीछे २५ घोड़ों पर सैनिक सवार थे जिसका नेतृत्व शक्तिसिंह कर रहा था... साथ ही करीब ५० सैनिक पैदल भाला लिए चल रहे थे। महाराज कअंगरक्षक चन्दा भी हाथी के बिल्कुल बगल में चल रही थी... कुछ सैनिक ढोल नगाड़े गले में लटकाए हुए थे.. जिसका उपयोग जानवारों को भड़काकर एक दिशा में एकत्रित करने के लिए किया जाता था। साथ ही साथ एक बग्गी भी थी जिसमे भोजन और अन्य जरूरी चीजें लदी हुई थी।
जंगल में चलते चलते एक घंटा हो गया था.. महाराज ने अब तक दो हिरनों को अपने बाण का शिकार बनाया था... अभी उन्हे किसी खूंखार जंगली जानवर की तलाश थी.. पैदल चल रहे सैनिक चारों दिशा में घूम रहे थे... कुछ सैनिक पेड़ पर चढ़कर जानवर को ढूंढकर खेमे को इत्तिला कर रहे थे...
इसी बीच शक्तिसिंह ने अपने घोड़े की गति कम करते हुए एक जगह स्थगित कर दिया... पूरा खेमा शिकार की तलाश में आगे निकल गए... जब उनके और शक्तिसिंह के बीच सुरक्षित दूरी बन गई तब उसने घोड़े का रुख मोड़ा और वह छावनी के पास नदी के तट की ओर चल पड़ा...
तेज दौड़ रहे घोड़े के साथ शक्तिसिंह का ह्रदय भी उछल रहा था... राजमहल में छुपकर महारानी से मिलना अलग बात थी... पर यहाँ जंगल में उन से मिलना खतरे से खाली नहीं था... किसी के देख लेने का खतरा तो कम था क्योंकी नदी का तट छावनी की विपरीत दिशा में था.. पर उसे भय यह था की अकेली महारानी का सामना किसी जंगली जानवर से ना हो जाए। इसी लिए वह दोगुनी तेजी से घोड़े को दौड़ाते हुए नदी की और जा रहा था।
नदी के तट पर पहुंचते ही शक्तिसिंह ने अपने घोड़े को रोका... उसे थोड़ा सा पानी पिलाया और नजदीक के पेड़ के साथ बांध दिया... उसे महारानी कहीं भी नजर नहीं आ रही थी... वो काफी देर तक यहाँ वहाँ ढूँढता रहा और आखिर थक कर वह एक पेड़ की छाँव में खड़ा हो गया...
अचानक पीछे से दो हाथों ने शक्तिसिंह को धर दबोचा... प्रतिक्रिया में शक्तिसिंह ने अपना बरछा निकाला और वार करने के लिए मुड़कर देखा तो वह महारानी थी... वह शक्तिसिंह का डरा हुआ मुंह देखकर खिलखिलाकर हँस रही थी... शक्तिसिंह की सांस में सांस आई... उसने बरछा वापिस म्यान में रख दिया।
"आपने तो मुझे डरा ही दिया महारानी जी... " गर्मी के कारण शक्तिसिंह के सिर पर पसीने की बूंदें जम गई थी
महारानी ने बिना कोई उत्तर दिए शक्तिसिंह को अपनी ओर खींचा और उसकी विशाल छाती में अपना चेहरा दबाते हुए उसे बाहुपाश में जकड़ लिया... शक्तिसिंह ने आसपास नजर दौड़ाई... के कोई देख ना रहा हो... फिर निश्चिंत होकर उसने महारानी को अपनी बाहों में भर लिया...
काफी देर इसी अवस्था में रहने के बाद महारानी ने अपना चेहरा उठाया और शक्तिसिंह को पागलों की तरह चूमना शुरू कर दिया... उनके हाथ शक्तिसिंह की बलिष्ठ भुजाओं को सहला रहे थे.. चूमते वक्त उनके कदम ऐसे डगमगा रहे थे जैसे संभोग के पहले गरम घोड़ी चहलकदमी कर रही हो। शक्तिसिंह भी इस गर्माहट भरे चुंबनों का योग्य उत्तर दे रहा था। उसने चूमते हुए महारानी की चोली में अपना हाथ घुसा दिया... और बड़ी नारंगी जैसे दोनों स्तनों को मसलने लगा। महारानी की निप्पल अब सख्त होकर ऐसा कोण बना रही थी की उनका आकार चोली के वस्त्र के ऊपर से भी नजर आने लगा था। स्तनों को सहलाने में सहूलियत हो जाए इस उद्देश्य से महारानी ने चुंबन जारी रखते हुए अपनी चोली खोल दी... शक्तिसिंह की हथेलियों से ढंके उनके दोनों पंछी मुक्त होकर खुले वातावरण का आनंद लेने लगे...
थोड़ी देर यूँ ही चूमते रहने के बाद महारानी ने शक्तिसिंह को अपने बाहुपाश से मुक्त किया... कमर से ऊपर नंगी खड़ी महारानी की अद्वितीय सुंदरता को आँखें भर कर देखता ही रहा शक्तिसिंह...!!
अब महारानी ने अपने घाघरे का नाड़ा खोलना शुरू ही किया था की शक्तिसिंह ने उनका हाथ पकड़कर रोक लिया...
"आप यह क्या कर रही है महारानी जी?"
"वही, जो यहाँ करने आए है... "
"मेरे कहने का यह अर्थ है की... बाकी सब तो ठीक था... पर इस अवस्था में योनिप्रवेश करने बिल्कुल भी ठीक नहीं होगा... लिंग के झटके से आने वाली संतान को नुकसान पहुँच सकता है"
यह सुन महारानी मुस्कुराई... और अपने पेट पर हाथ फेरने लगी... उसने शक्तिसिंह का हाथ पकड़ा और अपने पेट पर रख दिया...
"अंदर पनप रहे इस नन्हे जीव को महसूस करो... इसकी स्थापना तुम्हारे बीज और मेरे अंड से ही हुई है... कहने के लिए यह राजा की संतान होगी... पर हमारे लिए यह सदैव तुम्हारी संतान ही रहेगी... " बड़े ही वात्सल्य से शक्तिसिंह की हथेली को अपने पेट पर घुमाते हुए महारानी ने कहा
"और उसी संतान के स्वास्थ्य और सुरक्षा के लिए कह रहा हूँ... इस हालत में संभोग कर हम उसे जोखिम में नहीं डाल सकते"
"तो फिर क्या करूँ में इस नीचे लगी आग का? तुम ही कोई रास्ता निकालो" उदास महारानी ने कहा
"ऐसी स्थिति में तो कुछ हो नहीं सकता... आप अगर स्वयं भी खुदको आनंदित करने का प्रयास करेगी तो गर्भाशय के संकुचन के कारण शिशु को खतरा हो सकता है"
"एक तरीका है मेरे दिमाग में... जिससे मेरी आग भी बुझ जाएगी और गर्भस्थ शिशु को कोई नुकसान भी नहीं पहुंचेगा... " महारानी का उपजाऊ दिमाग किसी भी सूरत में अपनी हवस की आग मिटाना चाहता था
"कौन सा तरीका?" असमंजस में शक्तिसिंह ने पूछा
महारानी ने नाड़ा खोलकर अपना घाघरा गिरा दिया और पूर्णतः नंगी हो गई... प्रकृति के सानिध्य में, पंछियों की चहकने की और नदी के कलकल बहने की ध्वनि के बीच... इस अति सुंदर महारानी का नग्न रूप बड़ा ही दिव्य प्रतीत हो रहा था... कितना भी देख लो मन ही नहीं भरता था..
पास के एक घने पेड़ के थड़ पर अपने दोनों हाथ टिकाकर उन्होंने शक्तिसिंह की ओर अपनी गर्दन घुमाई और फिर अपनी गांड उचककर उसे इशारा किया...
महारानी की इस इशारे को शक्तिसिंह समझ ना पाया। अपने चूतड़ हाथों से फैलाकर जब संकेत दिया तब जाकर शक्तिसिंह के दिमाग की बत्ती जली और उसे झटका लगा...
"यह आप क्या कह रही है महारानी जी...?"
"अगर योनि-प्रवेश नहीं कर सकते तो पीछे से तो डाल ही सकते हो... समझ सकती हूँ की तुम एक योद्धा हो और पीछे से वार करने में नहीं मानते... पर यह कोई युद्ध नहीं है.. इस लिए मेरे प्यारे सैनिक... तैयार हो जाओ... और प्यास बुझा दो अपनी महारानी की.. " हँसते हुए महारानी ने कहा और वापिस अपने हाथ पेड़ पर रखकर अपनी गांड पेश कर दी...
शक्तिसिंह अभी भी सदमे में था... महारानी के दो गोल गोरे गोरे चूतड़ों को देखकर उसका मन तो बड़ा ही कर रहा था, पर दो कारण थे उसकी विडंबना के.. एक के उसने कभी किसी की गाँड़ नहीं मारी थी... और दूसरा के क्या महारानी उसके मूसल जैसे लंड को अपनी कोमल गाँड़ में ले पाएगी? वह अपना सिर खुजाता हुआ महारानी के उभरे नितंबों को ताकता रहा...
"क्या सोच रहे हो तुम... हमारे पास ज्यादा वक्त नहीं है... में नदी किनारे सैर करने के बहाने निकली हूँ... ज्यादा देर मेरी अनुपस्थिति रही तो सैनिक ढूंढते हुए आ जाएंगे... जल्दी करो" बेचैन होकर महारानी ने कहा... वासना की आग उनके जिस्म को अब तपा रही थी।
हिचकते हुए शक्तिसिंह महारानी के करीब आया... उनके मक्खन के गोलों जैसे नितंबों को सहलाते ही उसका लंड खड़ा हो गया... उन चूतड़ों को चौड़ा कर उसने महारानी के गुदा-द्वार के दर्शन किए... छोटा गुलाबी छेद देखकर शक्तिसिंह और भी डर गया... यह सोचकर की लंड घुसने पर उसकी क्या दशा होगी..!!
अपने हाथ महारानी के जिस्म के आगे की ओर ले जाकर वह उनके स्तनों को मींजने लगा... महारानी के बड़े गोल स्तनों की निप्पल अब सहवास की अपेक्षा से तनकर खड़ी हो गई थी... पेड़ के सहारे खड़ी महारानी ने अपने दोनों पैरों को थोड़ा सा और फैला लिया.. शक्तिसिंह ने दो चूतड़ों के बीच हाथ घुसेड़कर महारानी की चुत तक ले गया... योनिरस से लसलसित चुत में अपनी उंगली डालकर आगे पीछे किया... उसका उदेश्य यह था की जितना हो सके महारानी को उत्तेजित किया जाए... ताकि उन्हे दर्द कम हो... महारानी की हवस अब उबल रही थी... अपनी गीली उंगलियों को चुत से बाहर निकालकर उसने महारानी की गाँड़ में एक उंगली घुसा दी...
"ऊईई.. जरा धीरे से... " कराह उठी महारानी
शक्तिसिंह ने थोड़ी देर उस उंगली को अंदर बाहर करते हुए गाँड़ के छेद का मुआयना किया... चुत के मुकाबले यह छेद काफी कसा हुआ और तंग महसूस हुआ... और अंदर जरा सी भी आद्रता नहीं थी.. शक्तिसिंह ने उंगली बाहर निकालकर अपने मुंह से थोड़ी सी लार निकाली... और उंगली को गीला कर वापस अंदर डाला.. इस बार महारानी के दर्द की कोई प्रतिक्रिया न दिखी...
अब धीरे से अपनी दूसरी उंगली गांड में सरकाते हुए उसने दूसरे हाथ से महारानी के भगांकुर का हवाला ले लिया... एक हाथ की दो उँगलियाँ अब महारानी की गाँड़ को कुरेद रही थी और दूसरा हाथ उनकी क्लिटोरिस को रगड़ रहा था। महारानी अब ताव में आकर भारी साँसे ले रही थी.. हर सांस के साथ उनका पूरा शरीर ऊपर नीचे हो रहा था... भगांकुर के लगातार घर्षण से वह सिसकियाँ भरते हुए झड़ गई..
अब शक्तिसिंह ने अपनी धोती की गांठ खोल दी। उसका तना हुआ हथियार बाहर निकलकर, सामने दिख रहे शिकार का निरीक्षण करने लगा। काफी मात्रा में मुंह से लार निकालकर शक्तिसिंह ने अपने पूरे लंड को पोत दिया... लार से चिपचिपा होकर लंड काले नाग जैसा दिख रहा था...
शक्तिसिंह ने संतुलन स्थापित करने के उद्देश्य से अपनी दोनों टांगों को फैलाकर अपने लंड को महारानी की गाँड़ के बिल्कुल सामने जमा दिया। दोनों हथेलियों से उसने चूतड़ों को फैलाकर अपने टमाटर जैसे सुपाड़े को महारानी की गांड के प्रवेश द्वार पर लगा दिया। चिकना सुपाड़ा गांड के छेद को फैलाता हुआ थोड़ा सा अंदर गया.. उतना दर्द अपेक्षित था इसलिए महारानी की मुंह से कोई आवाज ना आई..
अब शक्तिसिंह ने महरानी के चूतड़ों को ओर जोर से फैलाया.. और लंड को थोड़ा और अंदर दबाया... अब महारानी थोड़ी अस्वस्थ होने लगी.. अब तक तो उन्होंने दासी की दो उंगलियों को ही अंदर लिया था... शक्तिसिंह का लंड उनकी कलाई के नाप का था.. चिकनाई के कारण लंड का चौथाई हिस्सा अंदर घुस गया... दर्द के बावजूद महारानी ने उफ्फ़ तक नहीं की... आज वो किसी भी तरह चुदना चाहती थी..
लंड को अब ज्यों का त्यों रखकर शक्तिसिंह ने महारानी के दोनों स्तनों को दबोच लिया... आटे की तरह गूँदते हुए वह उनकी धूँडियों को मसलने लगा.. महारानी के घने काले केश के नीचे छिपी सुराहीदार गर्दन को चूमकर उसने उनके कानों को हल्के से काट लिया...
महारानी थोड़ी सी पीछे की ओर आई ताकि शक्तिसिंह के बाकी के लंड को एक बार में अंदर ले सके.. पर सचेत शक्तिसिंह ने बड़ी सावधानी से खुदको भी थोड़ा सा पीछे कर लिया... महारानी के इरादे को भांपकर उसने थोड़ा सा ओर जोर लगाया और अपना आधा लंड उनकी गाँड़ में डाल दिया...
महारानी का दर्द अब काफी बढ़ गया.. उन्हे ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे कोई गरम सरिया उनकी गाँड़ में घुसा दिया गया हो... पूरा छेद जल रहा था... पर वह शक्तिसिंह को रोकना न चाहती थी.. वह धीरज धरकर अपने छेद को शक्तिसिंह के लंड की परिधि से अनुकूलित होने का इंतज़ार करने लगी... उन्होंने अपनी गर्दन को मोड़ा... और शक्तिसिंह ने उनके गुलाबी अधरों को चूम लिया...!!!
"
आधे से ज्यादा लंड को अंदर घुसाना शक्तिसिंह ने मुनासिब न समझा... उसने अपने लंड को थोड़ा सा बाहर खींच और फिर से अंदर घुसेड़ा..
"ऊई माँ..." महारानी चीख उठी...
"महारानी जी, दर्द हो रहा हो तो में बाहर निकाल लेता हूँ इसे..." डरे हुए शक्तिसिंह ने कहा
"नहीं नहीं... बाहर मत निकालना... पहली बार है तो थोड़ा दर्द तो होगा ही... थोड़ी देर में मैं अभ्यस्त हो जाऊँगी...!!"
शक्तिसिंह ने थोड़ी सी और लार लेकर लंड और गाँड़ के प्रतिच्छेदन पर मल दिया... महारानी का छेद फैलकर चूड़ी के आकार का बन गया था.. वह पसीने से तर हुई जा रही थी...
अब शक्तिसिंह ने हौले हौले लंड को अंदर बाहर करना शुरू किया... हर झटके पर महारानी की धीमी सिसकियाँ सुनाई दे रही थी... यह अनुभव शक्तिसिंह को बेहद अनोखा लगा... चुत के मुकाबले यह छेद काफी कसा हुआ था... और लंड को मुठ्ठी से भी ज्यादा शक्ति से जकड़ रखे था... इतना तनाव लंड पर महसूस होने पर शक्तिसिंह को बेहद आनंद आने लगा... अगर महारानी के दर्द का एहसास न होता तो वह हिंसक झटके लगाकर इस गाँड़ को चोद देता...
महारानी का लचीला गुलाबी छेद अपनी पूर्ण परिधि को हासिल कर चुका था... इससे ज्यादा फैलता तो चमड़ी फट जाती और खून निकल आता... थोड़ी देर आधे लंड से आगे पीछे करने के बाद... शक्तिसिंह ने एक जोर का झटका लगाया और पौना लंड धकेल दिया.. महारानी झटके के साथ उछल पड़ी... उनकी चीख गले में ही अटक गई... इतना लंड अंदर घुसाने के बाद शक्तिसिंह बिना हिले डुले थोड़ी देर तक खड़ा रहा ताकि महारानी के छेद को थोड़ा सा विश्राम मिले और वह इस छेदन के अनुकूलित हो सके..
अब उसने चूतड़ों को छोड़ दिया... दोनों जिस्म अब लंड के सहारे चिपक गए थे.. महारानी अपनी पीड़ा कम करने के हेतु से अपने दोनों स्तनों को क्रूरतापूर्वक मसल रही थी... शक्तिसिंह ने अपने हाथ को आगे ले जाकर महारानी की चुत में अंदर बाहर करना शुरू कर दिया। स्तन-मर्दन और चुत-घर्षण से उत्पन्न हुई उत्तेजना के कारण अब महारानी के गांड का दर्द कम हुआ..
"अब लगाओ धक्के... " महारानी ने फुसफुसाते हुए शक्तिसिंह से कहा
महारानी की जंघाओं को दोनों हाथों से पकड़कर शक्तिसिंह ने धीरे धीरे धक्के लगाने शुरू कर दिया... कसाव भरे इस छेद ने शक्तिसिंह को आनंद से सराबोर कर दिया... महारानी भी अपने जिस्म को बिना हिलाए उन झटकों को सह रही थी... दर्द कम हो गया था अब उन्हे आनंद की अपेक्षा थी..
अब शक्तिसिंह ताव में आकर धक्के लगाने में व्यस्त हो गया। महारानी को गांड में अजीब सी चुनचुनी महसूस होने लगी... अब धीरे धीरे उन्हे मज़ा आने लगा... हर झटके के साथ उनके चूतड़ थिरक रहे थे।
मध्याह्न का समय हो चुका था... सूरज बिल्कुल सर पर था.. नीचे दो नंगे जिस्म अप्राकृतिक चुदाई में जुटे हुए थे.. दोनों के शरीर पसीने से लथबथ हो गए थे.. महारानी का जिस्म गर्मी और चुदाई के कारण लाल हो गया था..
बेहद कसी हुई गांड ने शक्तिसिंह को ओर टिकने न दिया... लंड के चारों तरफ से महसूस होते दबाव ने शक्तिसिंह को शरण में आने पर मजबूर कर दिया.. उसके अंडकोश संकुचित होकर अपना सारा रस लंड की ओर धकेलने लगे... एक तेज झटका देकर शक्तिसिंह के लंड ने महारानी की गांड को अपने वीर्य से पल्लवित कर दिया... तीन चार जबरदस्त पिचकारी मारकर लंड ने अपना सारा गरम घी महारानी की गांड में उंडेल दिया।
गरम वीर्य का स्पर्श अंदर होते ही महारानी को बेहद अच्छा लगा... जैसे उनके घाव पर मरहम सा लग गया.. पर अभी वह स्खलित नहीं हुई थी... इसलिए अपने भगांकुर को बड़ी ही तीव्रता से रगड़ते जा रही थी। इस बात से बेखबर शक्तिसिंह ने अपने लंड को महारानी की गांड से सरकाकर बाहर निकाल लिया... जंग से लौटे सिपाही जैसे उसके हाल थे.. वह बगल में खड़ा होकर हांफ रहा था..
अपनी चुत को रगड़ते हुए महारानी उसके तरफ मुड़ी... और इशारा कर शक्तिसिंह को घास पर लेट जाने को कहा... शक्तिसिंह के लेटते ही वह अपनी टांगों को फैलाकर उसके मुंह पर सवार हो गई... महारानी की स्खलन की जरूरत को भांपते ही शक्तिसिंह की जीभ अपने काम पर लग गई और उस द्रवित चुत को चाटने लगी... चुत के भीतर के गुलाबी हिस्सों को शक्तिसिंह की जीभ कुरेद रही थी... महारानी की उंगली भी अपनी क्लिटोरिस को रगड़कर अपनी मंजिल को तलाश रही थी...
शक्तिसिंह के मुंह को चोदते हुए महारानी का शरीर अचानक लकड़ी की तरह सख्त होकर झटके खाने लगा... शक्तिसिंह के मुंह पर चुत रस का भरपूर मात्रा में जलाभिषेक हुआ... सिहरते हुए महारानी झड़ गई... और काफी देर तक उसी अवस्था में शक्तिसिंह के मुंह पर सवार रही। थोड़ी देर बाद वह धीरे से ढलकर शक्तिसिंह के बगल में घास पर ही लेट गई...
"वचन दो मुझे की मुझसे और मेरे गर्भ में पनप रही हमारी संतान से मिलने तुम आओगे..."
"जी महारानी जी.. "
थोड़ी देर के विश्राम के बाद दोनों की साँसे पूर्ववत हुई और वास्तविकता का एहसास हुआ... सब से पहले शक्तिसिंह उठ खड़ा हुआ और उसने अपने वस्त्र पहने... फिर आसपास गिरे घाघरे और चोली को समेटकर उसने महारानी को दिए.. प्रथम गाँड़ चुदाई से उभरती हुई महारानी भी धीरे से उठी और अपने वस्त्र पहन लिए।
शक्तिसिंह अपने घोड़े पर सवार हुआ.. और महारानी भी छावनी की तरफ चल दी।
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सूरज ढलने की कगार पर था और तभी क्षितिज पर महाराज का खेमा लौटता हुआ नजर आया.. उन्हे देखते ही छावनी में हलचल मच गई.. शिकार से वापिस आ रहे सैनिक काफी सुस्त नजर आ रहे थे... क्योंकी काफी गर्मी थी.. पर उनके चेहरे पर खुशी थी.. आज कुल मिलाकर उन्होंने २५ हिरण, २ तेंदुओ और १०० से ज्यादा खरगोशों का शिकार किया था... छावनी के बीच उन शिकार का जैसे ढेर सा बन गया... आज की दावत बड़ी ही खास होने वाली थी..
थकी हुई राजमाता लड़खड़ाती चाल से चलते अपने तंबू में चली गई... लग रहा था की पूरे दिन बाहर घूमने का परिश्रम उन्हे राज नहीं आया था... महाराज भी शराब की तलब को शांत करने अपने तंबू में लौट गए... सारे सैनिक सुस्ताकर यहाँ वहाँ ढेर होकर आराम करने लगे... उनमें शक्तिसिंह भी शामिल था... महारानी से मिलकर वापिस लौटते हुए उसने काफी दूर से जब महाराज के काफिले को देखा तब उनके पीछे न जाकर... दूसरे रास्ते से उनके काफी आगे निकल गया... जब वह काफिला बढ़ते बढ़ते आगे उससे मिला तब सबको यही प्रतीत हुआ की शक्तिसिंह काफी आगे निकल गए होने की वजह से दिख नहीं रहा था... किसी को भी कुछ शंका न हुई..
यहाँ राजमाता अपने तंबू में पहुंचते ही बिस्तर पर ढेर हो गई... पूरा दिन हाथी पर बैठे रहने से उनकी कमर अटक गई थी और बहुत दर्द कर रही थी... ऊपर से गर्मी ने भी उनकी हालत खराब कर दी थी... शिकार पर जाने का निर्णय करने पर वह अपने आप को ही कोसती रही। उन्होंने आवाज देकर अपनी दासी को बुलाया...
"जी राजमाता जी" सलाम करते हुए दासी ने कहा
"में दर्द से मरी जा रही हूँ.. थोड़ा सा गरम तेल ला और मेरी मालिश कर... हाय रे मेरी कमर" राजमाता दर्द से कराह रही थी
दासी थोड़ी ही देर में गरम तेल लेकर हाजिर हुई... राजमाता के बगल में बैठकर उनकी कमर पर मालिश करने लगी..
"आज खाना ठीक से खाया नहीं था क्या तूने?"
"जी भोजन तो मैंने दोपहर में ठीक से किया था"
"तो फिर हाथ का जोर लगा ठीक से... ये क्या हल्के हल्के सहला रही है...!! रात को सैनिकों के लंडों को तो बड़े जोर से मालिश करती है...लगा जोर ठीक से... मेरी कमर के तो जैसे टुकड़े टुकड़े हो गए हो ऐसा दर्द हो रहा है" अब वह दर्द से पागल हुई जा रही थी...
दासी शरमाते हुए दोनों हाथों से तेल मलने लगी.. पर उसके कोमल हाथों में वोह दम खम नहीं था जो राजमाता को चाहिए था... थोड़ी देर और मालिश के बाद राजमाता ने कहा
"तू छोड़ दे... ऐसे तो सुबह तक मालिश करेगी तब भी मेरा कुछ नहीं होगा... एक काम कर... जाकर शक्तिसिंह को संदेश दे की भोजन के बाद तुरंत यहाँ आ जाएँ"
"आप भोजन करने नहीं आएगी?"
"अरे मरी.. यहाँ दर्द से मेरी जान निकली जा रही है... और तुझे भोजन की चिंता है..!! तू जा अब और जो कहा है वो कर.. हाय में मर गई.. !!"
दासी तुरंत उठकर तंबू से बाहर चली गई और शक्तिसिंह को संदेश पहुंचाकर आई.. शक्तिसिंह भोजन निपटाकर तुरंत राजमाता के तंबू पर पहुंचा..
उसकी आशा के विपरीत, राजमाता बिस्तर पर लाश की तरह पड़ी थी.. रोज की तरह उसने तंबू के परदे को दोनों तरफ अंदर से गांठ मारकर बंद कर दिया ताकि कोई अंदर आ न जाए।
वह राजमाता के बिस्तर पर जाकर उनके पास बैठ गया और राजमाता की पीठ पर हाथ सहलाया।
"आज बड़ी जल्दी बुला लिया आपने? चलिए वस्त्र उतार दीजिए ताकि में आपको तृप्त कर सकूँ"
"कमीने, मेरी हालत तो देख...तुझे ठुकाई करने नहीं बुलाया है... मेरी कमर चूर चूर हो रही है... वहाँ गरम तेल पड़ा है उससे मेरी अच्छे से मालिश कर दे आज"
मुसकुराते हुए शक्तिसिंह ने तेल की कटोरी उठाई... और पेट के बल सो रही राजमाता के शरीर पर सवार हो गया। उनकी कमर पर तेल की धार गिराते हुए वह धीरे धीरे मालिश करने लगा... तेल की धार रिसकर उनके घाघरे में जा रही थी।
"राजमाता, अगर दिक्कत ना हो तो आपका घाघरा उतार दीजिए... सफेद रंग के वस्त्र तेल से खराब हो रहे है"
"अब तेरे सामने नंगा होने में मुझे भला कौन सी दिक्कत होगी!! ले मैंने गांठ खोल दी है... अब तू ही घाघरा खींचकर पैरों से निकाल दे... "
राजमाता ने अपने पेट को थोड़ा सा ऊपर किया और शक्तिसिंह ने बड़ी ही सफाई से घाघरा उतारकर नीचे रख दिया।
अब राजमाता के दो गोल ढले हुए चूतड़ों पर चढ़कर शक्तिसिंह अपने बलवान हाथों से मालिश करने लगा... राजमाता को बड़ी राहत मिल रही थी.. उसके प्रत्येक बार जोर लगाने पर वह कराह उठती... पीठ से लेकर चूतड़ों तक शक्तिसिंह जोर लगाते हुए चक्राकार हाथ घुमा रहा था.. राजमाता के मस्त कूल्हों को देखकर उसके मन में शरारती खयाल आया... चूतड़ों को फैलाकर उसने राजमाता की गांड के छेद पर तेल की धार गिराई...
"हाय रे... ये कहाँ तेल डाल रहा है तू!!"
"आप बस लेटी रहे... और देखें में कैसे आपकी सारी थकान दूर भगाता हूँ.. " राजमाता चुपचाप पड़ी रही
राजमाता की गाँड़ के बादामी घेरे वाले छेद पर तेल लगाकर वह उसके इर्दगिर्द उंगली घुमाने लगा... उंगली को थोड़ा सा दबाते छेद खुल जाता और तेल अंदर चला जाता। साथ ही साथ वह चूतड़ों को भी अपने भारी हाथों से मलकर मालिश किए जा रहा था। इस तगड़े मालिश से राजमाता को बड़ा ही आराम मिल रहा था... राहत मिलते ही उनकी आँख लग गई..
यहाँ शक्तिसिंह राजमाता के रसीले कूल्हों को और गाँड़ के छेद को देखकर उत्तेजित हो रहा था... मालिश के बीच रुककर उसने अपनी धोती उतार दी.. और वापिस राजमाता पर चढ़ गया.. अब उसका सारा ध्यान राजमाता के गाँड़ पर केंद्रित था.. दोपहर पहली बार कसी हुई गाँड़ का स्वाद चखकर उसे बड़ा मज़ा आया था.. असावधान राजमाता की गाँड़ देखकर उसकी आँखों में वासना के सांप लोटने लगे।
अब वह चूतड़ों को अलग कर उंगली पर काफी मात्रा में तेल लेकर राजमाता की गांड में धीरे धीरे सरकाने लगा। महारानी के मुकाबले राजमाता का छेद थोड़ा फैला हुआ था और उंगली भी तेल वाली थी इसलिए आसानी से अंदर चली गई... राजमाता की गांड के अंदर का मुलायम गरम स्पर्श महसूस करते ही शक्तिसिंह सिहर उठा... उसका लंड ताव में आकर राजमाता के घुटनों के ऊपर नगाड़े बजाने लगा...
राजमाता खर्राटे मार रही थी... इसलिए शक्तिसिंह को ओर प्रोत्साहन मिला... उसने अब दूसरी उंगली भी अंदर डाल दी.. राजमाता के खर्राटे अचानक बंद होने से शक्तिसिंह सावधान हो गया पर उनकी आँखें अभी भी बंद ही थी.. शक्तिसिंह ने दोनों उंगलियों को ज्यों का त्यों राजमाता की गांड में ही रहने दिया... कुछ पल के इंतज़ार के बाद खर्राटे फिर शुरू हो गए और शक्तिसिंह का काम भी...
दोनों उंगलियों को गांड में आगे पीछे करते हुए शक्तिसिंह और तेल डालता ही गया ताकि उनका छेद पूरी तरह से चिकना हो जाए... अधिक आसानी के लिए उसने धीरे से राजमाता की दोनों टांगों को बिस्तर पर फैला दिया... अब वह दोनों जांघों के बीच जा बैठा..
अब उसने अपनी योजना पर अमल करना शुरू किया... काफी सारा तेल लेकर वह अपने कड़े लंड पर मलने लगा.. उसका काल मूसल अब तेल से लसलसित हो चुका था.. अब एक हथेली से उसने राजमाता के कूल्हे को पकड़े रखा और हल्का सा जोर लगाकर अपना सुपाड़ा अंदर घुसेड़ दिया...
थकान के मारे लगभग बेहोश अवस्था में सो रही राजमाता की नींद अब भी नहीं खुली। शक्तिसिंह ने धीरे धीरे अपने लंड को अंदर सरकाना शुरू किया... आधे से ज्यादा लंड अंदर घुसाने पर भी जब राजमाता ने कोई हरकत न की तब उसने एक मजबूत झटका लगाते हुए पूरा लंड अंदर धकेल दिया...
राजमाता की नींद खुल गई.. उन्हे पता नहीं चल रहा था की आखिर क्या हो गया!! होश संभालते ही उन्हे ऐसा प्रतीत हुआ जैसे उनकी गांड में किसी ने जलती हुई मशाल घोंप दी हो!! शक्तिसिंह के शरीर के वज़न तले दबे होने के कारण वह ज्यादा हिल भी नहीं पा रही थी... मुड़कर देखने पर पता चला की शक्तिसिंह उनपर सवार था... फिर उन्हे अंदाजा लगाने में देर न लगी की आखिर उनकी गांड में क्या जल रहा था!!
"क्या कर रहा है कमीने? निकाल अपना लंड बाहर... " गुस्से में आकर राजमाता ने कहा
शक्तिसिंह आज अलग ही ताव में था.. राजमाता की मुलायम चौड़ी गांड का नशा उसके सर पर चढ़ चुका था.. इतने दिनों से राजमाता को चोदने के बाद वह इतना तो जान चुका था की उसकी थोड़ी बहुत मनमानी को सह लिया जाएगा...
"अपना शरीर ढीला छोड़ दीजिए राजमाता जी... फिर देखिए इसमें कैसा आनंद आता है.." उनके कानों में शक्तिसिंह फुसफुसाया
"कैसा आनंद? पीछे भी भला कोई डालता है क्या? पता नहीं कहाँ से ऐसी जानवरों वाली चुदाई सिख आया है"
"मेरा विश्वास कीजिए, आप अगर अपने पिछवाड़े की मांसपेशियों को थोड़ा सा शिथिल कर देगी तो जरा भी कष्ट न होगा और मज़ा भी आएगा"
"मुझे बिल्कुल भी मज़ा नहीं आ रहा है... पीछे जलन हो रही है... इतना मोटा लंड तूने अंदर घुसया कैसे यही पता नहीं चल पा रहा मुझे... "
शक्तिसिंह को लगा की बिना राजमाता को उत्तेजित किए वह उन्हे आगे का कार्यक्रम करने नहीं देगी... उसने उनकी जांघों के नीचे अपना हाथ सरकाया और उनके दाने को अपनी उंगलियों की हिरासत में ले लिया... उसे रगड़ते ही राजमाता सिहरने लगी..
"तुझे चुदासी चढ़ी ही थी तो पहले बता देता... में घूम जाती हूँ... फिर चाहे जितना मन हो आगे चोद ले.. "
"राजमाता जी, अब यह शुरू किया है तो खतम करने दीजिए... आपसे विनती है मेरी.. "
राजमाता मौन रहकर अपने दाने के घर्षण पर ध्यान केंद्रित करने लगी।
शक्तिसिंह धीरे धीरे धक्के लगा रहा था ताकि राजमाता कष्ट से उसे रोक न दे.. अब वह एक हाथ से राजमाता के भगांकुर को रगड़ रहा था और दूसरे हाथ से उनकी चुची... महारानी और राजमाता से इतनी बार चुदाई करके उसे यह ज्ञात हो गया था की स्त्री के कौनसे हिस्सों को छेड़ने से उनकी उत्तेजना तीव्र बन जाती है... उसने उनकी गर्दन के पिछले हिस्से को चाटना और चूमना भी शुरू कर दिया...
इन सारी हरकतों ने राजमाता को बेहद उत्तेजित कर दिया... और उस उत्तेजना ने गांड चुदाई के दर्द को भुला दिया.. वह सिसकियाँ भरते हुए अपने दाने के घर्षण, चुची के मर्दन और गर्दन पर चुंबन का तिहरा मज़ा ले रही थी।
भगांकुर को रगड़ते हुए अपनी उंगली राजमाता के भोसड़े में डालते हुए अंदर के गिलेपन का एहसास होते ही शक्तिसिंह को राहत हुई... अब उसे यह विश्वास हो गया की उसे यह अनोखी गाँड़ चुदाई बीच में रोकनी नहीं पड़ेगी...
अब शक्तिसिंह ने धक्कों की तीव्रता और गति दोनों बढ़ाई... राजमाता उफ्फ़ उफ्फ़ करती रही और वह उनके दाने को दबाकर चुत में उंगली घुसेड़ता रहा... अपने शरीर का पूरा भार रख देने के बाद भी उसका थोड़ा सा लंड का हिस्सा अभी भी बाहर था... राजमाता की गद्देदार गांड को वह बड़े मजे से चोदता रहा... चोदने के इस नए तरीके का ईजाद शक्तिसिंह को बेहद पसंद आया...
"अब बहोत हो गया... या तो तू झड़ जा या फिर मेरी गांड से लँड बाहर निकाल... " राजमाता कसमसाई
"बस अब बेहद करीब हूँ... मुझे मजधार में मत छोड़िएगा.. " हांफते हुए धक्के लगाते शक्तिसिंह ने कहा
राजमाता के भोसड़े से हाथ हटाकर अब वह दोनों स्तनों को मजबूती से मसलने लगा... शकतसिंह की जांघें और राजमाता के चूतड़ इस परिश्रम के कारण पसीने से तर हुए जा रहे थे...
"बस अब छोड़ मुझे... खतम कर इसे जल्दी... " राजमाता कराह रही थी...
शक्तिसिंह ने पिस्टन की तरह अपने लंड को राजमाता के इंजन की अंदर बाहर करना शुरू कर दिया... अंतिम कुछ धक्के देते हुए दहाड़कर शक्तिसिंह ने राजमाता की गांड अपने वीर्य से गीली कर दी... अपने पिछवाड़े में गरम तरल पदार्थ का स्पर्श राजमाता को भी अच्छा लगा... अंदर ज्यादा देर ना रुककर उसने अपना लंड बाहर निकाल लिया... राजमाता ने भी चैन की सांस ली और पलट गई... हांफते हुए शक्तिसिंह भी बगल में लेट गया..
"आज के बाद तू मेरी गांड से दूर ही रहना... " इस सदमे से राजमाता अभी उभरी नहीं थी...
"क्यों? आपको मज़ा नहीं आया?" मुसकुराते हुए शक्तिसिंह ने कहा
"खाक मज़ा... मेरी जान हलक में अटक गई थी.. "
"पहली बार में तो दर्द होता ही है ना... आगे करवाओ या पीछे.. "
"बात तो तेरी सही है.. मेरे पति ने जब पहली बार मुझसे संभोग किया था तब मुझे काफी रक्तस्त्राव हुआ था.. और दर्द की कोई सीमा न थी.. पर यह तो काफी अलग था... मैंने कभी अपने पीछे लेने की सोची न थी.. और बिना किसी अंदेशे के तूने अपना गधे जैसा लंड डाल दिया तो दर्द तो होगा ही ना!!
"पर अब दूसरी बार करेंगे तब दर्द नहीं होगा... बल्कि आप भी आनंद उठा पाएगी.. "
"तू दूसरी बार की बात कर ही मत... एक तो यहाँ पहले से पूरा जिस्म दर्द कर रहा था... ऊपर से तूने पीछे डालकर एक और अंग को दर्द दे दिया।"
"चिंता मत कीजिए राजमाता... इस संभोग से आपके पूरे शरीर में रक्तसंचार तेज हो गया है.. इसलिए अब जिस्मानी दर्द कम हो जाएगा"
"हम्म अब तू जा यहाँ से.. और मुझे विश्राम करने दे" राजमाता ने करवट लेटे हुए कहा
शक्तिसिंह ने अपने कपड़े पहने और मुस्कुराते हुए तंबू से बाहर निकल गया।
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उधर महाराज कमलसिंह के बिस्तर से उठकर चन्दा ने अपने कपड़े पहने... महाराज तो मरे हुए मुर्गे की तरह पड़े हुए थे.. पिछली रात चन्दा ने अपनी चुत की मजबूत मांसपेशियों में राजा के लंड को दबोच कर ऐसा मरोड़ा था की उनके लंड में मोच आ गई थी... उसके बाद उनका लंड पिचक कर बाहर निकल गया और चन्दा को अपने भगांकुर को मसलकर झड़ना पड़ा था.. महाराज के साथ चन्दा को जरा सी भी तृप्ति का एहसास नहीं होता था पर क्या करती..!! महाराज के हुकूम की अवहेलना भी तो नहीं कर सकती थी..
बचपन से ही तगड़े कदकाठी वाली चन्दा के दोस्त सारे लड़के ही रहे थे... लड़कियों वाले खेल उसने कभी खेले ही नहीं थे... जवान होने के बाद वह इतनी शक्तिशाली और बलिष्ठ बन गई थी की ना ही उसमें लड़कियों वाली नजाकत थी और ना ही छरहरा बदन... अमूमन कोई पुरुष उसमें ज्यादा दिलचस्पी नहीं लेता था... इसलिए वह काफी लंबे अरसे तक अनछुई ही रही थी.. ज्यादातर उसे हस्तहमैथुन से ही अपने आप को संतुष्ट करना पड़ता था..
आधे घंटे बाद नाश्ता करने महाराज और महारानी मेज पर बैठे थे तब दोनों के बीच साहजीक बातें हो रही थी... थोड़ी देर बाद लँगड़ाते हुए राजमाता आती दिखाई दी.. उनके चेहरे पर थकान की रेखाएं थी.. हर कदम चलने पर उन्हे दर्द होता प्रतीत हो रहा था।
"क्या हुआ माँ... आप ऐसे लँगड़ाते हुए क्यों चल रही है?" आश्चर्यसह महाराज ने पूछा
अब क्या बताती राजमाता? कल रात को शक्तिसिंह ने उनकी गांड के ऐसे तोते उड़ा दिए थे की एक कदम चलने में उन्हे भारी दर्द हो रहा था.. मन ही मन में शक्तिसिंह को कोसते हुए वह कराहकर कुर्सी पर बैठ गई।
"कल पूरा दिन हाथी पर बैठे बैठे कमर जकड़ गई थी... आदत नहीं है ना मुझे!! दो दिन मालिश करवाऊँगी तो ठीक हो जाएगा.." राजमाता ने उत्तर दिया
फिर उन्होंने महारानी की तरफ मुड़कर कहा
"दासियों ने मुझे सूचित किया की कल आप अकेले ही नदी किनारे सैर पर निकल गई थी?"
"जी वो कल अकेले बैठे बैठे ऊब सी गई थी... सोचा नदी के निर्मल जल को देखकर मन को थोड़ा सा प्रसन्न कर दूँ.."
"पर तुम्हारा ऐसे अकेले जंगल में घूमना ठीक नहीं है.. अब से तुम बिना किसी को साथ लिए कहीं नहीं जाओगी" कड़े सुर में राजमाता ने कहा
"जी नहीं जाऊँगी" आँखें झुकाकर महारानी ने उत्तर दिया
"और बेटा... आज नहीं जाओगे शिकार पर?" राजमाता ने कमलसिंह से पूछा
"नहीं माँ... मेरा भी शरीर आज दर्द कर रहा है... और गर्मी भी काफी हो रही है.. सोच रहा था की आज का दिन विश्राम ही कर लूँ" शरीर तो नहीं पर महाराज का लंड दर्द कर रहा था... पगलाई घोड़ी की तरह चन्दा ने कल उन पर ऐसी चढ़ाई कर दी थी की महाराज कुछ करने के काबिल बचे नहीं थे...
नाश्ता करने के बाद तीनों अपने तंबू की ओर लौट गए ।
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उस रात महाराज बड़ी ही बेचैनी से अपने तंबू में बैठे शराब पी रहे थे... रात का वक्त हो चला था और हवसी मन में इच्छाएं प्रकट होने लगी थी.. पर लंड अभी भी कल की चुदाई के दर्द से नहीं उभरा था... पिछली रात चन्दा ने अपनी फौलादी चुत से लंड को ऐसे निचोड़ा था की लंड को मोच सी आ गई थी... लिंग की मांसपेशियाँ दर्द कर रही थी... ऐसी बलवान जिस्म वाली स्त्री अगर लंड पर कूदेगी तो और क्या होगा!!
दर्द के बावजूद महाराज व्यग्र थे... उन्होंने चन्दा को आवाज लगाई... चंद तुरंत हाजिर हुई
"अरी चन्दा... कल तूने मेरे लंड के साथ क्या कर दिया?? सुबह से दर्द कर रहा है" महाराज के चेहरे पर दर्द की रेखाएं उभर आई
"जी मैंने तो वही किया जो हम पिछली दो रातों से करते आ रहे है.." भोली बनने का अभिनय करते हुए चन्दा ने कहा... जबकी उसे भलीभाँति मालूम था उसकी चुत की गिरफ्त में महाराज के लंड का यह हाल हुआ है।
महाराज ने चन्दा के सामने अपनी धोती खोल दी... अंदर सा उनका मरा हुआ लंड प्रकट हुआ... सूखी हुई भिंडी जैसा लंड देखकर चंद को मन में ही हंसी छूट गई।
"देख इसका हाल... अब तू है कर कुछ इलाज... "
"महाराज में कोई वैद्य तो हूँ नही जो इसका इलाज कर सकूँ... "
"जानता हूँ... पर इसे मुंह में लेकर चूस तो सकती है ना... "
सुनकर चन्दा का मुंह उतर गया... उसे लंड चूसना बिल्कुल पसंद नहीं था... घिन आती थी उसे... और कोई फौलादी तगड़ा लंड होता तो बात अलग थी.. यहाँ तो महाराज का मरे हुए चूहे जैसा लंड चूसना था...
"सोच क्या रही है!!! चल बैठ नीचे और चूसना शुरू कर दे... " कुर्सी पर बैठे महाराज ने अपनी टाँगे खोली
बेमन से झिझकते हुए चन्दा अपने घुटनों के बल, महाराज की कुर्सी के सामने बैठ गई.. महाराज के मुरझाए लंड को हाथ में लेकर थोड़ी देर खेलती रही.. लंड की चमड़ी को हल्का सा नीचे उतारते ही छोटे से कंचे जैसा महाराज का सुपाड़ा डरते हुए बाहर निकला... अब इस विचित्र जीव को कैसे मुंह में ले यही सोच रही थी चन्दा...
"क्या सोच रही है, मुंह में लेकर चूसना शुरू कर... "आदेशात्मक आवाज में महाराज ने कहा
अब चन्दा के पास चूसने के अलावा और कोई चारा न था... उसने मुंह बिगाड़कर महाराज के लंड के मुख को अपने होंठों से लगाए... उसके मोटे होंठों के बीच महाराज का मुरझाया लंड बीड़ी जैसा लग रहा था... वह उनके सुपाड़े को चूसना शुरू ही कर रही थी तब महाराज ने उसके सिर को अपने लंड पर दबा दिया... उनका पूरा लंड चन्दा के मुंह में चला गया...
महाराज की इस हरकत से चन्दा को बड़ा गुस्सा आया... फिर भी वह अपने मुंह को आगे पीछे करते हुए चूसती गई... करीब पाँच मिनट तक चूसने के बाद भी महाराज के लंड में जरा सी भी सख्ती नहीं आई...
"रुक जा... और अपनी छातियाँ खोल दे... " महाराज ने उसका सिर पकड़कर रोकते हुए कहा
चन्दा यंत्रवत खड़ी हो गई और अपना कवच निकालने लगी... भीतर पहना हुआ वस्त्र जो पसीने से गीला हो चला था... उसे भी उसने उतार दिया... भरे हुए मोटे साँवले बैंगन जैसे उसके दोनों स्तन यहाँ वहाँ झूलने लगे... उसकी दोनों निप्पल दबी हुई थी क्योंकी इस गतिवधि में उसे रत्तीभर भी उत्तेजना नसीब नही हुई थी।
महाराज उसके दोनों उरोजों को हथेलियों में भरकर मसलने लगे.. चन्दा को अपनी ओर खींचकर उसके स्तनों को चाटने और चूमने लगे... अपने एक हाथ को उन्होंने चन्दा की घाघरी के अंदर डाल दिया... उसकी लंगोट को सरकाकर चुत में उंगली करने का प्रयास करने लगे... चन्दा का पूरा योनिमार्ग सूखा और ऋक्ष था... फिर भी महाराज अपनी उंगली अंदर घुसेड़ने का प्रयास कर रहे थे जिससे चन्दा को हल्की सी पीड़ा का एहसास हो रहा था... वह चाहती थी की महाराज जल्द से जल्द निपट जाएँ ताकि उसका छुटकारा हो...
चन्दा के मजबूत शरीर की निकटता प्राप्त कर महाराज का लंड हरकत में आने लगा... पूर्णतः खड़ा तो नही हुआ पर उसमें सख्ती जरूर दिखने लगी थी.. महाराज भी यह देख खुश हुए और मन में राहत भी हुई की उनके लंड में अभी भी जान बची थी...
अब उन्होंने चन्दा को खींचकर वापिस नीचे बैठा दिया और अपना लंड उसके मुंह में फिर से दे दिया... जल्दी निपटारा चाहती चन्दा ने भी तेजी से अपना मुंह ऊपर नीचे करना शुरू कर दिया... पुरुषों की शरीर-रचना से परिचित चन्दा ने उनके टट्टों को पकड़कर हल्के से दबाया... और महाराज उसके मुंह में ही झड़ गए... उनके स्खलन से गिनकर तीन-चार बूंद वीर्य की निकली जिसका स्वाद मुंह में लगते ही चन्दा का स्वाद बिगड़ गया... ऐसे बेजान पानी जैसे अल्प मात्रा में निकलते वीर्य से आखिर महाराज ने महारानी को कैसे गर्भवती किया होगा, चन्दा सोचती रही...
अपने मुंह पर हाथ दबाकर वह खड़ी हो गई... और तंबू के कोने में जाकर उसने वह वीर्य थूक दिया... मुंह का स्वाद ठीक करने के लिए उसने पास पड़े मेज से शराब की सुराही उठाई और उसे सीधे अपने मुंह में उंडेल दिया... तीन-चार घूंट पीकर उसे कुछ अच्छा लगा.... स्खलन के बाद महाराज गहराई आँखों से कुर्सी पर अपना सिर टिकाए सुस्त पड़े थे... चन्दा ने घृणित नजर से महाराज को देखा, अपने वस्त्र पहने और वहाँ से चली गई...
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दूसरे दिन शिकार यात्रा का खेमा जंगल से सूरजगढ़ लौट आया...
एक दिन सब ने विश्राम करने में ही व्यतीत कर दीया.. उस दिन शाम के समय राजमाता अपने कक्ष में कुर्सी पर बैठे पुस्तक पढ़ रही थी तभी दासी ने आकार सूचित किया की उनसे मिलने दीवान जी आए थे। राजमाता ने तुरंत उन्हे अंदर बुलाने को कहा..
थोड़ी ही देर में, थुलथुले शरीर वाले दीवानजी अंदर पधारे... गले में मोतियों की माला और सिर पर सुनहरे रंग की पग़डी पहने दीवानजी की उम्र लगभग ५५ साल के करीब थी... राजमाता को सलाम कर वह उनके इशारे पर सामने रखी कुर्सी पर बैठ गए।
"कहिए दीवानजी, कैसे आना हुआ..?" राजमाता ने पूछा
"राजमाता जी, कल सुबह से दरबार की गतिविधियां आरंभ हो रही है... में चाहता हूँ की आप इस बार दरबार का संचालन करें... काफी सारे प्रश्न है जिनका समाधान ढूँढना है.. कर व्यवस्था में बदलाव करना है... राज्य की आय का ब्योरा भी करना है.. और सुरक्षा से लेकर भी काफी निर्णय करने है.. इस लिए आपकी मौजूदगी अनिवार्य है" दीवानजी ने बड़े ही अदब के साथ कहा
"पर ये रोजमर्रा की गतिविधियां तो महाराज को ही संभालनी चाहिए... तुम उनसे क्यों नही बात करते?"
राजमाता की बात सुनकर दीवानजी का मुंह उतर गया
"राजमाता जी, आपसे मिलने आने से पहले में उनसे ही मिलने गया था... वह प्रायः उनकी प्रवृत्तियों में काफी व्यस्त है और दरबार में पधार नही सकते.. इसलिए में यह दरख्वास्त आप के पास लेकर आया.. "
यह सुनकर राजमाता ने एक गहरी सांस ली.. अपने पुत्र को वह भलीभाँति जानती थी.. उसकी प्रवृत्तियाँ मतलब भोग-विलास और मदिरापान... ज्यादातर महत्वपूर्ण बातों को राजमाता ही संभालती आई थी.. इसलिए महाराज कमलसिंह का राज्य के कारभार में कुछ ज्यादा योगदान कभी नही रहा था... जब कमलसिंह युवा थे तब राजमाता सोचती थी की समय के साथ वह अपनी जिम्मेदारियों को निभाने में सक्षम बन जाएगा... पर वह तो किसी भी प्रकार की जवाबदेही से बचता ही रहता था... गनीमत थी की सूरजगढ़ में खेती और व्यापार काफी मात्रा में होता था इसलिए कर की आय से राज्य का खजाना कभी खाली नही रहता था... पर किसी भी राज्य के दिन-ब-दिन के प्रसाशन और व्यवस्थापन के काम का मुआयना करना अति-आवश्यक होता है...
राजमाता सोच में पड़ गई... इतना समय व्यतीत होने पर... और काफी बार समझाने के बावजूद महाराज कमलसिंह अपनी जिम्मेदारियों को गंभीरता से नही ले रहे थे... और अब कुछ ही समय में महाराज का उत्तराधिकारी भी आने वाला था... ऐसी सूरत में राज्य की स्थिरता बड़ी ही महत्वपूर्ण थी... राजमाता अब फिरसे राज्य की बागडोर को संभालने का निर्णय ले चुकी थी... पर उनके अकेले से यह जिम्मेदारी निभा पाना थोड़ा कठिन था..
काफी सोच-विचार के पश्चात, राजमाता ने उत्तर दिया
"ठीक है... आप तैयारी कीजिए.. कल दरबार का संचालन हम करेंगे"
दीवानजी यह सुनकर चिंता मुक्त हो गए... सारे मंत्री गण और दीवानजी खुद राजमाता की कुशलता के बारे में आश्वस्त थे.. दीवानजी ने कुर्सी से खड़े होकर राजमाता को सलामी दी... और उनके कक्ष से चले गए...
दूसरे दिन सुबह राजमाता की अगुवाई में दरबार की कार्यविधि को शुरू किया गया... राजमाता सिंहासन पर बिराजमान थी और उनके दोनों तरफ लगे आसनों पर सारे मंत्री, दीवानजी और सेनापति बैठे हुए थे...
एक के बाद एक समस्या और मसले पेश किए गए और राजमाता ने उन सबका त्वरित निराकरण भी कर दिया.. राजमाता की इस कुशलता के सारे मंत्रीगण कायल थे.. इसी कारणवश राजसभा में महाराज से ज्यादा राजमाता का रुतबा था।
इसी अवधि के दौरान एक भटकते हुए पुरुष ने राजमाता से मिलने की मांग की। आम नागरिकों के लिए राजमाता से मिलना और अपनी शिकायतें बताना बिल्कुल भी असामान्य नहीं था। वास्तव में उन्होंने इसका स्वागत किया और इसके लिए समय भी निश्चित कर दिया। लेकिन मुलाकात के पहले मिलने का उद्देश्य बताना आवश्यक रहता था ताकि अधिकारी राजमाता को मुलाकात की तैयारी में मदद करने के लिए पहले से ही प्रासंगिक जानकारी इकट्ठा कर सकें। राजमाता सभी की बातें विस्तार से सुनती थी और वास्तव में इन बैठकों को गंभीरता से लेती थी।
हालाँकि इस पुरुष ने मुलाकात का उद्देश्य बताने से इनकार कर दिया; सिवाय यह बताने के कि वह राजमाता की मदद करने के लिए यहां आया था और उससे अकेले में बात करेगा, किसी भी निम्न अधिकारी या मंत्री से नहीं। और इसलिए, निस्संदेह, अधिकारियों ने उसे राजमाता तक पहुंचने से वंचित रखा। अपने अहंकार के अलावा ऐसा नहीं लगता था कि उनके पास देने के लिए और कुछ है। वह लंबा, गौर वर्ण का आकर्षक और रहस्यमयी व्यक्तित्व का स्वामी था। उसका लंबा पतला शरीर और लंबा ललाट, उसके ज्ञानी और तपस्वी होने की पुष्टि कर रहा था। उसने बेदाग सफेद धोती पहन रखी थी, उनके नंगे धड़ पर रंगबिरंगी पत्थरों से बनी माला लटक रही थी। उसकी सारी सांसारिक संपत्ति कपड़े के एक छोटी सी गठरी में एकत्रित थी जो उसके दूसरे कंधे से लटक रही थी।
मुलाकात का अवसर ना मिलने पर वह हड़बड़ाकर वहाँ से चला गया और महल के द्वार के सामने डेरा लगाकर बैठ गया और इंतजार करने लगा। एक तपस्वी सदैव प्रतीक्षा कर सकता है क्योंकि उसकी इच्छाएँ और जरूरतें कम होती हैं। इस पुरुष के मामले में उन आवश्यकताओं की पूर्ति वहाँ से गुजरने वाले सामान्य लोगों द्वारा की जाती थी जो ऐसे तपस्वी ज्ञानी की सलाह और आशीर्वाद का सम्मान करते थे। आते जाते लोग भोजन और दैनिक जीवन के लिए आवश्यक अन्य वस्तुएँ छोड़ जाते थे।
कई दिनों के पश्चात राजमाता को इस दिव्य पुरुष के अस्तित्व के बारे में पता चला। फिर, जिज्ञासावश उसे मिलने की अनुमति देने के लिए प्रेरित किया। बुलावा भेजने पर सैनिक उसे लेकर हाजिर हुए। वह भावहीन चेहरे के साथ राजमाता के सामने खड़ा हो गया और इंतजार करने लगा। न कोई प्रणाम, न कोई अभिवादन, बस सिर्फ मूक दृष्टि!!!
आख़िरकार राजमाता ने कहा, "तुम मुझसे क्यों मिलना चाहते थे?"
"यह तय करने के लिए की क्या आप साम्राज्ञी बनने के लिए तैयार है या अभी भी केवल राजमाता ही बनी रहना चाहती है!!"
उस व्यक्ति के इस अत्यधिक अहंकार को देखकर दरबारियों में हंगामा मच गया और एक सैनिक तो उस पर हमला करने के लिए भी उठा, लेकिन राजमाता ने इशारे से उसे रोक दिया गया। इस व्यक्ति में राजमाता को रुचि जगी। शायद उसके पास अपने हास्यास्पद दावे का समर्थन करने के लिए कुछ था या शायद वह सिर्फ एक अहंकारी मूर्ख था। राजमाता ने सोचा, चलो पता लगाएं!!
"हम्म.. तो तुम्हारे आने का प्रयोजन तो पता चल गया... अब अपने बारे में भी तो कुछ बताओ"
"मेरा नाम विद्याधर है... और में विंध्य पर्वतों की तलहटी में बसे एक गाँव से आया हूँ"
"अच्छा विद्याधर, ये बताओ की यहाँ मेरे पास आना कैसे हुआ?" राजमाता को इस पुरुष में दिलचस्पी बढ़ने लगी
"में ज्ञानशीला नगर में शास्त्रों का अभ्यास कर रहा था... आए दिन कोई न कोई राजा उस नगर पर हमला कर देता और मेरे अभ्यास में बाधा पड़ती... तब मेरी रुचि इस भूगोल की राजनैतिक विषमताओ पर पड़ी.. यह प्रदेश कई राज्यों में बंटा हुआ है और सक्षम नेतृत्व के अभाव के कारण सारे राजा एक दूसरे से हमेशा लड़ते रहते है.. जरूरत है एक ऐसे सबल नेता की जो अपनी छाँव में सारे राज्यों को संभालकर एकता से जीना सीखा सके.. उन राजाओं के अहंकार और झूठी शान के खातिर सेंकड़ों सैनिकों की मृत्यु हो जाती है.. उनके परिवार अनाथ हो जाते है... आम जनता का जीवन भी व्याकुलता से भर जाता है... सक्षम राजाओं के लिए युद्ध अपना राज्य बढ़ाने का जरिया होगा पर आम प्रजाजनों का जीवन इससे नरक बन जाता है.. किसान खेती नही कर पाते, व्यापारी अपना उद्योग चला नही पाते... आवश्यक चीजें नही मिल पाती... महंगाई आसमान छु जाती है.. काफी गहन विचार के बाद में इस निष्कर्ष पर पहुंचा की अगर किसी सक्षम राज्य के नेतृत्व में अगर इन सारे कुनबों को ला दिया जाए तो इस खून खराबे का अंत हो जाएगा... प्रजाजन अपना जीवन खुशाली से व्यतीत कर पाएंगे... खेती और व्यापार बढ़ेगा तो सबका फायदा होगा!! काफी अध्ययन के बाद मुझे सूरजगढ़ की राजमाता में वह सारे गुण नजर आए जो में ढूंढ रहा था...में चाहता हूँ की आपके नेतृत्व में एक मजबूत साम्राज्य स्थापित किया जाए, फिर एक ऐसा राजवंश स्थापित होगा जो सैकड़ों वर्षों तक फैला रहेगा। मैं जानता हूं कि यह हमेशा के लिए नहीं रहेगा लेकिन यह मेरा उद्देश्य नहीं है। मेरा उद्देश्य, सबसे पहले और सबसे महत्वपूर्ण यही है की इस खूनखराबे और युद्धों को रोका जाएँ!!"
राजमाता इस पुरुष की असखलित वाक छटा से काफी प्रभावित होकर सुनती ही रही... !!!
"जैसे चाणक्य ने चन्द्रगुप्त को योग्य तालिम देकर एक सक्षम महाराजा बनाया था उसी तरह में आपको एक महान साम्राज्ञी बनने में आपकी सहायता करूंगा... और वो भी तब जब मुझे यह विश्वास हो जाएँ की आप इसके लिए योग्य हो!!"
उस पुरुष की बातें सुनते ही पूरी सभा आक्रोश से भर गई... यह टुच्चे आदमी की यह जुर्रत की वह राजमाता की योग्यता तय करेगा?? सेनापति अपने आसन से उठ खड़े हुए और उन्होंने अपनी तलवार निकाल ली। वह क्रोध से थरथर कांप रहे थे।
"राजमाता जी, आप आदेश करें तो एक पल में इस अहंकारी का सिर, धड़ से अलग कर दूँ"
राजमाता ने उत्तर नही दिया... वह इस तेजस्वी पुरुष की आँखों की चमक देखती रही... कुछ तो बात थी उसमें.. इतना विश्वास किसी इंसान में ऐसे ही नही प्रकट होता... किसी भी निर्णय पर पहुँचने से पहले राजमाता उसकी बात को विस्तारपूर्वक सुनना चाहती थी... उन्होंने इशारा कर सभा को बर्खास्त करने का आदेश दिया... थोड़ी ही देर में पूरा सभाखण्ड खाली हो गया... बच गए तो सिर्फ विद्याधर और राजमाता।
"अब बताओ," राजमाता ने कहा, अब वह दोनों अकेले थे, "मैं तुम्हें गंभीरता से क्यों लूं? अशिष्टता और दंभ के अलावा तुम्हारे पास ऐसा क्या है, जो मुझे विश्वास दिलाएगा कि तुम इस कार्य में मेरी मदद कर सकते हो?"
"मेरे पास ज्ञान है, और उस ज्ञान को व्यावहारिक उपयोग में लाने की बुद्धि है," उसने बड़े ही आत्मविश्वास के साथ कहा, "मैंने सभी शास्त्रों का सविस्तार पठन किया है। कई शक्षत्र तो मुझे कंठस्थ है। मैंने लगन से ऐसे गुरुओं की तलाश की है जो न केवल मुझे प्राचीन ग्रंथ या शास्त्र पढ़ाएं बल्कि उनके पीछे की सच्चाई भी समझाएं। मैंने सीखा है कि महान चीजें अलौकिक या परग्रहवासी प्राणियों के कृत्यों से हासिल नहीं की जाती हैं, बल्कि उन विचारों के कठिन अनुप्रयोग से होती हैं जिनके बारे में कोई मानता है कि वे अलौकिक शक्तियों से आते हैं और इन तथाकथित पवित्र ग्रंथों या 'शास्त्रों' में निहित हैं। और जिसे आप अहंकार मानते हैं," विद्याधर ने आगे कहा, "वह असल में अहंकार नही है, मुझ पर, मेरे ज्ञान पर और अपने ज्ञान की व्याख्या करने और उसे क्रियान्वित करने की मेरी बुद्धिशक्ति पर पूर्ण विश्वास है। मैं अपने लक्ष्य के प्रति पूरी तरह से आश्वस्त हूं और मुझे पूरा यकीन है कि मैं इसे हासिल कर सकता हूं अगर मुझे इसके लिए योग्य व्यक्ति मिलें।"
"और मैं तुम्हें कैसे विश्वास दिलाऊं कि वह योग्य व्यक्ति में स्वयं हूं?" राजमाता ने आँखों में चमक लाते हुए पूछा क्योंकि उन्हें यह पुरुष पसंद आने लगा था।
"मेरे कुछ सवालों का उत्तर देकर.. " विद्याधर ने जवाब दिया
"सवाल पूछो," राजमाता ने कहा और इंतजार करने लगी। उन्होंने नाटकीय ढंग से अपनी ठुड्डी के नीचे एक हाथ रखा और अपने चेहरे पर जिज्ञासा के भाव धारण कर लिए। वह इस अहंकारी पुरुष के साथ मानसिक द्वंद्वयुद्ध करने के लिए तैयार थी।
"सच और झूठ में क्या अंतर है?"
"कोई अंतर नहीं है," उन्होंने तुरंत कहा, "वह परिणाम ही है जो सच और जूठ को परिभाषित करता है।" यह कोई मौलिक उत्तर न था... शास्त्रों में इस विषय पर विस्तृत लेखन किया जा चुका है
"शक्ति का सही अर्थ क्या है?"
"यह उन साधनों में से एक है जिसके द्वारा आप अपने लक्ष्यों को प्राप्त करते हैं। इसे प्रभावी ढंग से उपयोग करने के लिए व्यक्ति को इसका प्रतिरूपण करने में सक्षम होना चाहिए। उपयोग किए जाने पर शक्ति दिखाई देती है। मुख्य रूप से इसके उपयोग का खतरा इसे एक उपयोगी साधन बनाता है।
और मैं साधन शब्द पर जोर दे रही हूं, क्योंकि वही सब कुछ है - खुद को अभिव्यक्त करने और अपनी इच्छा थोपने का एक उपकरण। हम सभी के भीतर क्रूरता है, और जो चीज हमें एक दूसरे से अलग करती है,और यह वह है की हम किस हद तक इसे खुद को व्यक्त करने देते हैं।
एक शासक के रूप में यदि मैं इसका अत्यधिक उपयोग करती हूँ तो यह मुझे एक अत्याचारी भी बना सकता है। लेकिन मुझे उससे कोई फरक नही पड़ता, मुझे इसका उपयोग करना होगा फिर भले ही कुछ लोगों के लिए में अत्याचारी बन जाऊँ।"
काफी लंबा-चौड़ा उत्तर था.. राजमाता खुद अचंभित थी की यह सब उनके मन में त्वरित प्रकट कैसे हो रहा है!!
"अच्छे और बुरे में क्या अंतर है?" अगला प्रश्न आया
"कोई अंतर नहीं है," फिर से तुरंत जवाब आया, क्योंकि राजमाता ने स्वयं इस बारे में सोचा था और कुछ समय पहले एक उत्तर तैयार किया था, "यह व्याख्या का विषय है। एक व्यक्ति को मारना बुरा हो सकता है और एक हजार को मारना अच्छा हो सकता है। यह आपकी व्यक्तिगत सोच पर निर्भर करता है... अगर कहना चाहे तो कह सकते है की अंतर केवल दृष्टिकोण का है"
"क्या आप ऊपर वाले की शक्ति को मानते हैं?"
"हाँ, मानती हूँ... " दृढ़तापूर्वक राजमाता ने कहा
"तो अगर आपके गुरु आपसे कुछ न करने के लिए कहें क्योंकि ऊपरवाला नहीं चाहता की ऐसा हो, तो आप क्या करेंगे?"
"यह ऊपरवाले की इच्छा की उनकी व्याख्या होगी और यदि मेरी व्याख्या अलग है तो मैं जैसा चाहूँगी वैसा ही करूंगी।"
"तो फिर ऊपरवाले के क्रोध का क्या करेगी, जिसके बारे में ज्ञानी पुरुष कहते हैं कि यदि आप उसकी इच्छा का पालन नही करेंगे तो आप पर उनका कहर टूट पड़ेगा!!"
"मैंने काफी रीति रिवाजों का पालन नही किया है जिसके बारे में बताया गया था और चेतावनी भी दी गई थी की इसका परिणाम बहुत बुरा होगा और ऊपरवाला मुझे सज़ा देगा। पर देखो, में यहाँ तुम्हारे सामने खड़ी हूँ, चुस्त दुरस्त और एक राज्य की राजमाता...!!" मुसकुराते हुए राजमाता ने उत्तर दिया
वह अपनी बाहों को अपनी छाती पर रखकर खड़ा रहा और बोला "आप बुद्धिमान हैं और स्वतंत्रता से सोचने में सक्षम हैं। आप शिक्षित भी हैं और मुद्दों को निष्पक्षता से देखने में निपुण हैं। आपकी आँखों में देखकर मुझे यह सहज रूप से लगता है कि आप में दया भी है। आपके पास वह सारे महान गुण हैं जो एक काबिल शासक में होने चाहिए।"
"बस इतना ही...!!" राजमाता ने उसकी चुटकी लेते हुए कहा "मैंने कुछ प्रश्नों के उत्तर क्या दे दिए... तुम्हें मेरी योग्यता का विश्वास हो गया!!"
यह सुनते ही उस पुरुष केकठोर चेहरे पर मुस्कान की झलक दिखाई दी।
अपने हाथ जोड़कर, सिर झुकाकर उसने कहा "कृपया मुझे अपना गुरु बनने की अनुमति दीजिए ताकि मैं अपना लक्ष्य प्राप्त कर सकूं और अपने जीवन को अर्थपूर्ण बना सकूं।"
उस पुरुष के अहंकार से विनम्रता की ओर अचानक हुए इस बदलाव ने राजमाता को आश्चर्यचकित कर दिया। आखिर वह चाहता क्या था? उन्होंने सोचा। हालांकि उस पुरुष को पारदर्शी नजर में ईमानदारी झलक रही थी।
"ठीक है," राजमाता ने उत्तर दिया, "देखते हैं तुम क्या कर सकते हो। लेकिन अभी तुम महल के बाहर ही रहो। में सोच के बताऊँगी इस बारे में"
विद्याधर ने हाथ जोड़कर राजमाता को नमन किया और वहाँ से चल दिया...
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सुबह अपनी दिनचर्या निपटाकर राजमाता अपने कक्ष में विविध कसरत कर रही थी... वह हमेशा से कसरत करती ताकि उनकी योनि की मांसपेशियाँ ढीली ना पड़ जाएँ और पेट के इर्दगिर्द चर्बी का जमावड़ा ना हो। उनकी कसरत में तब बाधा आई जब उन्हे अपने कक्ष के बाहर हंगामा सुनाई दिया। प्रतीत हो रहा था कि विद्याधर ने तय कर लिया था कि अब राजमाता को प्रशिक्षित करने का समय आ गया था और उसने पहरेदारों से नजर बचाकर महल में घुसने का प्रयास किया था।
शारीरिक रूप से रोके जाने पर उसने संस्कृत में पहरेदारों को गालियां देना शुरू कर दिया था। इससे पहरेदार डर गए क्योंकि एक तपस्वी के श्राप से निश्चित रूप से हर कोई दर्ता था। सारे पहरेदार अपने मुख्य सैनिक की तलाश में यहाँ वहाँ दौड़ने लगे।
कुछ ही पलों में उनका मुखिया प्रकट हुआ... वह और कोई नहीं पर शक्तिसिंह था... उस पर इस तपस्वी की गालियों का कोई असर नही हुआ.. उसने एक पल में विध्यधार को कंधे से उचक लिया और धमकाकर चुप करा दिया... बलवान शक्तिसिंह की आग उबलती नजर को देखते ही विद्याधर के तोते उड़ गए। अब वह गालियां देने के बजाय डर के कारण जोर जोर से चीखने लगा...
राजमाता इस हंगामे से त्रस्त और परेशान हो गईं। बाहर आकर उन्हों ने शक्तिसिंह को चिल्लाते विद्याधर को छोड़ देने का आदेश दिया। फिर उन्हों ने अपने महल के पहरेदारों को बुलाया और उनसे कहा कि वे विद्याधर को पहचानें और उसे हर समय अंदर आने की अनुमति दें।
आने वाले सप्ताहों में, विद्याधर राजमाता का करीबी बन गया था। वह उन्हे मार्गदर्शन और सलाह देने, कानून पारित करने में मदद करने और निजी तौर पर एक-एक सत्र में उसे शासन करने की कला सिखाने के लिए हमेशा तैयार रहता था। किसी भी समय राजमाता को मिलने में कठिनाई न हो इसलिए उसे महल में निजी कक्ष भी दे दिया गया था।
एक दिन, ऐसा ही एक शिक्षण सत्र चल रहा था जो की कराधान पर केंद्रित था।
यह सत्र गहमा-गहमी हुई क्योंकि विद्याधर इस बात से चिढ़ गया था कि राजमाता को वह बात समझ में नहीं आ रही थी जो वह उन्हें सिखा रहे थे। मामला तब तूल पकड़ गया जब उसने पूछा, "कर बढ़ाए बिना मैं अच्छी तरह से राज्य का संचालन कैसे कर सकती हूँ?"
इससे वह क्रोधित हो गया, "क्या आप सुन नहीं रहे कि मैं क्या कह रहा हूं? क्या आप एक अच्छा शासक और राजवंश के संस्थापक बनना चाहती हो या सिर्फ एक छोटे से राज्य की राजमाता बनी रहना चाहती हो? मुझे बताओ, क्या आप ठीक से सीखना चाहते हो? यदि नहीं, तो बता दीजिए और मेरा समय बर्बाद करना बंद कीजिए।"
"उफ़," राजमाता ने हताशा में कहा, "तुम्हारा अपने गुस्से पर कोई नियंत्रण ही नहीं है। इतने प्रतिभाशाली व्यक्ति होकर भी तुम्हारी भावनात्मक स्थिरता दो साल के बच्चे जितनी है।"
राजमाता के व्यंग्य को पूरी तरह से नजरअंदाज करते हुए, उसने तीखेपन से कहा, "मैं आपके उत्तर की प्रतीक्षा कर रहा हूं।"
हताश राजमाता उसकी बात सुनना चाहती थी, उन्हों ने कहा, "हाँ, हाँ, मैं सुन रही हूँ, मुझे बताओ।"
अपना गुस्सा जाहिर करने के बाद उसने अधिक सौहार्दपूर्ण स्वर में कहा, "इसका निराकरण प्रसाशन का स्थानीयकरण करने में है। आप लोगों को यह तय करने दें कि वे छोटे स्थानीय स्तर पर क्या चाहते हैं। स्थानीय अधिकारियों को लोगों द्वारा चुना जाना चाहिए; चुने गए लोगों को जवाबदेह होने दें और शासक इन झमेलों से दूर ही रहे। आप एक बड़े क्षेत्र के लिये पर्यवेक्षकों को नियुक्त करते हो। उनके चुनाव में आप काफी सावधान रहें कि आप किसे नियुक्त करते हैं और सुनिश्चित करें कि वे स्थानीय राजनीति से दूर रहें। जैसे-जैसे आपका राज्य बढ़ेगा, यह और अधिक महत्वपूर्ण हो जाएगा। इन पर्यवेक्षकों को कभी भी अत्यधिक शक्तिशाली न होने दें। और अपनी सरकार की सबसे छोटी इकाई तक सीमित रखे। हमेशा याद रखें जहां लोग महसूस कर सकें कि वे अपने भाग्य को नियंत्रित करने के लिए सशक्त हैं। अपने करों का बड़ा हिस्सा स्थानीय रखें और सुनिश्चित करें कि लोग स्थानीय स्तर पर खर्च हो रहें पैसों का प्रभाव देख सकें।"
अपनी बात का विचारपूर्वक निष्कर्ष निकाल कर उसने कहा, "अच्छी सरकार प्रदान करने के लिए, अपना राजस्व बढ़ाने के कई तरीके हैं। कर बढ़ाना हर समस्या का हल नही होता।"
"अब काफी अभ्यास हो गया, मेरी राजमाता," विद्याधर ने कहा, और फिर वह नीचे की ओर खिसकते हुए राजमाता के करीब आया जहां वह मुलायम तकियों पर बैठी थी, "अब कुछ आनंद भी कर लिया जाए।"
विद्याधर ने एक झटके में, उनके घाघरे को ऊपर उठा दिया, उनकी जाँघों को अलग कर दिया और अपना चेहरा राजमाता की जांघों में छिपा दिया।
अचानक हुए इस हमले से राजमाता एकदम स्तब्ध रह गई. इतने सप्ताहों की इस रिश्ते में अब तक ऐसा कुछ भी नही हुआ था जो विद्याधर को ऐसा करने पर प्रेरित करें!!!
इससे पहले कि वह दूर हट पाती, या विरोध भी कर पाती, विद्याधर की जीभ राजमाता की योनि की परतों को कुरेदने लगी और उस अनुभूति ने राजमाता के मन को झकझोर को रख दिया। विद्याधर अपनी जीभ से चुत को टटोलने में काफी निपुण था।
शाही तंबूओ के बीचोंबीच सेवकों ने बड़ा सा मेज और कुर्सियाँ लगाई थी... महाराज और उनके परिवार के लिए विविध प्रकार के व्यंजन और फलों का इंतेजाम नाश्ते के लिए किया गया था...
राजमाता और महारानी काफी समय से मेज पर बैठे बैठे महाराज के आने का इंतज़ार करते रहे... अंत में थककर उन्होंने नाश्ता शुरू कर दिया.. थोड़ी देर बाद, महाराज लड़खड़ाती चाल से चलते हुए खाने के मेज तक आए... उनकी आँखें नशे के कारण लाल थी.. पर थकान की असली वजह तो केवल वह और चन्दा ही जानते थे...
"बड़ी देर कर दी आने में... ?" राजमाता ने सेब का टुकड़ा खाते हुए पूछा
"हाँ... रात को नींद आते काफी वक्त लग गया... इसी लिए जागने में थोड़ी देर हो गई.. "
"मुझे तो लगता है की इसका कारण तुम्हारा अधिक मात्रा में मदिरा सेवन ही है..." राजमाता ने ऋक्ष आवाज में कहा
"क्या माँ... आप हर बार यही बात क्यों निकालती है?" महाराज परेशान हो गए
"क्योंकी तुम्हारी ये आदत तुम्हारा स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचा रही है.. अब इस स्थिति में तुम शिकार करने कैसे जाओगे?"
इस बात को बदलने के उद्देश्य से महाराज ने प्रस्ताव रखा
"शिकार पर तो में जाऊंगा ही... में सोच रहा था, क्यों न आप और महारानी भी शिकार पर मेरे साथ चलें? अच्छा अनुभव रहेगा... "
"इस अवस्था में महारानी को ले जाना ठीक नहीं रहेगा..." राजमाता ने कहा
"तो फिर आप ही चलिए... एक बार देखेंगी तो विश्वास होगा की आपके बेटे का निशान कितना सटीक है.. "
राजमाता ने कुछ सोचकर कहा "ठीक है... में तुम्हारे साथ चलूँगी.. इससे पहले मुझे महारानी की देखभाल का प्रबंध करना होगा... तुम तैयार हो जाओ... जब निकलोगे तब में शामिल हो जाऊँगी.. " राजमाता मेज से उठकर अपने तंबू की ओर चल पड़ी।
राजमाता के शिकार पर जाने का प्रयोजन सुनकर महारानी की आँखों में चमक आ गई... वह धीरे से खाने के मेज से उठ खड़ी हुई और तंबुओं के पीछे ओजल हो गई... कुछ दूरी पर स्थित शक्तिसिंह के तंबू में वह दबे पाँव घुस गई... शक्तिसिंह घोड़े बेचकर सो रहा था... उसने शक्तिसिंह को जगाया...
"अरे महारानी आप फिरसे आ गई... !!" अपनी आँखों को हथेलियों से मलते हुए शक्तिसिंह ने कहा
"ध्यान से सुनो... मेरे पास ज्यादा वक्त नहीं है... आज महाराज के साथ राजमाता भी शिकार पर जा रही है... तुम कुछ बहाना बनाकर यहीं रुक जाओ... फिर शाम तक हमारे पास बहुत समय रहेगा... !!" उत्सुक महारानी ने कहा
"आप जानती है की क्या कह रही है? राजमाता ऐसा कदापि होने नहीं देगी... उन्हे जरा भी भनक लगी की में यहाँ रुक गया हूँ तो वह शिकार पर जाएगी ही नहीं... यदि जाएगी भी तो बीच रास्ते वापिस लौटकर हमें रंगेहाथों पकड़ लेगी... "
"तो फिर क्या किया जाए... इस तरह तो हम मिल ही नहीं पाएंगे... " महारानी उदास हो गई
"थोड़ी धीरज रखिए, कुछ ना कुछ रास्ता जरूर निकलेगा... हम जरूर मिल पाएंगे"
"पर कैसे? मुझसे अब और बर्दाश्त नहीं होता..."
शक्तिसिंह मौन रहा... उसके पास इसका कोई उत्तर या इलाज नहीं था...
"नहीं, हमे आज ही मिलना होगा... तुम बीमारी का बहाना बना लो... और सब के जाते ही मेरे तंबू में चले आना" व्याकुल महारानी ने अपनी जिद नहीं छोड़ी..
"यह मुमकिन नहीं है महारानी जी... बहुत खतरा है ऐसा करने में "
"तो तुम नहीं मानोगे... ठीक है... लगता है वक्त आ गया है की राजमाता को बता दिया जाएँ की कैसे तुम राजमहल में वापिस लौटकर भी मेरे जिस्म को नोचते रहे हो... साथ ही महाराज को भी इस बारे में सूचित कर देती हूँ..." महारानी ने अपना अंतिम हथियार आजमाया
"ये आप क्या कह रही है महारानी जी? ऐसा मत कीजिए, में हाथ जोड़ता हुए आपके" शक्तिसिंह के होश गुम हो गए.....
"तो फिर जैसा में कहती हूँ वैसा करो..."
"मुझे एक तरकीब सूझ रही है महारानी जी... में दस्ते के साथ शिकार पर जाऊंगा... मौका देखकर में वहाँ से गायब हो जाऊंगा.. पर वापिस यहाँ छावनी में आना मुमकिन न होगा... आप एक काम कीजिए... टहलने के बहाने आप दूर नदी के किनारे, जहां बीहड़ झाड़ियाँ है, वहाँ मेरा इंतज़ार कीजिए... में वहीं आप से मिलूँगा.."
महारानी आनंदित हो गई.. उनके चेहरे पर चमक आ गई..
"ठीक है... फिर यह तय रहा... में तुम्हें नदी के किनारे मिलूँगी... पर जल्दी आना.. मुझे ज्यादा इंतज़ार मत करवाना... "
"जी जरूर... अब आप यहाँ से जल्दी जाइए.. "
उछलते कदमों के साथ महारानी वापिस चली गई। शक्तिसिंह तुरंत बिस्तर से उठा और अपने दैनिक कामों से निपटकर, सैनिकों के साथ शिकार पर जाने की तैयारी करने लगा।
शिकार पर जाने के लिए महाराज का खेमा तैयार हो गया था... आगे दो हाथी पर महाराज और राजमाता बिराजमान थे... पीछे २५ घोड़ों पर सैनिक सवार थे जिसका नेतृत्व शक्तिसिंह कर रहा था... साथ ही करीब ५० सैनिक पैदल भाला लिए चल रहे थे। महाराज कअंगरक्षक चन्दा भी हाथी के बिल्कुल बगल में चल रही थी... कुछ सैनिक ढोल नगाड़े गले में लटकाए हुए थे.. जिसका उपयोग जानवारों को भड़काकर एक दिशा में एकत्रित करने के लिए किया जाता था। साथ ही साथ एक बग्गी भी थी जिसमे भोजन और अन्य जरूरी चीजें लदी हुई थी।
जंगल में चलते चलते एक घंटा हो गया था.. महाराज ने अब तक दो हिरनों को अपने बाण का शिकार बनाया था... अभी उन्हे किसी खूंखार जंगली जानवर की तलाश थी.. पैदल चल रहे सैनिक चारों दिशा में घूम रहे थे... कुछ सैनिक पेड़ पर चढ़कर जानवर को ढूंढकर खेमे को इत्तिला कर रहे थे...
इसी बीच शक्तिसिंह ने अपने घोड़े की गति कम करते हुए एक जगह स्थगित कर दिया... पूरा खेमा शिकार की तलाश में आगे निकल गए... जब उनके और शक्तिसिंह के बीच सुरक्षित दूरी बन गई तब उसने घोड़े का रुख मोड़ा और वह छावनी के पास नदी के तट की ओर चल पड़ा...
तेज दौड़ रहे घोड़े के साथ शक्तिसिंह का ह्रदय भी उछल रहा था... राजमहल में छुपकर महारानी से मिलना अलग बात थी... पर यहाँ जंगल में उन से मिलना खतरे से खाली नहीं था... किसी के देख लेने का खतरा तो कम था क्योंकी नदी का तट छावनी की विपरीत दिशा में था.. पर उसे भय यह था की अकेली महारानी का सामना किसी जंगली जानवर से ना हो जाए। इसी लिए वह दोगुनी तेजी से घोड़े को दौड़ाते हुए नदी की और जा रहा था।
नदी के तट पर पहुंचते ही शक्तिसिंह ने अपने घोड़े को रोका... उसे थोड़ा सा पानी पिलाया और नजदीक के पेड़ के साथ बांध दिया... उसे महारानी कहीं भी नजर नहीं आ रही थी... वो काफी देर तक यहाँ वहाँ ढूँढता रहा और आखिर थक कर वह एक पेड़ की छाँव में खड़ा हो गया...
अचानक पीछे से दो हाथों ने शक्तिसिंह को धर दबोचा... प्रतिक्रिया में शक्तिसिंह ने अपना बरछा निकाला और वार करने के लिए मुड़कर देखा तो वह महारानी थी... वह शक्तिसिंह का डरा हुआ मुंह देखकर खिलखिलाकर हँस रही थी... शक्तिसिंह की सांस में सांस आई... उसने बरछा वापिस म्यान में रख दिया।
"आपने तो मुझे डरा ही दिया महारानी जी... " गर्मी के कारण शक्तिसिंह के सिर पर पसीने की बूंदें जम गई थी
महारानी ने बिना कोई उत्तर दिए शक्तिसिंह को अपनी ओर खींचा और उसकी विशाल छाती में अपना चेहरा दबाते हुए उसे बाहुपाश में जकड़ लिया... शक्तिसिंह ने आसपास नजर दौड़ाई... के कोई देख ना रहा हो... फिर निश्चिंत होकर उसने महारानी को अपनी बाहों में भर लिया...
काफी देर इसी अवस्था में रहने के बाद महारानी ने अपना चेहरा उठाया और शक्तिसिंह को पागलों की तरह चूमना शुरू कर दिया... उनके हाथ शक्तिसिंह की बलिष्ठ भुजाओं को सहला रहे थे.. चूमते वक्त उनके कदम ऐसे डगमगा रहे थे जैसे संभोग के पहले गरम घोड़ी चहलकदमी कर रही हो। शक्तिसिंह भी इस गर्माहट भरे चुंबनों का योग्य उत्तर दे रहा था। उसने चूमते हुए महारानी की चोली में अपना हाथ घुसा दिया... और बड़ी नारंगी जैसे दोनों स्तनों को मसलने लगा। महारानी की निप्पल अब सख्त होकर ऐसा कोण बना रही थी की उनका आकार चोली के वस्त्र के ऊपर से भी नजर आने लगा था। स्तनों को सहलाने में सहूलियत हो जाए इस उद्देश्य से महारानी ने चुंबन जारी रखते हुए अपनी चोली खोल दी... शक्तिसिंह की हथेलियों से ढंके उनके दोनों पंछी मुक्त होकर खुले वातावरण का आनंद लेने लगे...
थोड़ी देर यूँ ही चूमते रहने के बाद महारानी ने शक्तिसिंह को अपने बाहुपाश से मुक्त किया... कमर से ऊपर नंगी खड़ी महारानी की अद्वितीय सुंदरता को आँखें भर कर देखता ही रहा शक्तिसिंह...!!
अब महारानी ने अपने घाघरे का नाड़ा खोलना शुरू ही किया था की शक्तिसिंह ने उनका हाथ पकड़कर रोक लिया...
"आप यह क्या कर रही है महारानी जी?"
"वही, जो यहाँ करने आए है... "
"मेरे कहने का यह अर्थ है की... बाकी सब तो ठीक था... पर इस अवस्था में योनिप्रवेश करने बिल्कुल भी ठीक नहीं होगा... लिंग के झटके से आने वाली संतान को नुकसान पहुँच सकता है"
यह सुन महारानी मुस्कुराई... और अपने पेट पर हाथ फेरने लगी... उसने शक्तिसिंह का हाथ पकड़ा और अपने पेट पर रख दिया...
"अंदर पनप रहे इस नन्हे जीव को महसूस करो... इसकी स्थापना तुम्हारे बीज और मेरे अंड से ही हुई है... कहने के लिए यह राजा की संतान होगी... पर हमारे लिए यह सदैव तुम्हारी संतान ही रहेगी... " बड़े ही वात्सल्य से शक्तिसिंह की हथेली को अपने पेट पर घुमाते हुए महारानी ने कहा
"और उसी संतान के स्वास्थ्य और सुरक्षा के लिए कह रहा हूँ... इस हालत में संभोग कर हम उसे जोखिम में नहीं डाल सकते"
"तो फिर क्या करूँ में इस नीचे लगी आग का? तुम ही कोई रास्ता निकालो" उदास महारानी ने कहा
"ऐसी स्थिति में तो कुछ हो नहीं सकता... आप अगर स्वयं भी खुदको आनंदित करने का प्रयास करेगी तो गर्भाशय के संकुचन के कारण शिशु को खतरा हो सकता है"
"एक तरीका है मेरे दिमाग में... जिससे मेरी आग भी बुझ जाएगी और गर्भस्थ शिशु को कोई नुकसान भी नहीं पहुंचेगा... " महारानी का उपजाऊ दिमाग किसी भी सूरत में अपनी हवस की आग मिटाना चाहता था
"कौन सा तरीका?" असमंजस में शक्तिसिंह ने पूछा
महारानी ने नाड़ा खोलकर अपना घाघरा गिरा दिया और पूर्णतः नंगी हो गई... प्रकृति के सानिध्य में, पंछियों की चहकने की और नदी के कलकल बहने की ध्वनि के बीच... इस अति सुंदर महारानी का नग्न रूप बड़ा ही दिव्य प्रतीत हो रहा था... कितना भी देख लो मन ही नहीं भरता था..
पास के एक घने पेड़ के थड़ पर अपने दोनों हाथ टिकाकर उन्होंने शक्तिसिंह की ओर अपनी गर्दन घुमाई और फिर अपनी गांड उचककर उसे इशारा किया...
महारानी की इस इशारे को शक्तिसिंह समझ ना पाया। अपने चूतड़ हाथों से फैलाकर जब संकेत दिया तब जाकर शक्तिसिंह के दिमाग की बत्ती जली और उसे झटका लगा...
"यह आप क्या कह रही है महारानी जी...?"
"अगर योनि-प्रवेश नहीं कर सकते तो पीछे से तो डाल ही सकते हो... समझ सकती हूँ की तुम एक योद्धा हो और पीछे से वार करने में नहीं मानते... पर यह कोई युद्ध नहीं है.. इस लिए मेरे प्यारे सैनिक... तैयार हो जाओ... और प्यास बुझा दो अपनी महारानी की.. " हँसते हुए महारानी ने कहा और वापिस अपने हाथ पेड़ पर रखकर अपनी गांड पेश कर दी...
शक्तिसिंह अभी भी सदमे में था... महारानी के दो गोल गोरे गोरे चूतड़ों को देखकर उसका मन तो बड़ा ही कर रहा था, पर दो कारण थे उसकी विडंबना के.. एक के उसने कभी किसी की गाँड़ नहीं मारी थी... और दूसरा के क्या महारानी उसके मूसल जैसे लंड को अपनी कोमल गाँड़ में ले पाएगी? वह अपना सिर खुजाता हुआ महारानी के उभरे नितंबों को ताकता रहा...
"क्या सोच रहे हो तुम... हमारे पास ज्यादा वक्त नहीं है... में नदी किनारे सैर करने के बहाने निकली हूँ... ज्यादा देर मेरी अनुपस्थिति रही तो सैनिक ढूंढते हुए आ जाएंगे... जल्दी करो" बेचैन होकर महारानी ने कहा... वासना की आग उनके जिस्म को अब तपा रही थी।
हिचकते हुए शक्तिसिंह महारानी के करीब आया... उनके मक्खन के गोलों जैसे नितंबों को सहलाते ही उसका लंड खड़ा हो गया... उन चूतड़ों को चौड़ा कर उसने महारानी के गुदा-द्वार के दर्शन किए... छोटा गुलाबी छेद देखकर शक्तिसिंह और भी डर गया... यह सोचकर की लंड घुसने पर उसकी क्या दशा होगी..!!
अपने हाथ महारानी के जिस्म के आगे की ओर ले जाकर वह उनके स्तनों को मींजने लगा... महारानी के बड़े गोल स्तनों की निप्पल अब सहवास की अपेक्षा से तनकर खड़ी हो गई थी... पेड़ के सहारे खड़ी महारानी ने अपने दोनों पैरों को थोड़ा सा और फैला लिया.. शक्तिसिंह ने दो चूतड़ों के बीच हाथ घुसेड़कर महारानी की चुत तक ले गया... योनिरस से लसलसित चुत में अपनी उंगली डालकर आगे पीछे किया... उसका उदेश्य यह था की जितना हो सके महारानी को उत्तेजित किया जाए... ताकि उन्हे दर्द कम हो... महारानी की हवस अब उबल रही थी... अपनी गीली उंगलियों को चुत से बाहर निकालकर उसने महारानी की गाँड़ में एक उंगली घुसा दी...
"ऊईई.. जरा धीरे से... " कराह उठी महारानी
शक्तिसिंह ने थोड़ी देर उस उंगली को अंदर बाहर करते हुए गाँड़ के छेद का मुआयना किया... चुत के मुकाबले यह छेद काफी कसा हुआ और तंग महसूस हुआ... और अंदर जरा सी भी आद्रता नहीं थी.. शक्तिसिंह ने उंगली बाहर निकालकर अपने मुंह से थोड़ी सी लार निकाली... और उंगली को गीला कर वापस अंदर डाला.. इस बार महारानी के दर्द की कोई प्रतिक्रिया न दिखी...
अब धीरे से अपनी दूसरी उंगली गांड में सरकाते हुए उसने दूसरे हाथ से महारानी के भगांकुर का हवाला ले लिया... एक हाथ की दो उँगलियाँ अब महारानी की गाँड़ को कुरेद रही थी और दूसरा हाथ उनकी क्लिटोरिस को रगड़ रहा था। महारानी अब ताव में आकर भारी साँसे ले रही थी.. हर सांस के साथ उनका पूरा शरीर ऊपर नीचे हो रहा था... भगांकुर के लगातार घर्षण से वह सिसकियाँ भरते हुए झड़ गई..
अब शक्तिसिंह ने अपनी धोती की गांठ खोल दी। उसका तना हुआ हथियार बाहर निकलकर, सामने दिख रहे शिकार का निरीक्षण करने लगा। काफी मात्रा में मुंह से लार निकालकर शक्तिसिंह ने अपने पूरे लंड को पोत दिया... लार से चिपचिपा होकर लंड काले नाग जैसा दिख रहा था...
शक्तिसिंह ने संतुलन स्थापित करने के उद्देश्य से अपनी दोनों टांगों को फैलाकर अपने लंड को महारानी की गाँड़ के बिल्कुल सामने जमा दिया। दोनों हथेलियों से उसने चूतड़ों को फैलाकर अपने टमाटर जैसे सुपाड़े को महारानी की गांड के प्रवेश द्वार पर लगा दिया। चिकना सुपाड़ा गांड के छेद को फैलाता हुआ थोड़ा सा अंदर गया.. उतना दर्द अपेक्षित था इसलिए महारानी की मुंह से कोई आवाज ना आई..
अब शक्तिसिंह ने महरानी के चूतड़ों को ओर जोर से फैलाया.. और लंड को थोड़ा और अंदर दबाया... अब महारानी थोड़ी अस्वस्थ होने लगी.. अब तक तो उन्होंने दासी की दो उंगलियों को ही अंदर लिया था... शक्तिसिंह का लंड उनकी कलाई के नाप का था.. चिकनाई के कारण लंड का चौथाई हिस्सा अंदर घुस गया... दर्द के बावजूद महारानी ने उफ्फ़ तक नहीं की... आज वो किसी भी तरह चुदना चाहती थी..
लंड को अब ज्यों का त्यों रखकर शक्तिसिंह ने महारानी के दोनों स्तनों को दबोच लिया... आटे की तरह गूँदते हुए वह उनकी धूँडियों को मसलने लगा.. महारानी के घने काले केश के नीचे छिपी सुराहीदार गर्दन को चूमकर उसने उनके कानों को हल्के से काट लिया...
महारानी थोड़ी सी पीछे की ओर आई ताकि शक्तिसिंह के बाकी के लंड को एक बार में अंदर ले सके.. पर सचेत शक्तिसिंह ने बड़ी सावधानी से खुदको भी थोड़ा सा पीछे कर लिया... महारानी के इरादे को भांपकर उसने थोड़ा सा ओर जोर लगाया और अपना आधा लंड उनकी गाँड़ में डाल दिया...
महारानी का दर्द अब काफी बढ़ गया.. उन्हे ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे कोई गरम सरिया उनकी गाँड़ में घुसा दिया गया हो... पूरा छेद जल रहा था... पर वह शक्तिसिंह को रोकना न चाहती थी.. वह धीरज धरकर अपने छेद को शक्तिसिंह के लंड की परिधि से अनुकूलित होने का इंतज़ार करने लगी... उन्होंने अपनी गर्दन को मोड़ा... और शक्तिसिंह ने उनके गुलाबी अधरों को चूम लिया...!!!
"
आधे से ज्यादा लंड को अंदर घुसाना शक्तिसिंह ने मुनासिब न समझा... उसने अपने लंड को थोड़ा सा बाहर खींच और फिर से अंदर घुसेड़ा..
"ऊई माँ..." महारानी चीख उठी...
"महारानी जी, दर्द हो रहा हो तो में बाहर निकाल लेता हूँ इसे..." डरे हुए शक्तिसिंह ने कहा
"नहीं नहीं... बाहर मत निकालना... पहली बार है तो थोड़ा दर्द तो होगा ही... थोड़ी देर में मैं अभ्यस्त हो जाऊँगी...!!"
शक्तिसिंह ने थोड़ी सी और लार लेकर लंड और गाँड़ के प्रतिच्छेदन पर मल दिया... महारानी का छेद फैलकर चूड़ी के आकार का बन गया था.. वह पसीने से तर हुई जा रही थी...
अब शक्तिसिंह ने हौले हौले लंड को अंदर बाहर करना शुरू किया... हर झटके पर महारानी की धीमी सिसकियाँ सुनाई दे रही थी... यह अनुभव शक्तिसिंह को बेहद अनोखा लगा... चुत के मुकाबले यह छेद काफी कसा हुआ था... और लंड को मुठ्ठी से भी ज्यादा शक्ति से जकड़ रखे था... इतना तनाव लंड पर महसूस होने पर शक्तिसिंह को बेहद आनंद आने लगा... अगर महारानी के दर्द का एहसास न होता तो वह हिंसक झटके लगाकर इस गाँड़ को चोद देता...
महारानी का लचीला गुलाबी छेद अपनी पूर्ण परिधि को हासिल कर चुका था... इससे ज्यादा फैलता तो चमड़ी फट जाती और खून निकल आता... थोड़ी देर आधे लंड से आगे पीछे करने के बाद... शक्तिसिंह ने एक जोर का झटका लगाया और पौना लंड धकेल दिया.. महारानी झटके के साथ उछल पड़ी... उनकी चीख गले में ही अटक गई... इतना लंड अंदर घुसाने के बाद शक्तिसिंह बिना हिले डुले थोड़ी देर तक खड़ा रहा ताकि महारानी के छेद को थोड़ा सा विश्राम मिले और वह इस छेदन के अनुकूलित हो सके..
अब उसने चूतड़ों को छोड़ दिया... दोनों जिस्म अब लंड के सहारे चिपक गए थे.. महारानी अपनी पीड़ा कम करने के हेतु से अपने दोनों स्तनों को क्रूरतापूर्वक मसल रही थी... शक्तिसिंह ने अपने हाथ को आगे ले जाकर महारानी की चुत में अंदर बाहर करना शुरू कर दिया। स्तन-मर्दन और चुत-घर्षण से उत्पन्न हुई उत्तेजना के कारण अब महारानी के गांड का दर्द कम हुआ..
"अब लगाओ धक्के... " महारानी ने फुसफुसाते हुए शक्तिसिंह से कहा
महारानी की जंघाओं को दोनों हाथों से पकड़कर शक्तिसिंह ने धीरे धीरे धक्के लगाने शुरू कर दिया... कसाव भरे इस छेद ने शक्तिसिंह को आनंद से सराबोर कर दिया... महारानी भी अपने जिस्म को बिना हिलाए उन झटकों को सह रही थी... दर्द कम हो गया था अब उन्हे आनंद की अपेक्षा थी..
अब शक्तिसिंह ताव में आकर धक्के लगाने में व्यस्त हो गया। महारानी को गांड में अजीब सी चुनचुनी महसूस होने लगी... अब धीरे धीरे उन्हे मज़ा आने लगा... हर झटके के साथ उनके चूतड़ थिरक रहे थे।
मध्याह्न का समय हो चुका था... सूरज बिल्कुल सर पर था.. नीचे दो नंगे जिस्म अप्राकृतिक चुदाई में जुटे हुए थे.. दोनों के शरीर पसीने से लथबथ हो गए थे.. महारानी का जिस्म गर्मी और चुदाई के कारण लाल हो गया था..
बेहद कसी हुई गांड ने शक्तिसिंह को ओर टिकने न दिया... लंड के चारों तरफ से महसूस होते दबाव ने शक्तिसिंह को शरण में आने पर मजबूर कर दिया.. उसके अंडकोश संकुचित होकर अपना सारा रस लंड की ओर धकेलने लगे... एक तेज झटका देकर शक्तिसिंह के लंड ने महारानी की गांड को अपने वीर्य से पल्लवित कर दिया... तीन चार जबरदस्त पिचकारी मारकर लंड ने अपना सारा गरम घी महारानी की गांड में उंडेल दिया।
गरम वीर्य का स्पर्श अंदर होते ही महारानी को बेहद अच्छा लगा... जैसे उनके घाव पर मरहम सा लग गया.. पर अभी वह स्खलित नहीं हुई थी... इसलिए अपने भगांकुर को बड़ी ही तीव्रता से रगड़ते जा रही थी। इस बात से बेखबर शक्तिसिंह ने अपने लंड को महारानी की गांड से सरकाकर बाहर निकाल लिया... जंग से लौटे सिपाही जैसे उसके हाल थे.. वह बगल में खड़ा होकर हांफ रहा था..
अपनी चुत को रगड़ते हुए महारानी उसके तरफ मुड़ी... और इशारा कर शक्तिसिंह को घास पर लेट जाने को कहा... शक्तिसिंह के लेटते ही वह अपनी टांगों को फैलाकर उसके मुंह पर सवार हो गई... महारानी की स्खलन की जरूरत को भांपते ही शक्तिसिंह की जीभ अपने काम पर लग गई और उस द्रवित चुत को चाटने लगी... चुत के भीतर के गुलाबी हिस्सों को शक्तिसिंह की जीभ कुरेद रही थी... महारानी की उंगली भी अपनी क्लिटोरिस को रगड़कर अपनी मंजिल को तलाश रही थी...
शक्तिसिंह के मुंह को चोदते हुए महारानी का शरीर अचानक लकड़ी की तरह सख्त होकर झटके खाने लगा... शक्तिसिंह के मुंह पर चुत रस का भरपूर मात्रा में जलाभिषेक हुआ... सिहरते हुए महारानी झड़ गई... और काफी देर तक उसी अवस्था में शक्तिसिंह के मुंह पर सवार रही। थोड़ी देर बाद वह धीरे से ढलकर शक्तिसिंह के बगल में घास पर ही लेट गई...
"वचन दो मुझे की मुझसे और मेरे गर्भ में पनप रही हमारी संतान से मिलने तुम आओगे..."
"जी महारानी जी.. "
थोड़ी देर के विश्राम के बाद दोनों की साँसे पूर्ववत हुई और वास्तविकता का एहसास हुआ... सब से पहले शक्तिसिंह उठ खड़ा हुआ और उसने अपने वस्त्र पहने... फिर आसपास गिरे घाघरे और चोली को समेटकर उसने महारानी को दिए.. प्रथम गाँड़ चुदाई से उभरती हुई महारानी भी धीरे से उठी और अपने वस्त्र पहन लिए।
शक्तिसिंह अपने घोड़े पर सवार हुआ.. और महारानी भी छावनी की तरफ चल दी।
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सूरज ढलने की कगार पर था और तभी क्षितिज पर महाराज का खेमा लौटता हुआ नजर आया.. उन्हे देखते ही छावनी में हलचल मच गई.. शिकार से वापिस आ रहे सैनिक काफी सुस्त नजर आ रहे थे... क्योंकी काफी गर्मी थी.. पर उनके चेहरे पर खुशी थी.. आज कुल मिलाकर उन्होंने २५ हिरण, २ तेंदुओ और १०० से ज्यादा खरगोशों का शिकार किया था... छावनी के बीच उन शिकार का जैसे ढेर सा बन गया... आज की दावत बड़ी ही खास होने वाली थी..
थकी हुई राजमाता लड़खड़ाती चाल से चलते अपने तंबू में चली गई... लग रहा था की पूरे दिन बाहर घूमने का परिश्रम उन्हे राज नहीं आया था... महाराज भी शराब की तलब को शांत करने अपने तंबू में लौट गए... सारे सैनिक सुस्ताकर यहाँ वहाँ ढेर होकर आराम करने लगे... उनमें शक्तिसिंह भी शामिल था... महारानी से मिलकर वापिस लौटते हुए उसने काफी दूर से जब महाराज के काफिले को देखा तब उनके पीछे न जाकर... दूसरे रास्ते से उनके काफी आगे निकल गया... जब वह काफिला बढ़ते बढ़ते आगे उससे मिला तब सबको यही प्रतीत हुआ की शक्तिसिंह काफी आगे निकल गए होने की वजह से दिख नहीं रहा था... किसी को भी कुछ शंका न हुई..
यहाँ राजमाता अपने तंबू में पहुंचते ही बिस्तर पर ढेर हो गई... पूरा दिन हाथी पर बैठे रहने से उनकी कमर अटक गई थी और बहुत दर्द कर रही थी... ऊपर से गर्मी ने भी उनकी हालत खराब कर दी थी... शिकार पर जाने का निर्णय करने पर वह अपने आप को ही कोसती रही। उन्होंने आवाज देकर अपनी दासी को बुलाया...
"जी राजमाता जी" सलाम करते हुए दासी ने कहा
"में दर्द से मरी जा रही हूँ.. थोड़ा सा गरम तेल ला और मेरी मालिश कर... हाय रे मेरी कमर" राजमाता दर्द से कराह रही थी
दासी थोड़ी ही देर में गरम तेल लेकर हाजिर हुई... राजमाता के बगल में बैठकर उनकी कमर पर मालिश करने लगी..
"आज खाना ठीक से खाया नहीं था क्या तूने?"
"जी भोजन तो मैंने दोपहर में ठीक से किया था"
"तो फिर हाथ का जोर लगा ठीक से... ये क्या हल्के हल्के सहला रही है...!! रात को सैनिकों के लंडों को तो बड़े जोर से मालिश करती है...लगा जोर ठीक से... मेरी कमर के तो जैसे टुकड़े टुकड़े हो गए हो ऐसा दर्द हो रहा है" अब वह दर्द से पागल हुई जा रही थी...
दासी शरमाते हुए दोनों हाथों से तेल मलने लगी.. पर उसके कोमल हाथों में वोह दम खम नहीं था जो राजमाता को चाहिए था... थोड़ी देर और मालिश के बाद राजमाता ने कहा
"तू छोड़ दे... ऐसे तो सुबह तक मालिश करेगी तब भी मेरा कुछ नहीं होगा... एक काम कर... जाकर शक्तिसिंह को संदेश दे की भोजन के बाद तुरंत यहाँ आ जाएँ"
"आप भोजन करने नहीं आएगी?"
"अरे मरी.. यहाँ दर्द से मेरी जान निकली जा रही है... और तुझे भोजन की चिंता है..!! तू जा अब और जो कहा है वो कर.. हाय में मर गई.. !!"
दासी तुरंत उठकर तंबू से बाहर चली गई और शक्तिसिंह को संदेश पहुंचाकर आई.. शक्तिसिंह भोजन निपटाकर तुरंत राजमाता के तंबू पर पहुंचा..
उसकी आशा के विपरीत, राजमाता बिस्तर पर लाश की तरह पड़ी थी.. रोज की तरह उसने तंबू के परदे को दोनों तरफ अंदर से गांठ मारकर बंद कर दिया ताकि कोई अंदर आ न जाए।
वह राजमाता के बिस्तर पर जाकर उनके पास बैठ गया और राजमाता की पीठ पर हाथ सहलाया।
"आज बड़ी जल्दी बुला लिया आपने? चलिए वस्त्र उतार दीजिए ताकि में आपको तृप्त कर सकूँ"
"कमीने, मेरी हालत तो देख...तुझे ठुकाई करने नहीं बुलाया है... मेरी कमर चूर चूर हो रही है... वहाँ गरम तेल पड़ा है उससे मेरी अच्छे से मालिश कर दे आज"
मुसकुराते हुए शक्तिसिंह ने तेल की कटोरी उठाई... और पेट के बल सो रही राजमाता के शरीर पर सवार हो गया। उनकी कमर पर तेल की धार गिराते हुए वह धीरे धीरे मालिश करने लगा... तेल की धार रिसकर उनके घाघरे में जा रही थी।
"राजमाता, अगर दिक्कत ना हो तो आपका घाघरा उतार दीजिए... सफेद रंग के वस्त्र तेल से खराब हो रहे है"
"अब तेरे सामने नंगा होने में मुझे भला कौन सी दिक्कत होगी!! ले मैंने गांठ खोल दी है... अब तू ही घाघरा खींचकर पैरों से निकाल दे... "
राजमाता ने अपने पेट को थोड़ा सा ऊपर किया और शक्तिसिंह ने बड़ी ही सफाई से घाघरा उतारकर नीचे रख दिया।
अब राजमाता के दो गोल ढले हुए चूतड़ों पर चढ़कर शक्तिसिंह अपने बलवान हाथों से मालिश करने लगा... राजमाता को बड़ी राहत मिल रही थी.. उसके प्रत्येक बार जोर लगाने पर वह कराह उठती... पीठ से लेकर चूतड़ों तक शक्तिसिंह जोर लगाते हुए चक्राकार हाथ घुमा रहा था.. राजमाता के मस्त कूल्हों को देखकर उसके मन में शरारती खयाल आया... चूतड़ों को फैलाकर उसने राजमाता की गांड के छेद पर तेल की धार गिराई...
"हाय रे... ये कहाँ तेल डाल रहा है तू!!"
"आप बस लेटी रहे... और देखें में कैसे आपकी सारी थकान दूर भगाता हूँ.. " राजमाता चुपचाप पड़ी रही
राजमाता की गाँड़ के बादामी घेरे वाले छेद पर तेल लगाकर वह उसके इर्दगिर्द उंगली घुमाने लगा... उंगली को थोड़ा सा दबाते छेद खुल जाता और तेल अंदर चला जाता। साथ ही साथ वह चूतड़ों को भी अपने भारी हाथों से मलकर मालिश किए जा रहा था। इस तगड़े मालिश से राजमाता को बड़ा ही आराम मिल रहा था... राहत मिलते ही उनकी आँख लग गई..
यहाँ शक्तिसिंह राजमाता के रसीले कूल्हों को और गाँड़ के छेद को देखकर उत्तेजित हो रहा था... मालिश के बीच रुककर उसने अपनी धोती उतार दी.. और वापिस राजमाता पर चढ़ गया.. अब उसका सारा ध्यान राजमाता के गाँड़ पर केंद्रित था.. दोपहर पहली बार कसी हुई गाँड़ का स्वाद चखकर उसे बड़ा मज़ा आया था.. असावधान राजमाता की गाँड़ देखकर उसकी आँखों में वासना के सांप लोटने लगे।
अब वह चूतड़ों को अलग कर उंगली पर काफी मात्रा में तेल लेकर राजमाता की गांड में धीरे धीरे सरकाने लगा। महारानी के मुकाबले राजमाता का छेद थोड़ा फैला हुआ था और उंगली भी तेल वाली थी इसलिए आसानी से अंदर चली गई... राजमाता की गांड के अंदर का मुलायम गरम स्पर्श महसूस करते ही शक्तिसिंह सिहर उठा... उसका लंड ताव में आकर राजमाता के घुटनों के ऊपर नगाड़े बजाने लगा...
राजमाता खर्राटे मार रही थी... इसलिए शक्तिसिंह को ओर प्रोत्साहन मिला... उसने अब दूसरी उंगली भी अंदर डाल दी.. राजमाता के खर्राटे अचानक बंद होने से शक्तिसिंह सावधान हो गया पर उनकी आँखें अभी भी बंद ही थी.. शक्तिसिंह ने दोनों उंगलियों को ज्यों का त्यों राजमाता की गांड में ही रहने दिया... कुछ पल के इंतज़ार के बाद खर्राटे फिर शुरू हो गए और शक्तिसिंह का काम भी...
दोनों उंगलियों को गांड में आगे पीछे करते हुए शक्तिसिंह और तेल डालता ही गया ताकि उनका छेद पूरी तरह से चिकना हो जाए... अधिक आसानी के लिए उसने धीरे से राजमाता की दोनों टांगों को बिस्तर पर फैला दिया... अब वह दोनों जांघों के बीच जा बैठा..
अब उसने अपनी योजना पर अमल करना शुरू किया... काफी सारा तेल लेकर वह अपने कड़े लंड पर मलने लगा.. उसका काल मूसल अब तेल से लसलसित हो चुका था.. अब एक हथेली से उसने राजमाता के कूल्हे को पकड़े रखा और हल्का सा जोर लगाकर अपना सुपाड़ा अंदर घुसेड़ दिया...
थकान के मारे लगभग बेहोश अवस्था में सो रही राजमाता की नींद अब भी नहीं खुली। शक्तिसिंह ने धीरे धीरे अपने लंड को अंदर सरकाना शुरू किया... आधे से ज्यादा लंड अंदर घुसाने पर भी जब राजमाता ने कोई हरकत न की तब उसने एक मजबूत झटका लगाते हुए पूरा लंड अंदर धकेल दिया...
राजमाता की नींद खुल गई.. उन्हे पता नहीं चल रहा था की आखिर क्या हो गया!! होश संभालते ही उन्हे ऐसा प्रतीत हुआ जैसे उनकी गांड में किसी ने जलती हुई मशाल घोंप दी हो!! शक्तिसिंह के शरीर के वज़न तले दबे होने के कारण वह ज्यादा हिल भी नहीं पा रही थी... मुड़कर देखने पर पता चला की शक्तिसिंह उनपर सवार था... फिर उन्हे अंदाजा लगाने में देर न लगी की आखिर उनकी गांड में क्या जल रहा था!!
"क्या कर रहा है कमीने? निकाल अपना लंड बाहर... " गुस्से में आकर राजमाता ने कहा
शक्तिसिंह आज अलग ही ताव में था.. राजमाता की मुलायम चौड़ी गांड का नशा उसके सर पर चढ़ चुका था.. इतने दिनों से राजमाता को चोदने के बाद वह इतना तो जान चुका था की उसकी थोड़ी बहुत मनमानी को सह लिया जाएगा...
"अपना शरीर ढीला छोड़ दीजिए राजमाता जी... फिर देखिए इसमें कैसा आनंद आता है.." उनके कानों में शक्तिसिंह फुसफुसाया
"कैसा आनंद? पीछे भी भला कोई डालता है क्या? पता नहीं कहाँ से ऐसी जानवरों वाली चुदाई सिख आया है"
"मेरा विश्वास कीजिए, आप अगर अपने पिछवाड़े की मांसपेशियों को थोड़ा सा शिथिल कर देगी तो जरा भी कष्ट न होगा और मज़ा भी आएगा"
"मुझे बिल्कुल भी मज़ा नहीं आ रहा है... पीछे जलन हो रही है... इतना मोटा लंड तूने अंदर घुसया कैसे यही पता नहीं चल पा रहा मुझे... "
शक्तिसिंह को लगा की बिना राजमाता को उत्तेजित किए वह उन्हे आगे का कार्यक्रम करने नहीं देगी... उसने उनकी जांघों के नीचे अपना हाथ सरकाया और उनके दाने को अपनी उंगलियों की हिरासत में ले लिया... उसे रगड़ते ही राजमाता सिहरने लगी..
"तुझे चुदासी चढ़ी ही थी तो पहले बता देता... में घूम जाती हूँ... फिर चाहे जितना मन हो आगे चोद ले.. "
"राजमाता जी, अब यह शुरू किया है तो खतम करने दीजिए... आपसे विनती है मेरी.. "
राजमाता मौन रहकर अपने दाने के घर्षण पर ध्यान केंद्रित करने लगी।
शक्तिसिंह धीरे धीरे धक्के लगा रहा था ताकि राजमाता कष्ट से उसे रोक न दे.. अब वह एक हाथ से राजमाता के भगांकुर को रगड़ रहा था और दूसरे हाथ से उनकी चुची... महारानी और राजमाता से इतनी बार चुदाई करके उसे यह ज्ञात हो गया था की स्त्री के कौनसे हिस्सों को छेड़ने से उनकी उत्तेजना तीव्र बन जाती है... उसने उनकी गर्दन के पिछले हिस्से को चाटना और चूमना भी शुरू कर दिया...
इन सारी हरकतों ने राजमाता को बेहद उत्तेजित कर दिया... और उस उत्तेजना ने गांड चुदाई के दर्द को भुला दिया.. वह सिसकियाँ भरते हुए अपने दाने के घर्षण, चुची के मर्दन और गर्दन पर चुंबन का तिहरा मज़ा ले रही थी।
भगांकुर को रगड़ते हुए अपनी उंगली राजमाता के भोसड़े में डालते हुए अंदर के गिलेपन का एहसास होते ही शक्तिसिंह को राहत हुई... अब उसे यह विश्वास हो गया की उसे यह अनोखी गाँड़ चुदाई बीच में रोकनी नहीं पड़ेगी...
अब शक्तिसिंह ने धक्कों की तीव्रता और गति दोनों बढ़ाई... राजमाता उफ्फ़ उफ्फ़ करती रही और वह उनके दाने को दबाकर चुत में उंगली घुसेड़ता रहा... अपने शरीर का पूरा भार रख देने के बाद भी उसका थोड़ा सा लंड का हिस्सा अभी भी बाहर था... राजमाता की गद्देदार गांड को वह बड़े मजे से चोदता रहा... चोदने के इस नए तरीके का ईजाद शक्तिसिंह को बेहद पसंद आया...
"अब बहोत हो गया... या तो तू झड़ जा या फिर मेरी गांड से लँड बाहर निकाल... " राजमाता कसमसाई
"बस अब बेहद करीब हूँ... मुझे मजधार में मत छोड़िएगा.. " हांफते हुए धक्के लगाते शक्तिसिंह ने कहा
राजमाता के भोसड़े से हाथ हटाकर अब वह दोनों स्तनों को मजबूती से मसलने लगा... शकतसिंह की जांघें और राजमाता के चूतड़ इस परिश्रम के कारण पसीने से तर हुए जा रहे थे...
"बस अब छोड़ मुझे... खतम कर इसे जल्दी... " राजमाता कराह रही थी...
शक्तिसिंह ने पिस्टन की तरह अपने लंड को राजमाता के इंजन की अंदर बाहर करना शुरू कर दिया... अंतिम कुछ धक्के देते हुए दहाड़कर शक्तिसिंह ने राजमाता की गांड अपने वीर्य से गीली कर दी... अपने पिछवाड़े में गरम तरल पदार्थ का स्पर्श राजमाता को भी अच्छा लगा... अंदर ज्यादा देर ना रुककर उसने अपना लंड बाहर निकाल लिया... राजमाता ने भी चैन की सांस ली और पलट गई... हांफते हुए शक्तिसिंह भी बगल में लेट गया..
"आज के बाद तू मेरी गांड से दूर ही रहना... " इस सदमे से राजमाता अभी उभरी नहीं थी...
"क्यों? आपको मज़ा नहीं आया?" मुसकुराते हुए शक्तिसिंह ने कहा
"खाक मज़ा... मेरी जान हलक में अटक गई थी.. "
"पहली बार में तो दर्द होता ही है ना... आगे करवाओ या पीछे.. "
"बात तो तेरी सही है.. मेरे पति ने जब पहली बार मुझसे संभोग किया था तब मुझे काफी रक्तस्त्राव हुआ था.. और दर्द की कोई सीमा न थी.. पर यह तो काफी अलग था... मैंने कभी अपने पीछे लेने की सोची न थी.. और बिना किसी अंदेशे के तूने अपना गधे जैसा लंड डाल दिया तो दर्द तो होगा ही ना!!
"पर अब दूसरी बार करेंगे तब दर्द नहीं होगा... बल्कि आप भी आनंद उठा पाएगी.. "
"तू दूसरी बार की बात कर ही मत... एक तो यहाँ पहले से पूरा जिस्म दर्द कर रहा था... ऊपर से तूने पीछे डालकर एक और अंग को दर्द दे दिया।"
"चिंता मत कीजिए राजमाता... इस संभोग से आपके पूरे शरीर में रक्तसंचार तेज हो गया है.. इसलिए अब जिस्मानी दर्द कम हो जाएगा"
"हम्म अब तू जा यहाँ से.. और मुझे विश्राम करने दे" राजमाता ने करवट लेटे हुए कहा
शक्तिसिंह ने अपने कपड़े पहने और मुस्कुराते हुए तंबू से बाहर निकल गया।
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उधर महाराज कमलसिंह के बिस्तर से उठकर चन्दा ने अपने कपड़े पहने... महाराज तो मरे हुए मुर्गे की तरह पड़े हुए थे.. पिछली रात चन्दा ने अपनी चुत की मजबूत मांसपेशियों में राजा के लंड को दबोच कर ऐसा मरोड़ा था की उनके लंड में मोच आ गई थी... उसके बाद उनका लंड पिचक कर बाहर निकल गया और चन्दा को अपने भगांकुर को मसलकर झड़ना पड़ा था.. महाराज के साथ चन्दा को जरा सी भी तृप्ति का एहसास नहीं होता था पर क्या करती..!! महाराज के हुकूम की अवहेलना भी तो नहीं कर सकती थी..
बचपन से ही तगड़े कदकाठी वाली चन्दा के दोस्त सारे लड़के ही रहे थे... लड़कियों वाले खेल उसने कभी खेले ही नहीं थे... जवान होने के बाद वह इतनी शक्तिशाली और बलिष्ठ बन गई थी की ना ही उसमें लड़कियों वाली नजाकत थी और ना ही छरहरा बदन... अमूमन कोई पुरुष उसमें ज्यादा दिलचस्पी नहीं लेता था... इसलिए वह काफी लंबे अरसे तक अनछुई ही रही थी.. ज्यादातर उसे हस्तहमैथुन से ही अपने आप को संतुष्ट करना पड़ता था..
आधे घंटे बाद नाश्ता करने महाराज और महारानी मेज पर बैठे थे तब दोनों के बीच साहजीक बातें हो रही थी... थोड़ी देर बाद लँगड़ाते हुए राजमाता आती दिखाई दी.. उनके चेहरे पर थकान की रेखाएं थी.. हर कदम चलने पर उन्हे दर्द होता प्रतीत हो रहा था।
"क्या हुआ माँ... आप ऐसे लँगड़ाते हुए क्यों चल रही है?" आश्चर्यसह महाराज ने पूछा
अब क्या बताती राजमाता? कल रात को शक्तिसिंह ने उनकी गांड के ऐसे तोते उड़ा दिए थे की एक कदम चलने में उन्हे भारी दर्द हो रहा था.. मन ही मन में शक्तिसिंह को कोसते हुए वह कराहकर कुर्सी पर बैठ गई।
"कल पूरा दिन हाथी पर बैठे बैठे कमर जकड़ गई थी... आदत नहीं है ना मुझे!! दो दिन मालिश करवाऊँगी तो ठीक हो जाएगा.." राजमाता ने उत्तर दिया
फिर उन्होंने महारानी की तरफ मुड़कर कहा
"दासियों ने मुझे सूचित किया की कल आप अकेले ही नदी किनारे सैर पर निकल गई थी?"
"जी वो कल अकेले बैठे बैठे ऊब सी गई थी... सोचा नदी के निर्मल जल को देखकर मन को थोड़ा सा प्रसन्न कर दूँ.."
"पर तुम्हारा ऐसे अकेले जंगल में घूमना ठीक नहीं है.. अब से तुम बिना किसी को साथ लिए कहीं नहीं जाओगी" कड़े सुर में राजमाता ने कहा
"जी नहीं जाऊँगी" आँखें झुकाकर महारानी ने उत्तर दिया
"और बेटा... आज नहीं जाओगे शिकार पर?" राजमाता ने कमलसिंह से पूछा
"नहीं माँ... मेरा भी शरीर आज दर्द कर रहा है... और गर्मी भी काफी हो रही है.. सोच रहा था की आज का दिन विश्राम ही कर लूँ" शरीर तो नहीं पर महाराज का लंड दर्द कर रहा था... पगलाई घोड़ी की तरह चन्दा ने कल उन पर ऐसी चढ़ाई कर दी थी की महाराज कुछ करने के काबिल बचे नहीं थे...
नाश्ता करने के बाद तीनों अपने तंबू की ओर लौट गए ।
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उस रात महाराज बड़ी ही बेचैनी से अपने तंबू में बैठे शराब पी रहे थे... रात का वक्त हो चला था और हवसी मन में इच्छाएं प्रकट होने लगी थी.. पर लंड अभी भी कल की चुदाई के दर्द से नहीं उभरा था... पिछली रात चन्दा ने अपनी फौलादी चुत से लंड को ऐसे निचोड़ा था की लंड को मोच सी आ गई थी... लिंग की मांसपेशियाँ दर्द कर रही थी... ऐसी बलवान जिस्म वाली स्त्री अगर लंड पर कूदेगी तो और क्या होगा!!
दर्द के बावजूद महाराज व्यग्र थे... उन्होंने चन्दा को आवाज लगाई... चंद तुरंत हाजिर हुई
"अरी चन्दा... कल तूने मेरे लंड के साथ क्या कर दिया?? सुबह से दर्द कर रहा है" महाराज के चेहरे पर दर्द की रेखाएं उभर आई
"जी मैंने तो वही किया जो हम पिछली दो रातों से करते आ रहे है.." भोली बनने का अभिनय करते हुए चन्दा ने कहा... जबकी उसे भलीभाँति मालूम था उसकी चुत की गिरफ्त में महाराज के लंड का यह हाल हुआ है।
महाराज ने चन्दा के सामने अपनी धोती खोल दी... अंदर सा उनका मरा हुआ लंड प्रकट हुआ... सूखी हुई भिंडी जैसा लंड देखकर चंद को मन में ही हंसी छूट गई।
"देख इसका हाल... अब तू है कर कुछ इलाज... "
"महाराज में कोई वैद्य तो हूँ नही जो इसका इलाज कर सकूँ... "
"जानता हूँ... पर इसे मुंह में लेकर चूस तो सकती है ना... "
सुनकर चन्दा का मुंह उतर गया... उसे लंड चूसना बिल्कुल पसंद नहीं था... घिन आती थी उसे... और कोई फौलादी तगड़ा लंड होता तो बात अलग थी.. यहाँ तो महाराज का मरे हुए चूहे जैसा लंड चूसना था...
"सोच क्या रही है!!! चल बैठ नीचे और चूसना शुरू कर दे... " कुर्सी पर बैठे महाराज ने अपनी टाँगे खोली
बेमन से झिझकते हुए चन्दा अपने घुटनों के बल, महाराज की कुर्सी के सामने बैठ गई.. महाराज के मुरझाए लंड को हाथ में लेकर थोड़ी देर खेलती रही.. लंड की चमड़ी को हल्का सा नीचे उतारते ही छोटे से कंचे जैसा महाराज का सुपाड़ा डरते हुए बाहर निकला... अब इस विचित्र जीव को कैसे मुंह में ले यही सोच रही थी चन्दा...
"क्या सोच रही है, मुंह में लेकर चूसना शुरू कर... "आदेशात्मक आवाज में महाराज ने कहा
अब चन्दा के पास चूसने के अलावा और कोई चारा न था... उसने मुंह बिगाड़कर महाराज के लंड के मुख को अपने होंठों से लगाए... उसके मोटे होंठों के बीच महाराज का मुरझाया लंड बीड़ी जैसा लग रहा था... वह उनके सुपाड़े को चूसना शुरू ही कर रही थी तब महाराज ने उसके सिर को अपने लंड पर दबा दिया... उनका पूरा लंड चन्दा के मुंह में चला गया...
महाराज की इस हरकत से चन्दा को बड़ा गुस्सा आया... फिर भी वह अपने मुंह को आगे पीछे करते हुए चूसती गई... करीब पाँच मिनट तक चूसने के बाद भी महाराज के लंड में जरा सी भी सख्ती नहीं आई...
"रुक जा... और अपनी छातियाँ खोल दे... " महाराज ने उसका सिर पकड़कर रोकते हुए कहा
चन्दा यंत्रवत खड़ी हो गई और अपना कवच निकालने लगी... भीतर पहना हुआ वस्त्र जो पसीने से गीला हो चला था... उसे भी उसने उतार दिया... भरे हुए मोटे साँवले बैंगन जैसे उसके दोनों स्तन यहाँ वहाँ झूलने लगे... उसकी दोनों निप्पल दबी हुई थी क्योंकी इस गतिवधि में उसे रत्तीभर भी उत्तेजना नसीब नही हुई थी।
महाराज उसके दोनों उरोजों को हथेलियों में भरकर मसलने लगे.. चन्दा को अपनी ओर खींचकर उसके स्तनों को चाटने और चूमने लगे... अपने एक हाथ को उन्होंने चन्दा की घाघरी के अंदर डाल दिया... उसकी लंगोट को सरकाकर चुत में उंगली करने का प्रयास करने लगे... चन्दा का पूरा योनिमार्ग सूखा और ऋक्ष था... फिर भी महाराज अपनी उंगली अंदर घुसेड़ने का प्रयास कर रहे थे जिससे चन्दा को हल्की सी पीड़ा का एहसास हो रहा था... वह चाहती थी की महाराज जल्द से जल्द निपट जाएँ ताकि उसका छुटकारा हो...
चन्दा के मजबूत शरीर की निकटता प्राप्त कर महाराज का लंड हरकत में आने लगा... पूर्णतः खड़ा तो नही हुआ पर उसमें सख्ती जरूर दिखने लगी थी.. महाराज भी यह देख खुश हुए और मन में राहत भी हुई की उनके लंड में अभी भी जान बची थी...
अब उन्होंने चन्दा को खींचकर वापिस नीचे बैठा दिया और अपना लंड उसके मुंह में फिर से दे दिया... जल्दी निपटारा चाहती चन्दा ने भी तेजी से अपना मुंह ऊपर नीचे करना शुरू कर दिया... पुरुषों की शरीर-रचना से परिचित चन्दा ने उनके टट्टों को पकड़कर हल्के से दबाया... और महाराज उसके मुंह में ही झड़ गए... उनके स्खलन से गिनकर तीन-चार बूंद वीर्य की निकली जिसका स्वाद मुंह में लगते ही चन्दा का स्वाद बिगड़ गया... ऐसे बेजान पानी जैसे अल्प मात्रा में निकलते वीर्य से आखिर महाराज ने महारानी को कैसे गर्भवती किया होगा, चन्दा सोचती रही...
अपने मुंह पर हाथ दबाकर वह खड़ी हो गई... और तंबू के कोने में जाकर उसने वह वीर्य थूक दिया... मुंह का स्वाद ठीक करने के लिए उसने पास पड़े मेज से शराब की सुराही उठाई और उसे सीधे अपने मुंह में उंडेल दिया... तीन-चार घूंट पीकर उसे कुछ अच्छा लगा.... स्खलन के बाद महाराज गहराई आँखों से कुर्सी पर अपना सिर टिकाए सुस्त पड़े थे... चन्दा ने घृणित नजर से महाराज को देखा, अपने वस्त्र पहने और वहाँ से चली गई...
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दूसरे दिन शिकार यात्रा का खेमा जंगल से सूरजगढ़ लौट आया...
एक दिन सब ने विश्राम करने में ही व्यतीत कर दीया.. उस दिन शाम के समय राजमाता अपने कक्ष में कुर्सी पर बैठे पुस्तक पढ़ रही थी तभी दासी ने आकार सूचित किया की उनसे मिलने दीवान जी आए थे। राजमाता ने तुरंत उन्हे अंदर बुलाने को कहा..
थोड़ी ही देर में, थुलथुले शरीर वाले दीवानजी अंदर पधारे... गले में मोतियों की माला और सिर पर सुनहरे रंग की पग़डी पहने दीवानजी की उम्र लगभग ५५ साल के करीब थी... राजमाता को सलाम कर वह उनके इशारे पर सामने रखी कुर्सी पर बैठ गए।
"कहिए दीवानजी, कैसे आना हुआ..?" राजमाता ने पूछा
"राजमाता जी, कल सुबह से दरबार की गतिविधियां आरंभ हो रही है... में चाहता हूँ की आप इस बार दरबार का संचालन करें... काफी सारे प्रश्न है जिनका समाधान ढूँढना है.. कर व्यवस्था में बदलाव करना है... राज्य की आय का ब्योरा भी करना है.. और सुरक्षा से लेकर भी काफी निर्णय करने है.. इस लिए आपकी मौजूदगी अनिवार्य है" दीवानजी ने बड़े ही अदब के साथ कहा
"पर ये रोजमर्रा की गतिविधियां तो महाराज को ही संभालनी चाहिए... तुम उनसे क्यों नही बात करते?"
राजमाता की बात सुनकर दीवानजी का मुंह उतर गया
"राजमाता जी, आपसे मिलने आने से पहले में उनसे ही मिलने गया था... वह प्रायः उनकी प्रवृत्तियों में काफी व्यस्त है और दरबार में पधार नही सकते.. इसलिए में यह दरख्वास्त आप के पास लेकर आया.. "
यह सुनकर राजमाता ने एक गहरी सांस ली.. अपने पुत्र को वह भलीभाँति जानती थी.. उसकी प्रवृत्तियाँ मतलब भोग-विलास और मदिरापान... ज्यादातर महत्वपूर्ण बातों को राजमाता ही संभालती आई थी.. इसलिए महाराज कमलसिंह का राज्य के कारभार में कुछ ज्यादा योगदान कभी नही रहा था... जब कमलसिंह युवा थे तब राजमाता सोचती थी की समय के साथ वह अपनी जिम्मेदारियों को निभाने में सक्षम बन जाएगा... पर वह तो किसी भी प्रकार की जवाबदेही से बचता ही रहता था... गनीमत थी की सूरजगढ़ में खेती और व्यापार काफी मात्रा में होता था इसलिए कर की आय से राज्य का खजाना कभी खाली नही रहता था... पर किसी भी राज्य के दिन-ब-दिन के प्रसाशन और व्यवस्थापन के काम का मुआयना करना अति-आवश्यक होता है...
राजमाता सोच में पड़ गई... इतना समय व्यतीत होने पर... और काफी बार समझाने के बावजूद महाराज कमलसिंह अपनी जिम्मेदारियों को गंभीरता से नही ले रहे थे... और अब कुछ ही समय में महाराज का उत्तराधिकारी भी आने वाला था... ऐसी सूरत में राज्य की स्थिरता बड़ी ही महत्वपूर्ण थी... राजमाता अब फिरसे राज्य की बागडोर को संभालने का निर्णय ले चुकी थी... पर उनके अकेले से यह जिम्मेदारी निभा पाना थोड़ा कठिन था..
काफी सोच-विचार के पश्चात, राजमाता ने उत्तर दिया
"ठीक है... आप तैयारी कीजिए.. कल दरबार का संचालन हम करेंगे"
दीवानजी यह सुनकर चिंता मुक्त हो गए... सारे मंत्री गण और दीवानजी खुद राजमाता की कुशलता के बारे में आश्वस्त थे.. दीवानजी ने कुर्सी से खड़े होकर राजमाता को सलामी दी... और उनके कक्ष से चले गए...
दूसरे दिन सुबह राजमाता की अगुवाई में दरबार की कार्यविधि को शुरू किया गया... राजमाता सिंहासन पर बिराजमान थी और उनके दोनों तरफ लगे आसनों पर सारे मंत्री, दीवानजी और सेनापति बैठे हुए थे...
एक के बाद एक समस्या और मसले पेश किए गए और राजमाता ने उन सबका त्वरित निराकरण भी कर दिया.. राजमाता की इस कुशलता के सारे मंत्रीगण कायल थे.. इसी कारणवश राजसभा में महाराज से ज्यादा राजमाता का रुतबा था।
इसी अवधि के दौरान एक भटकते हुए पुरुष ने राजमाता से मिलने की मांग की। आम नागरिकों के लिए राजमाता से मिलना और अपनी शिकायतें बताना बिल्कुल भी असामान्य नहीं था। वास्तव में उन्होंने इसका स्वागत किया और इसके लिए समय भी निश्चित कर दिया। लेकिन मुलाकात के पहले मिलने का उद्देश्य बताना आवश्यक रहता था ताकि अधिकारी राजमाता को मुलाकात की तैयारी में मदद करने के लिए पहले से ही प्रासंगिक जानकारी इकट्ठा कर सकें। राजमाता सभी की बातें विस्तार से सुनती थी और वास्तव में इन बैठकों को गंभीरता से लेती थी।
हालाँकि इस पुरुष ने मुलाकात का उद्देश्य बताने से इनकार कर दिया; सिवाय यह बताने के कि वह राजमाता की मदद करने के लिए यहां आया था और उससे अकेले में बात करेगा, किसी भी निम्न अधिकारी या मंत्री से नहीं। और इसलिए, निस्संदेह, अधिकारियों ने उसे राजमाता तक पहुंचने से वंचित रखा। अपने अहंकार के अलावा ऐसा नहीं लगता था कि उनके पास देने के लिए और कुछ है। वह लंबा, गौर वर्ण का आकर्षक और रहस्यमयी व्यक्तित्व का स्वामी था। उसका लंबा पतला शरीर और लंबा ललाट, उसके ज्ञानी और तपस्वी होने की पुष्टि कर रहा था। उसने बेदाग सफेद धोती पहन रखी थी, उनके नंगे धड़ पर रंगबिरंगी पत्थरों से बनी माला लटक रही थी। उसकी सारी सांसारिक संपत्ति कपड़े के एक छोटी सी गठरी में एकत्रित थी जो उसके दूसरे कंधे से लटक रही थी।
मुलाकात का अवसर ना मिलने पर वह हड़बड़ाकर वहाँ से चला गया और महल के द्वार के सामने डेरा लगाकर बैठ गया और इंतजार करने लगा। एक तपस्वी सदैव प्रतीक्षा कर सकता है क्योंकि उसकी इच्छाएँ और जरूरतें कम होती हैं। इस पुरुष के मामले में उन आवश्यकताओं की पूर्ति वहाँ से गुजरने वाले सामान्य लोगों द्वारा की जाती थी जो ऐसे तपस्वी ज्ञानी की सलाह और आशीर्वाद का सम्मान करते थे। आते जाते लोग भोजन और दैनिक जीवन के लिए आवश्यक अन्य वस्तुएँ छोड़ जाते थे।
कई दिनों के पश्चात राजमाता को इस दिव्य पुरुष के अस्तित्व के बारे में पता चला। फिर, जिज्ञासावश उसे मिलने की अनुमति देने के लिए प्रेरित किया। बुलावा भेजने पर सैनिक उसे लेकर हाजिर हुए। वह भावहीन चेहरे के साथ राजमाता के सामने खड़ा हो गया और इंतजार करने लगा। न कोई प्रणाम, न कोई अभिवादन, बस सिर्फ मूक दृष्टि!!!
आख़िरकार राजमाता ने कहा, "तुम मुझसे क्यों मिलना चाहते थे?"
"यह तय करने के लिए की क्या आप साम्राज्ञी बनने के लिए तैयार है या अभी भी केवल राजमाता ही बनी रहना चाहती है!!"
उस व्यक्ति के इस अत्यधिक अहंकार को देखकर दरबारियों में हंगामा मच गया और एक सैनिक तो उस पर हमला करने के लिए भी उठा, लेकिन राजमाता ने इशारे से उसे रोक दिया गया। इस व्यक्ति में राजमाता को रुचि जगी। शायद उसके पास अपने हास्यास्पद दावे का समर्थन करने के लिए कुछ था या शायद वह सिर्फ एक अहंकारी मूर्ख था। राजमाता ने सोचा, चलो पता लगाएं!!
"हम्म.. तो तुम्हारे आने का प्रयोजन तो पता चल गया... अब अपने बारे में भी तो कुछ बताओ"
"मेरा नाम विद्याधर है... और में विंध्य पर्वतों की तलहटी में बसे एक गाँव से आया हूँ"
"अच्छा विद्याधर, ये बताओ की यहाँ मेरे पास आना कैसे हुआ?" राजमाता को इस पुरुष में दिलचस्पी बढ़ने लगी
"में ज्ञानशीला नगर में शास्त्रों का अभ्यास कर रहा था... आए दिन कोई न कोई राजा उस नगर पर हमला कर देता और मेरे अभ्यास में बाधा पड़ती... तब मेरी रुचि इस भूगोल की राजनैतिक विषमताओ पर पड़ी.. यह प्रदेश कई राज्यों में बंटा हुआ है और सक्षम नेतृत्व के अभाव के कारण सारे राजा एक दूसरे से हमेशा लड़ते रहते है.. जरूरत है एक ऐसे सबल नेता की जो अपनी छाँव में सारे राज्यों को संभालकर एकता से जीना सीखा सके.. उन राजाओं के अहंकार और झूठी शान के खातिर सेंकड़ों सैनिकों की मृत्यु हो जाती है.. उनके परिवार अनाथ हो जाते है... आम जनता का जीवन भी व्याकुलता से भर जाता है... सक्षम राजाओं के लिए युद्ध अपना राज्य बढ़ाने का जरिया होगा पर आम प्रजाजनों का जीवन इससे नरक बन जाता है.. किसान खेती नही कर पाते, व्यापारी अपना उद्योग चला नही पाते... आवश्यक चीजें नही मिल पाती... महंगाई आसमान छु जाती है.. काफी गहन विचार के बाद में इस निष्कर्ष पर पहुंचा की अगर किसी सक्षम राज्य के नेतृत्व में अगर इन सारे कुनबों को ला दिया जाए तो इस खून खराबे का अंत हो जाएगा... प्रजाजन अपना जीवन खुशाली से व्यतीत कर पाएंगे... खेती और व्यापार बढ़ेगा तो सबका फायदा होगा!! काफी अध्ययन के बाद मुझे सूरजगढ़ की राजमाता में वह सारे गुण नजर आए जो में ढूंढ रहा था...में चाहता हूँ की आपके नेतृत्व में एक मजबूत साम्राज्य स्थापित किया जाए, फिर एक ऐसा राजवंश स्थापित होगा जो सैकड़ों वर्षों तक फैला रहेगा। मैं जानता हूं कि यह हमेशा के लिए नहीं रहेगा लेकिन यह मेरा उद्देश्य नहीं है। मेरा उद्देश्य, सबसे पहले और सबसे महत्वपूर्ण यही है की इस खूनखराबे और युद्धों को रोका जाएँ!!"
राजमाता इस पुरुष की असखलित वाक छटा से काफी प्रभावित होकर सुनती ही रही... !!!
"जैसे चाणक्य ने चन्द्रगुप्त को योग्य तालिम देकर एक सक्षम महाराजा बनाया था उसी तरह में आपको एक महान साम्राज्ञी बनने में आपकी सहायता करूंगा... और वो भी तब जब मुझे यह विश्वास हो जाएँ की आप इसके लिए योग्य हो!!"
उस पुरुष की बातें सुनते ही पूरी सभा आक्रोश से भर गई... यह टुच्चे आदमी की यह जुर्रत की वह राजमाता की योग्यता तय करेगा?? सेनापति अपने आसन से उठ खड़े हुए और उन्होंने अपनी तलवार निकाल ली। वह क्रोध से थरथर कांप रहे थे।
"राजमाता जी, आप आदेश करें तो एक पल में इस अहंकारी का सिर, धड़ से अलग कर दूँ"
राजमाता ने उत्तर नही दिया... वह इस तेजस्वी पुरुष की आँखों की चमक देखती रही... कुछ तो बात थी उसमें.. इतना विश्वास किसी इंसान में ऐसे ही नही प्रकट होता... किसी भी निर्णय पर पहुँचने से पहले राजमाता उसकी बात को विस्तारपूर्वक सुनना चाहती थी... उन्होंने इशारा कर सभा को बर्खास्त करने का आदेश दिया... थोड़ी ही देर में पूरा सभाखण्ड खाली हो गया... बच गए तो सिर्फ विद्याधर और राजमाता।
"अब बताओ," राजमाता ने कहा, अब वह दोनों अकेले थे, "मैं तुम्हें गंभीरता से क्यों लूं? अशिष्टता और दंभ के अलावा तुम्हारे पास ऐसा क्या है, जो मुझे विश्वास दिलाएगा कि तुम इस कार्य में मेरी मदद कर सकते हो?"
"मेरे पास ज्ञान है, और उस ज्ञान को व्यावहारिक उपयोग में लाने की बुद्धि है," उसने बड़े ही आत्मविश्वास के साथ कहा, "मैंने सभी शास्त्रों का सविस्तार पठन किया है। कई शक्षत्र तो मुझे कंठस्थ है। मैंने लगन से ऐसे गुरुओं की तलाश की है जो न केवल मुझे प्राचीन ग्रंथ या शास्त्र पढ़ाएं बल्कि उनके पीछे की सच्चाई भी समझाएं। मैंने सीखा है कि महान चीजें अलौकिक या परग्रहवासी प्राणियों के कृत्यों से हासिल नहीं की जाती हैं, बल्कि उन विचारों के कठिन अनुप्रयोग से होती हैं जिनके बारे में कोई मानता है कि वे अलौकिक शक्तियों से आते हैं और इन तथाकथित पवित्र ग्रंथों या 'शास्त्रों' में निहित हैं। और जिसे आप अहंकार मानते हैं," विद्याधर ने आगे कहा, "वह असल में अहंकार नही है, मुझ पर, मेरे ज्ञान पर और अपने ज्ञान की व्याख्या करने और उसे क्रियान्वित करने की मेरी बुद्धिशक्ति पर पूर्ण विश्वास है। मैं अपने लक्ष्य के प्रति पूरी तरह से आश्वस्त हूं और मुझे पूरा यकीन है कि मैं इसे हासिल कर सकता हूं अगर मुझे इसके लिए योग्य व्यक्ति मिलें।"
"और मैं तुम्हें कैसे विश्वास दिलाऊं कि वह योग्य व्यक्ति में स्वयं हूं?" राजमाता ने आँखों में चमक लाते हुए पूछा क्योंकि उन्हें यह पुरुष पसंद आने लगा था।
"मेरे कुछ सवालों का उत्तर देकर.. " विद्याधर ने जवाब दिया
"सवाल पूछो," राजमाता ने कहा और इंतजार करने लगी। उन्होंने नाटकीय ढंग से अपनी ठुड्डी के नीचे एक हाथ रखा और अपने चेहरे पर जिज्ञासा के भाव धारण कर लिए। वह इस अहंकारी पुरुष के साथ मानसिक द्वंद्वयुद्ध करने के लिए तैयार थी।
"सच और झूठ में क्या अंतर है?"
"कोई अंतर नहीं है," उन्होंने तुरंत कहा, "वह परिणाम ही है जो सच और जूठ को परिभाषित करता है।" यह कोई मौलिक उत्तर न था... शास्त्रों में इस विषय पर विस्तृत लेखन किया जा चुका है
"शक्ति का सही अर्थ क्या है?"
"यह उन साधनों में से एक है जिसके द्वारा आप अपने लक्ष्यों को प्राप्त करते हैं। इसे प्रभावी ढंग से उपयोग करने के लिए व्यक्ति को इसका प्रतिरूपण करने में सक्षम होना चाहिए। उपयोग किए जाने पर शक्ति दिखाई देती है। मुख्य रूप से इसके उपयोग का खतरा इसे एक उपयोगी साधन बनाता है।
और मैं साधन शब्द पर जोर दे रही हूं, क्योंकि वही सब कुछ है - खुद को अभिव्यक्त करने और अपनी इच्छा थोपने का एक उपकरण। हम सभी के भीतर क्रूरता है, और जो चीज हमें एक दूसरे से अलग करती है,और यह वह है की हम किस हद तक इसे खुद को व्यक्त करने देते हैं।
एक शासक के रूप में यदि मैं इसका अत्यधिक उपयोग करती हूँ तो यह मुझे एक अत्याचारी भी बना सकता है। लेकिन मुझे उससे कोई फरक नही पड़ता, मुझे इसका उपयोग करना होगा फिर भले ही कुछ लोगों के लिए में अत्याचारी बन जाऊँ।"
काफी लंबा-चौड़ा उत्तर था.. राजमाता खुद अचंभित थी की यह सब उनके मन में त्वरित प्रकट कैसे हो रहा है!!
"अच्छे और बुरे में क्या अंतर है?" अगला प्रश्न आया
"कोई अंतर नहीं है," फिर से तुरंत जवाब आया, क्योंकि राजमाता ने स्वयं इस बारे में सोचा था और कुछ समय पहले एक उत्तर तैयार किया था, "यह व्याख्या का विषय है। एक व्यक्ति को मारना बुरा हो सकता है और एक हजार को मारना अच्छा हो सकता है। यह आपकी व्यक्तिगत सोच पर निर्भर करता है... अगर कहना चाहे तो कह सकते है की अंतर केवल दृष्टिकोण का है"
"क्या आप ऊपर वाले की शक्ति को मानते हैं?"
"हाँ, मानती हूँ... " दृढ़तापूर्वक राजमाता ने कहा
"तो अगर आपके गुरु आपसे कुछ न करने के लिए कहें क्योंकि ऊपरवाला नहीं चाहता की ऐसा हो, तो आप क्या करेंगे?"
"यह ऊपरवाले की इच्छा की उनकी व्याख्या होगी और यदि मेरी व्याख्या अलग है तो मैं जैसा चाहूँगी वैसा ही करूंगी।"
"तो फिर ऊपरवाले के क्रोध का क्या करेगी, जिसके बारे में ज्ञानी पुरुष कहते हैं कि यदि आप उसकी इच्छा का पालन नही करेंगे तो आप पर उनका कहर टूट पड़ेगा!!"
"मैंने काफी रीति रिवाजों का पालन नही किया है जिसके बारे में बताया गया था और चेतावनी भी दी गई थी की इसका परिणाम बहुत बुरा होगा और ऊपरवाला मुझे सज़ा देगा। पर देखो, में यहाँ तुम्हारे सामने खड़ी हूँ, चुस्त दुरस्त और एक राज्य की राजमाता...!!" मुसकुराते हुए राजमाता ने उत्तर दिया
वह अपनी बाहों को अपनी छाती पर रखकर खड़ा रहा और बोला "आप बुद्धिमान हैं और स्वतंत्रता से सोचने में सक्षम हैं। आप शिक्षित भी हैं और मुद्दों को निष्पक्षता से देखने में निपुण हैं। आपकी आँखों में देखकर मुझे यह सहज रूप से लगता है कि आप में दया भी है। आपके पास वह सारे महान गुण हैं जो एक काबिल शासक में होने चाहिए।"
"बस इतना ही...!!" राजमाता ने उसकी चुटकी लेते हुए कहा "मैंने कुछ प्रश्नों के उत्तर क्या दे दिए... तुम्हें मेरी योग्यता का विश्वास हो गया!!"
यह सुनते ही उस पुरुष केकठोर चेहरे पर मुस्कान की झलक दिखाई दी।
अपने हाथ जोड़कर, सिर झुकाकर उसने कहा "कृपया मुझे अपना गुरु बनने की अनुमति दीजिए ताकि मैं अपना लक्ष्य प्राप्त कर सकूं और अपने जीवन को अर्थपूर्ण बना सकूं।"
उस पुरुष के अहंकार से विनम्रता की ओर अचानक हुए इस बदलाव ने राजमाता को आश्चर्यचकित कर दिया। आखिर वह चाहता क्या था? उन्होंने सोचा। हालांकि उस पुरुष को पारदर्शी नजर में ईमानदारी झलक रही थी।
"ठीक है," राजमाता ने उत्तर दिया, "देखते हैं तुम क्या कर सकते हो। लेकिन अभी तुम महल के बाहर ही रहो। में सोच के बताऊँगी इस बारे में"
विद्याधर ने हाथ जोड़कर राजमाता को नमन किया और वहाँ से चल दिया...
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सुबह अपनी दिनचर्या निपटाकर राजमाता अपने कक्ष में विविध कसरत कर रही थी... वह हमेशा से कसरत करती ताकि उनकी योनि की मांसपेशियाँ ढीली ना पड़ जाएँ और पेट के इर्दगिर्द चर्बी का जमावड़ा ना हो। उनकी कसरत में तब बाधा आई जब उन्हे अपने कक्ष के बाहर हंगामा सुनाई दिया। प्रतीत हो रहा था कि विद्याधर ने तय कर लिया था कि अब राजमाता को प्रशिक्षित करने का समय आ गया था और उसने पहरेदारों से नजर बचाकर महल में घुसने का प्रयास किया था।
शारीरिक रूप से रोके जाने पर उसने संस्कृत में पहरेदारों को गालियां देना शुरू कर दिया था। इससे पहरेदार डर गए क्योंकि एक तपस्वी के श्राप से निश्चित रूप से हर कोई दर्ता था। सारे पहरेदार अपने मुख्य सैनिक की तलाश में यहाँ वहाँ दौड़ने लगे।
कुछ ही पलों में उनका मुखिया प्रकट हुआ... वह और कोई नहीं पर शक्तिसिंह था... उस पर इस तपस्वी की गालियों का कोई असर नही हुआ.. उसने एक पल में विध्यधार को कंधे से उचक लिया और धमकाकर चुप करा दिया... बलवान शक्तिसिंह की आग उबलती नजर को देखते ही विद्याधर के तोते उड़ गए। अब वह गालियां देने के बजाय डर के कारण जोर जोर से चीखने लगा...
राजमाता इस हंगामे से त्रस्त और परेशान हो गईं। बाहर आकर उन्हों ने शक्तिसिंह को चिल्लाते विद्याधर को छोड़ देने का आदेश दिया। फिर उन्हों ने अपने महल के पहरेदारों को बुलाया और उनसे कहा कि वे विद्याधर को पहचानें और उसे हर समय अंदर आने की अनुमति दें।
आने वाले सप्ताहों में, विद्याधर राजमाता का करीबी बन गया था। वह उन्हे मार्गदर्शन और सलाह देने, कानून पारित करने में मदद करने और निजी तौर पर एक-एक सत्र में उसे शासन करने की कला सिखाने के लिए हमेशा तैयार रहता था। किसी भी समय राजमाता को मिलने में कठिनाई न हो इसलिए उसे महल में निजी कक्ष भी दे दिया गया था।
एक दिन, ऐसा ही एक शिक्षण सत्र चल रहा था जो की कराधान पर केंद्रित था।
यह सत्र गहमा-गहमी हुई क्योंकि विद्याधर इस बात से चिढ़ गया था कि राजमाता को वह बात समझ में नहीं आ रही थी जो वह उन्हें सिखा रहे थे। मामला तब तूल पकड़ गया जब उसने पूछा, "कर बढ़ाए बिना मैं अच्छी तरह से राज्य का संचालन कैसे कर सकती हूँ?"
इससे वह क्रोधित हो गया, "क्या आप सुन नहीं रहे कि मैं क्या कह रहा हूं? क्या आप एक अच्छा शासक और राजवंश के संस्थापक बनना चाहती हो या सिर्फ एक छोटे से राज्य की राजमाता बनी रहना चाहती हो? मुझे बताओ, क्या आप ठीक से सीखना चाहते हो? यदि नहीं, तो बता दीजिए और मेरा समय बर्बाद करना बंद कीजिए।"
"उफ़," राजमाता ने हताशा में कहा, "तुम्हारा अपने गुस्से पर कोई नियंत्रण ही नहीं है। इतने प्रतिभाशाली व्यक्ति होकर भी तुम्हारी भावनात्मक स्थिरता दो साल के बच्चे जितनी है।"
राजमाता के व्यंग्य को पूरी तरह से नजरअंदाज करते हुए, उसने तीखेपन से कहा, "मैं आपके उत्तर की प्रतीक्षा कर रहा हूं।"
हताश राजमाता उसकी बात सुनना चाहती थी, उन्हों ने कहा, "हाँ, हाँ, मैं सुन रही हूँ, मुझे बताओ।"
अपना गुस्सा जाहिर करने के बाद उसने अधिक सौहार्दपूर्ण स्वर में कहा, "इसका निराकरण प्रसाशन का स्थानीयकरण करने में है। आप लोगों को यह तय करने दें कि वे छोटे स्थानीय स्तर पर क्या चाहते हैं। स्थानीय अधिकारियों को लोगों द्वारा चुना जाना चाहिए; चुने गए लोगों को जवाबदेह होने दें और शासक इन झमेलों से दूर ही रहे। आप एक बड़े क्षेत्र के लिये पर्यवेक्षकों को नियुक्त करते हो। उनके चुनाव में आप काफी सावधान रहें कि आप किसे नियुक्त करते हैं और सुनिश्चित करें कि वे स्थानीय राजनीति से दूर रहें। जैसे-जैसे आपका राज्य बढ़ेगा, यह और अधिक महत्वपूर्ण हो जाएगा। इन पर्यवेक्षकों को कभी भी अत्यधिक शक्तिशाली न होने दें। और अपनी सरकार की सबसे छोटी इकाई तक सीमित रखे। हमेशा याद रखें जहां लोग महसूस कर सकें कि वे अपने भाग्य को नियंत्रित करने के लिए सशक्त हैं। अपने करों का बड़ा हिस्सा स्थानीय रखें और सुनिश्चित करें कि लोग स्थानीय स्तर पर खर्च हो रहें पैसों का प्रभाव देख सकें।"
अपनी बात का विचारपूर्वक निष्कर्ष निकाल कर उसने कहा, "अच्छी सरकार प्रदान करने के लिए, अपना राजस्व बढ़ाने के कई तरीके हैं। कर बढ़ाना हर समस्या का हल नही होता।"
"अब काफी अभ्यास हो गया, मेरी राजमाता," विद्याधर ने कहा, और फिर वह नीचे की ओर खिसकते हुए राजमाता के करीब आया जहां वह मुलायम तकियों पर बैठी थी, "अब कुछ आनंद भी कर लिया जाए।"
विद्याधर ने एक झटके में, उनके घाघरे को ऊपर उठा दिया, उनकी जाँघों को अलग कर दिया और अपना चेहरा राजमाता की जांघों में छिपा दिया।
अचानक हुए इस हमले से राजमाता एकदम स्तब्ध रह गई. इतने सप्ताहों की इस रिश्ते में अब तक ऐसा कुछ भी नही हुआ था जो विद्याधर को ऐसा करने पर प्रेरित करें!!!
इससे पहले कि वह दूर हट पाती, या विरोध भी कर पाती, विद्याधर की जीभ राजमाता की योनि की परतों को कुरेदने लगी और उस अनुभूति ने राजमाता के मन को झकझोर को रख दिया। विद्याधर अपनी जीभ से चुत को टटोलने में काफी निपुण था।